Sunday, December 11, 2011

बोलते वि‍चार 39 - मार्ग की बाधाएँ

   
बोलते वि‍चार 39
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

एक साइकिल सवार की साइकिल का पहिया सड़क के बीच में पड़े एक पत्थर से टकरा गया। साइकिल सवार ने झुँझलाकर वहाँ पत्थर डालनेवाले के नाम पर गंदी-गंदी गालियाँ दे डालीं। उसके ऐसा करने से न तो पत्थर डालने वाले का कुछ बिगड़ा  और न उसकी गालियाँ सुननेवाले राहगीरों ने उसके बारे में अच्छी धारणा बनाई। जो कुछ बिगड़ा, सिर्फ उसका बिगड़ा....मूड बिगड़ा, जबान बिगड़ी।


एक भोला सा राहगीर उससे बोला, ‘सड़क के बीच में पत्थर डाल देनेवाले ने तो जरूर गलती की है, भैया, मानते हैं; पर ‘तुलने’ पत्थर को सड़क पर पड़े हुए क्यों नहीं देखा?’ सुनकर साइकिल सवार उस पर भी यह कहकर बिगड़ उठा कि मुझे अंधा कहता है। लोग हँसने लगे।
    
इस घटना में हार साइकिल सवार की ‘दृष्टि’ की ही नहीं, ‘बुद्धि’ की भी हुई। यानी जिस व्यक्ति ने पत्थर वहाँ डाला था, उसकी एक तरह से जीत हो गई। साइकिल सवार की जीत तब होती जब वह पत्थर से अपने को बचाता हुआ निकल जाता। उसकी और भी बड़ी जीत तब होती जब वह पत्थर को उठाकर किसी कोने में रख देता, ताकि उसकी तरह किसी और की साइकिल उससे न टकराए।
 ऐसा अकसर होता है कि हम अपनी आँखों खुली रखने के बजाय विविध क्षेत्रों में दूसरों से भारी अपेक्षा रखते हैं कि वे हमारे लिए मार्ग साफ-सुथरा बनाकर रखेंगे। ऊपर वर्णित मामूली सी घटना से हम एक बड़ी सीख ले सकते हैं कि जीवन-पथ मे तरह-तरह की बाधाएँ आती हैं, जिनको पार करने के लिए हम स्वयं अपनी दृष्टि और बुद्धि का उपयोग करते हुए अपना रास्ता खुद बनाएँ और आगे बढ़ने के लिए यह न सोचें कि हमें हर रास्ता बना-बनाया मिलेगा। बाधाओं को देखकर कुढ़ने और बाधाएँ उपस्थित करने वाले प्राणियों को कोसने से कुछ हाथ नहीं लगेगा।

Libra Media Group, Bilaspur (C.G.) India

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