Sunday, September 9, 2012

बोलते विचार 67 व्यर्थ के झगड़े का इलाज


व्यर्थ के झगड़े का इलाज
आलेख व स्‍वर 
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा 



एक मोहल्ले की एक सड़क के बीच में एक कम पढ़ी-लिखी निम्न वर्गीय औरत एक साइकिल सवार को रोककरडाँट रही थी कि यदि तुम्हारी साइकिल से मेरे टककर लग जाती तो मेरे चोट लग जाती। साइकिल वाला जवाब दे रहा था कि न तो तुम्हारे चोट लगी है और न मेरी साइकिल ने तुम्हे छुआ ही है। मैं तो एक फुट की दूरी से  साइकिल निकाल रहा था। औरत बिगड़कर कहने लगी कि नहीं, तुम्हें साइकिल को और ज्यादा दूरी से  निकालना था, तुम्हारी गलती से मेरे चोट लग सकती थी। अगर लग जाती तो ? औरत के तेवर देखकर लग रहाथा कि वह साइकिल वाले को वहाँ से जल्दी नहीं जाने देगी और उसे खरी-खोटी सुनाती ही रहेगी।

साइकिल वाला जानता था कि साइकिल चलाने में उसने लेशमात्र भी गलती नहीं की थी, उलटे उसने औरत को सड़क के बीचों बीच चलते देखकर उससे बचने में विशेष सावधानी बरती थी। फिर भी उसने तत्काल गलती मान ली और बोला, ‘माँ जी ! मुझे एक बार माफ कर दो बस। आगे से ऐसी गलती कभी नहीं करूँगा।औरत ने अपनी जीत की खुशी में साइकिल वाले को मुक्त कर दिया।

जिंदगी में जाने कितने ऐसे अवसर आते हैं, जब हम दूसरे की नासमझी या गलती के कारण परेशानी में फँस जाते हैं। उपर्युक्त प्रकरण में यदि साइकिल वाला बहस को बढ़ाता रहता तो बात बिगड़ती ही चली जाती। उसका माफी माँगकर बखेड़े को जल्दी से निबट डालने का कदम बहुत समझदारी का था। ऐसा करने से उसकी जेब से कुछ नहीं गया और उसने एक नासमझ के क्रोध को जीत लिया। यदि वह अपनी सफाई दे देकर औरत के क्रोध को बढ़ाता जाता और अपने अहम् के नाम पर स्वयं भी अधिकाधिक क्रुद्ध होता जाता तो अपना ही नुकसान करता।

निष्कर्षतः किसी व्यर्थ के झगड़े का इलाज स्वयं को गलत न सिद्ध करने के लिए झगड़ा बढ़ाना नहीं है, उसका इलाज झगड़ा करने वाले के हाथ जोड़ लेना है।

2 comments:

  1. सही इलाज झगडा न बढाने का । कथ्य तो अच्छा है ही कथन भी बढिया ।

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