Wednesday, November 23, 2011

बोलते वि‍चार 35 - सम दृष्टि और सामाजिक सुख


आप अपने को स्वस्थ तभी कहते हैं जब आपके सारे अंग ठीक हालत में काम कर रहे होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आपकी किसी अँगुली की पोर में चोट लगी होती है, तब आपका सारा शरीर उसे याद रखता है। इसी तरह यदि आपके सिर में दर्द हो रहा होता है, तब आप यह नहीं कहा करते कि आपके शेष शरीर में दर्द नहीं है।

    
जिस प्रकार अच्छे स्वास्थ्य के नाम पर शरीर के प्रत्येक अंग का महत्व है उसी प्रकार परिवार के सुख के लिये उसके बड़े-छोटे सब सदस्यों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना जरूरी है। यदि आपने इस मामले में पक्षपात किया तो परिवार में देर-सबेर निश्चित रूप से मनोमालिन्य, विवाद और कलह की स्थिति पैदा हो जाएगी; वरना स्नेह और आदर सबके लिए है, अनुशासन सबके लिए है, त्याग सबके लिए है, अधिकार सबके लिए है।
    
पेड़ की जड़ें जब समूचे पेड़ को एक सी खुराक पहुँचाती है, तभी उसकी एक-एकपत्ती लहलहाती है। उसके पुष्पित और फलित होने में उसके समग्र अंगों का योगदान रहता है।

समाज में विद्रूपताएँ इसलिए जन्म लेती हैं कि आदमी समाज को इकाई न मानकर स्वयं को इकाई मानते हुए दूसरों का शोषण करता है। दूसरी ओर, जिस-जिस इंसान ने दूसरों को अपने जैसा माना है, वहीं महानन बन गया है। अन्यों का हिस्सा हड़पनेवाले धनपशु राजनेताओं और अति साधारण जन के रोटी-कपड़े-मकान के साथ जिन्दगी जीने वाली जैसी महान् आत्माओं में यही अंतर है।  ‘अपने समान सब’ और ‘सब लोगों का हित’ वाली सूक्तियाँ’ ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और ‘सर्वजनहिताय’ मानवता के प्रथम सोपान हैं। सबको एक नजर से देखने का गुण इतना अधिक बड़ा है कि यदि हम इस दिशा में एक कदम भी बढ़ जाएँ तो इनसानियत के नाम पर आज के कुछ लाख लोगों के ऊपर पहुँच जाएँ।

Production - Libra  Media Group, Bilaspur (C.G.), India

1 comment:

  1. बेहतरीन लिखा है, अच्छे शब्द लेख में बिल्कुल सही कहा/बताया है

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