BOLTE VICHAR 2
आलेख व स्वर - डॉ.रमेश चन्द्र महरोत्रा
आलेख व स्वर - डॉ.रमेश चन्द्र महरोत्रा
ग़लती सभी से होती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम ग़लती करने के लिए स्वतंत्र हैं। बच्चा कुछ लिखने में ग़लती करता है, तो उससे उसका सुधरा हुआ रूप पांच या दस बार लिखवाया जाता है। यह इसलिए कि वह उस ग़लती को दुबारा न करे। क्रिकेट के महान खिलाड़ी सोबर्स से जब किसी ने जब यह पूछा कि आप की सफलता का राज़ क्या है,तो उन्होंने जवाब दिया-‘‘सिर्फ इतना कि मैं जिस ग़लती से एक बार आउट हुआ,उसी ग़लती से दुबारा कभी आउट नहीं हुआ। कारण यह था कि वे उस ग़लती के बारे में इतना अधिक सोचते थे कि अपने दिमाग को झकझोर डालते थे और भविष्य में उस ग़लती को दुबारा नहीं होने देते थे। ग़लती जानने के बाद भी उसे बार-बार करने वाला व्यक्ति या तो ग़लत स्वभाव का दास हो जाता है, या वह अपनी उन्नति के प्रति निराश हो चुकता है, और या वह बेवकूफ होता है। ग़लती न सुधारने के पीछे मजबूरी कम होती है,अनिच्छा और एकाग्रता की कमी अधिक होती है।
मनोयोग ईमान की चीज़ है। कुछ लोग हृदय से चाहते हैं कि उनसे ग़लती न हो; उसके लिए वे स्वतः प्रेरित प्रयत्न भी करते हैं। दूसरी ओर वे लोग होते हैं,जो ठीक से काम तभी कर सकते है, जब उन्हें सज़ा का डर हो। यह सज़ा चाहे पिटाई के रुप में हो; चाहे किसी अन्य रुप में। जहाँ कहीं हाथ काट डालने की सज़ा सुनी गई है, वहां ग़लती से भी व्यक्ति चोरी करने की लापरवाही नहीं दिखाया करते।
अपने किसी जूनियर को उसकी ग़लती पर न टोकना और उसे न डाँट पाना स्वयं अपनी कमज़ोरी है। इसका अर्थ है कि हम किसी बात से दबते हैं। छोटों को उनकी ग़लती न बताने का अर्थ है कि हम उन में सुधार नहीं चाहते। बच्चों को सदा ही लाड़ देना और उन की ग़लत पड़ रही आदतों पर भी उन्हें कभी न डांटना उन्हें सिर पर चढ़ा लेना है, उनका भविष्य बिगाड़ देना है। ग़लती समझ लेने और उसे स्वीकार कर लेने वाला व्यक्ति,चाहे वह छोटा हो या बड़ा अपनी उन्नति की ओर मुँह किए हुए होता है। इसके विपरीत,ग़लती न मानने वाला व्यक्ति पोखर में सड़ते हुए पानी के समान होता है। अपने दोस्त को उसकी ग़लती न बताने वाला आदमी उसका सच्चा दोस्त नहीं होता। दूसरी ओर दुष्मन को ग़लती बता देना उसे उसकी दुर्बलता दूर करने का रास्ता दिखा देना है।
दूसरों में दोष देखकर हम प्रायः जल-फुंक जाते हैं;कभी बहुत गुस्सा हो जाते हैं और कभी गालियाँ भी दे डालते हैं। यहाँ ‘दूसरों’ को दो भागों में बाँटना आवश्यक हो जाता है। एक, आत्मीय जन, और दूसरे, परकीय जन। यदि किसी आत्मीय के दोष ग़लती को देखकर हम आगबबूला हो रहे हैं, तो यह शुभ लक्षण है; क्योंकि तब हम एक ऐसे व्यक्ति के लिए पीड़ा सह रहे हैं, जिसमे हम सुधार चाहते हैं। लेकिन यदि किसी परकीय अर्थात् सड़क चलते या अपने दुश्मन सरीखे किसी व्यक्ति के दोष देखकर हम क्रोध के चंगुल में फँस गए हैं, तो यह ‘हमारी’ ग़लती है, क्योकि इससे हम ने स्वयं में दोष को पैदा कर लिया। इस प्रकार ग़लती का स्वरुप सदा सार्वभौम नहीं हुआ करता,वह व्यक्ति सापेक्ष भी हुआ करता है।
अब अंतिम बात के रुप मे सबसे अच्छा सिद्धांत यह है कि इम स्वयं ग़लतियाँ कम से कम करें और पहले अपने दोषों को दूर करें;दूसरों की ग़लतियों को दूर करने के लिए हम अपने ‘दोषों’ को नहीं, अपने गुणों को काम में लाऐ। ध्यान दीजिए कि नालंदा विश्वविद्यालय के द्वार लिखी तीन उक्तियों में से एक यह थी - ‘‘दोष को उपकार से मारो।’’
स्वयं में सुधार लाने के लिए महत्वपूर्ण आलेख...और सुनना तो हमेशा की तरह सुखद...
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