महेश अपने भाई और पिता से जमीन-जायदाद संबंधी मुकदमा लड़ रहे थे, जिस सिलसिले में उन्हें अपने गाँव से अपनी बड़ी बहन के नगर कई बार जाना हुआ करता था। स्वाभाविक था कि वे बहन के यहाँ ठहर जाया करते थे। वहाँ वे जब-तब पिता के विरूद्ध विष उगलते रहते थे, जिसके प्रभाव से बहन पिता को इतना बुरा समझने लगी थी कि उसका मन उनके पास जाने का भी नहीं होता था। कुछ समय बाद जब एक बार उसका किसी विशेष अवसर पर गाँव जाना हुआ तो पिता ने उसे महेश के विरूद्ध बीसियों बातें बता डालीं, जिनका उस पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने महेश को आगे अपने घर पर ठहरने को क्या, आने तक को मना कर दिया।
यह सच्ची घटना सिर्फ यह सोचकर लिखी गई है कि किसी बात पर विश्वास केवल एक पक्ष को सुनकर करना उचित नहीं है - विशेषकर तब, जब बात में किसी व्यक्ति की बुराई-ही-बुराई हो। किसी की लगातार और हमेशा सिर्फ बुराई करने वाला व्यक्ति सामान्यतया ‘उस किसी’ के प्रति व्यक्तिगत विद्वेष से भरा हुआ होता है। जब दोनों पक्ष एक-दूसरे पर आरोप पर आरोप लगाते जा रहे हों तब सच्चाई को खोज निकालना आसान नहीं होता। कचहरियों की जरूरत इसीलिए पड़ती है।
यदि आप किसी ऐसे मामले में दो पक्षों की बीच फँस जाएँ तो ‘किसी एक की’ अच्छी-से-अच्छी या बुरी-से-बुरी बात को भी सुनकर अपना निर्णय कभी न दें।
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