Bolte Vichar 7
आलेख व स्वर - डॉ.रमेश चन्द्र महरोत्रा
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जो बात माता-पिता के साथ है,वही गुरु के साथ भी है,जिसे आधुनिक संदर्भों में इस तरह सोचने की ज़रुरत है कि गुरु अपना धर्म सही ढंग से निभा रहा है या नहीं। यदि उसके कर्म अच्छे हैं,तो वह आज भी सम्मान पाता है। बुरे कर्मों वाला व्यक्ति गुरु हो या अभिभावक, डॉक्टर हो या वकील, अधिकारी हो या नेता, समाज उस पर सामने भले ही थू-थू न करे, उसे पीठ पीछे किसी न किसी रूप में गिरा ही डालता है। भले आदमी दूसरों की नज़रों से गिर जाने को भी भारी सज़ा और दुर्भाग्य मानते हैं। अपने सत्कर्मों के बल पर बड़े इंसान, जैसे ईसा मसीह, हज़रत मोहम्मद, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, गुरु गोविंद सिंह, दयानंद सरस्वती,स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी शासकों की तुलना में अधिक इज़्ज़तदार और नज़रों में ऊँचे रहते आए हैं।
सही परिश्रम कभी बेकार नहीं जाता और विश्वासघात कभी स्थाई रुप से फलीभूत नहीं होता। गुण स्वयं में पारितोषिक है और कोई भी व्यक्ति सबको सब समय के लिए बेवकूफ नहीं बना सकता। आदमी यदि अपनी योग्यताओं के साथ-साथ अयोग्यताओं को भी तोल कर देखें, तो उसकी कर्मनिष्ठा और वफादारी की मात्रा के हिसाब से उसे उतना ही अच्छा या बुरा फल ज़रूर मिलता है। यहाँ नौकरी करने का उदाहरण लीजिए। जो व्यक्ति अपनी नौकरी के प्रति वफादार नहीं होता, वह अपना और अपने परिवार का भविष्य हर क्षण ख़राब करता चलता है, न जाने कब उस पर आफ़त आ जाए। स्पष्ट है कि वह नमक अदा नहीं करता, कयोकि जिसकी वजह से उस का और उसके बच्चों का पेट पालता है, जिसके बिना वह सड़क पर खड़ा हो सकता है, और जिसके कारण ही उसका पदानुकूल स्टेटस होता है, उसी की वह जड़ें खोदता है। वह जिस हँडिया में पकाता है,उसी में छेद करता है। वह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है। अपनी संस्था का काम न करने और उसे खोखला करने का मतलब है अपनी भी टांगें कमज़ोर कर डालना। वह बबूल का पेड़ बो कर आम के फल की कामना करता है। जब आदमी की आदमी के ही प्रति कृतघ्नता को दुष्कर्म ही कहा जाता है,तो संस्था तो बहुत बड़ी चीज़ है। संस्था अपने कर्मचारियों के लिए अपनी सीमाओं में बहुत-कुछ करती ही है,जब कि कर्मचारी भूल जाते हैं। यदि संस्था किसी कर्मचारी के लिए कुछ न करे, या न कर सके, तो वह उस संस्था को छोड़ कर कहीं नहीं जाता- वस्तुतः वह अक्सर इस योग्य ही नहीं होता कि कहीं और नियुक्ति पा सके। सारी षिकायतें उसे उसी संस्था से होती हैं, जिस का वह खाता है। दूसरी संस्थाओं की वह तारीफ़ करता है, जो उसके लिए कुछ भी नहीं करतीं- कड़वे शब्दों में कहें जो उसे घास भी नहीं डालतीं। वह जिंदा अपने माता -पिता की रोटी पर रहता है, पर गुण दूसरे मोहल्ले के लोगों के गाता है। ऐसा आदमी जो अपनी नौकरी के प्रति कामचोर और बेईमान रहता है, उसके कर्मों का फल कम सें कम इतना बुरा तो सामने रहता ही है कि वह जि़म्मेदार लोगों की नज़रों से गिर जाने के कारण ऊँचा नहीं उठ पाता। वह ख़राब बीज बोता है, उस से अच्छा पेड़ नहीं उग सकता। घुने हुए बाँस से बाँसुरी नहीं बज सकती।
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विचारणीय बिन्दुओं की तरफ ध्यान दिलाने के लिए आपका शुक्रिया ....!
ReplyDeleteबहुत बढिया ..
ReplyDeleteसुंदर व्याख्या
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