हम बात कर रहे थे इंटरनेट की। अब लोग इसको ज्यादा समय देने लगे हैं। अपने फज्ञेटोग्राफ्स, लोगों की बातचीत, दुनिया भर की जानकारी के साथ ही अपनी भवनाओं को बाँटने का साधन भी बन चुका है ये इंटरनेट। ब्लॉग लिखना अपनी भावनाओं को दूसरों तक पहुँचाने का एक माध्यम है। अपने वीडियोज़ को दुनिया के दूसरे कोने तक पहुँचाने के लिये यू-ट्यूब जैसे साधन हैं और अपनी आवाज़ के माध्यम से शिक्षा, गीत, कहानी, मन की बातें दूसरों तक पहुँचाने का जरिया तेजी के साथ बढ़ रहा है पॉडकास्टिंग। तो मेरे इस ब्लॉग में शामिल रहा करेगा पॉडकास्ट भी। कुछ दुर्लभ आवाजें भी हम आप तक पहुँचाएँगे इस माध्यम से और कुछ आवाजें होंगी हमारे आपके बीच की आवाजें। कुछ ऑडियो कार्यक्रम जिनका निर्माण हमने किया है वे भी स्क्रिप्ट सहित आपकी स्क्रीन पर होंगे। पहले आवाज़ की दुनिया के सम्मोहन पर कुछ बातें मेरे मन की सुनिये......
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आज पहली बार पॉडकास्टिंग के साथ अपने इस ब्लॉग पर प्रयोग करते हुए आपको रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के सेवानिवृत्त प्रोफेसर एवं हमारे प्रेरणास्रोत डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा की एक बहुत पुरानी, दुबली-पतली लेकिन मजबूत कविता ‘लवशाला’ की स्क्रिप्ट और उनकी आज की 76 वर्षीय आवाज में एक बानगी प्रस्तुत कर रहे हैं।
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दो शब्द... लेखक के
आपने शालाएँ तो बहुत देखी होंगी, पर 'लवशाला' पहली बार देखिए। इसे मैंने तब लिखा था, जब मुझे लोग 'दादा जी' नहीं कहा करते थे। वे भी क्या दिन थे! अब तो रातें ही रातें हैं! और वह भी जगराते वाली।
पाठकों से आग्रह है कि वे इस 'दांपत्य-मंजूषा' को 'हनुमान चालीसा' के समान पढ़ा करें। उनके सारे संकट दूर हो जाएँगे।
लवशाला
कविता के ऑंचल से लेकर
आसव मृदु वाणी वाला।
भीने भावों के फूलों से
गूँथ रहा हूँ यह माला।
प्यार हृदय का जीवन-धन है,
इसका रंग दिखाने को,
यौवन की फुलवारी-जैसी
खोल रहा हूँ लवशाला।
मद में भीगी रसभरियों से
भरा हुआ है यह प्याला।
गंगा-सी बहती है इसमें
मीठे सपनों की हाला।
दो छोरों का जुड़ना इसमें,
गठबंधन दो कृतियों का,
हर लड़की है राधा इसमें,
हर लड़का मुरलीवाला।
इस मंदिर में प्रिय-प्रियतम के
इठला रही प्रणय-वाला।
अर्पण है हृदयों का इसमें
और दर्द भोला-भाला।
उलटी-सीधी साँसें हैं कुछ,
प्यार-भरी कुछ बातें हैं,
और प्रेमियों के मन का,
इसमें कुछ है हालाचाला।
पुरखों ने भी प्यार किया था
छिप-छिप कर ढीला-ढाला।
पोते-परपोते भी आगे
प्यार करेंगे मतवाला।
हर पीढ़ी में बिकते आए,
मोल बिला ही दिलवाले,
इसमें हैं लखपति वे, जिनके
दिल का निकला दीवाला।
मन के सारे दर्द भुलाना
खूब सिखाती है हाला।
और निराशाओं से पीछा
खूब छुड़ाता है प्याला।
लेकिन सारे दर्द और
सब खोते हुए निराशाएँ,
जीवन भर का साथ निभाना
सिर्फ सिखाती लवशाला।
नर हो, सुर हो या दानव हो,
गोरा हो अथवा काला।
संसारी हो या हो वैरागी,
बहनोई अथवा हो साला।
प्यार सभी के मन का मोती,
धन निर्धन-धनवानों का,
उसके बिना अधूरे सब हैं,
लल्ला, लैला या लाला।
हीरे, मोती, पन्ने, नीलम,
या धन-वैभव की माला।
लेन-देन इनका प्रेमी के
लिए व्यर्थ का घोटाला।
झूठी है हर वस्तु यहाँ की,
अटल सत्य बस एक यही-
चाहे जल-थल-नभ मिट जाएँ,
पर न मिटेगी लवशाला।
प्रेमी एक समाज-सुधारक,
सचमुच कुछ करने वाला।
ऊँच-नीच का, जाति-पाँति का
उसने भेद मिटा डाला।
प्रेम किसी से भी हो, सब ही
उसके लिए बराबर हैं,
नलवाली हो या फलवाली,
या महलोंवाली बाला।
यही निबटना है हम सबको,
हाथ मसलना, यदि टाला।
इस जीवन के बाद वहाँ क्या?
केवल है गड़बड़झाला।
जो कुछ भी मिलना है हमको,
यहीं मिलेगा, यह तय है,
फिर न मिलेंगे ऐसे अवसर,
फिर न मिलेगी लवशाला।
पहले रह कर दूर-दूर ही
दिखता अति भोला-भाला।
फिर धीरे से पास पहुँच कर
करता गड़बड़-घोटाला।
लवशाला के नायक का यह
'प्रोग्राम' निश्चित रहता,
आखिर में वह जीत जाता
तब बन जाता है घरवाला।
स्वर्ग, सुनो क्या है मतवालो?
'प्रिय की बाँहों की माला'।
अपने गले लिपटने पर जो
देती सुख सुरपुर वाला।
आलिंगन की गंध नरक के
द्वार बंद कर के रखती,
सब पापों की एक दवा है-
पापहारिणी लवशाला।
प्यार हृदय की भूख-प्यास है,
अमर सुधा का यह प्याला।
प्रेमी अपनी प्यास बुझाता
पी कर नयनों की हाला।
उसकी शब्दावली जरा-सी,
आठ शब्द जिसमें केवल,
'प्रेम, प्रेमिका, मैं, मेरी वह,
मैं उसका होने वाला' ।
लवशाला के दर्शन करके
झूम उठा हर मतवाला।
दो जवान, दोनों दिलवाले
चंचल युवक, मधुर बाला।
एक इधर से, एक उधर से,
आकर दोनों एक हुए,
खोकर सत्ता हृदयों की
फूल रही है लवशाला।
जप-तप, पूजा-पाठ, साधना,
भस्म, मूर्ति, घंटा, माला।
व्यर्थ तीर्थ, धन, यश, पद,
गरिमा, वैभव, मदिरा का प्याला।
स्वाति-बूँद बस बूँद और
सब बूँदें हैं पानी खाली,
अपनी बाला ही बाला बस
बाकी हर बाला ख़ाला।
दो चीजें हैं जिनमें खुद ही
आकर्षण होने वाला।
दोनों चुंबक, दोनों लोहा,
क्यों न मचे हालाचाला।
प्यार अवश्यंभावी जग में,
क्योंकि जवानी आती है,
चूँकि जवानी आती है,
फिर क्यों न जवाँ हो लवशाला।
प्यार न हो, तो विश्व-प्रगति की
फिर न गुँथे आगे माला।
कलियाँ और फूल फिर जग में
जन्म न लें चाहों-वाला।
संतति है वरदान प्यार का,
प्रेम-बेल का वह फल है,
प्यार न हो, तो वंश-वृध्दि पर
रोक लगा दे लवशाला।
प्रियतम यदि अपने हाथों से
पहना दे डोरा काला।
उसकी कींमत के आगे फिर
क्या है हीरों की माला।
प्रिय की है हर चीज अनोखी,
उसका प्यार शराबी है,
उसकी बातों में होता है,
काला जादू मतवाला।
मंदिर-मस्जिद सब भूलोगे,
आकर देखो लवशाला।
साँसों में दिन-रात जपोगे
प्रिय के यादों की माला।
अरमानों के फूल चुनोगे
पूजा करने को प्रिय की,
और कहोगे- ''अहा, अहाहा!
मैंने सब कुछ खो डाला''।
प्यार बिछा है भू-तल पर यों-
जल है युवक, भूमि बाला।
इन दोनों का मिलना-जुलना
जीवन भर चलनेवाला।
हम भी अपनी घड़ियों में कुछ
मिल-जुल लें, कुछ कर-धर लें,
दिन थोड़े हैं, प्रेम बड़ा है,
शरण-भूमि है बस लवशाला।
काम बिना ही रातों में भी
जो न कभी सोने-वाला।
भूख-प्यास को जिसने अपनी
मतलब बिना उड़ा डाला।
निश्चय ही समझो उसको है
'प्रेम' नामका सुंदर वर,
बहुत खुशी से उस ओर बढ़ाता,
जिसने यह बुखार पाला।
प्यार घाव पर मरहम जैसा,
चैन मधुर देने वाला।
भरा हुआ सुख ही सुख जिसमें
ऐसा वह अजीब छाला।
तकलीफों को छील-छील कर
मीठा दर्द बना देता,
बेचैनों के लिए दवा-सी
खुली हुई है लवशाला।
पहले किसी कली पर जिसने
बुना इशारों का जाला।
फिर सारा का सारा मानस
अपना उसको दे डाला।
निष्ठा के अप्रतिम सिंचन से
खिल जाती वह गंधमयी,
बन जाती उसके ऑंगन की
पुष्पवाटिका वह बाला।
घोंचू, मूर्ख, गँवार, गधा हो
या बिलकुल भोला-भाला।
बुद्धू, नीच, अनाड़ी हो या
हो तन या मन का काला।
कलुषित लोहे-सा भी हो यदि,
उसका स्वर्ण बनाने को,
बन जाता पारस का पत्थर
प्यार निराला मतवाला।
नशा प्यार का सबसे गहरा
गिन कर सौ बोतल-वाला।
चढ़ कर फिर यह तभी उतरता,
जब मिलती मन की बाला।
प्रेमी तब हो जाता मोहन,
राधामोहन, मनमोहन,
और प्रेमिका स्वागत करती,
लेकर ओठों का प्याला।
तरुण फूल, तरुणी कलिका को
गूँथ मिला दे, वह 'माला'।
दो प्राणों को एक साथ जो
एक नशा दे, वह 'हाला'।
एक दूसरे के हृदयों में,
कस कर चुभने वालों को,
'प्यार' नाम की डोरी से जो
कस बाँधे, वह 'लवशाला'।
गंगा की पावन धारा हो
या कोई गंदा नाला।
भाव एक सब में मिलने का
बह खुद को खोने वाला।
चाह सभी में अपने प्रिय में
निज अस्तित्व गँवाने की,
सबका है बस लक्ष्य एक ही-
वैतरणी सी लवशाला।
''नकली प्रेमी कौन ?''
उठाती प्रश्न सलोनी लवशाला।
उत्तर मिलता 'जिसने खुद को
जीते जी मृत कर डाला'।
'असली प्रेमी कौन ?' कि जो
खुद मरने पर भी जीता हो,
'प्यार प्रथम, भगवान बाद में'
इसका जप करने-वाला।
चाहे असफलता की बरछी
हो, चाहे दुख का भाला।
वह समाज की घुड़की से भी
है न कभी डरने-वाला।
साहस की हड्डियाँ, धैर्य का
मांस उसे निर्मित करते,
प्रेमी को भगवती शुभा ने
काफी फुरसत में ढाला।
रजनी की अलकों को छूकर
छलकाया मन का प्याला।
तारों के झिलमिल सिंगार ने
यौवन-धन बिखरा डाला।
ऑंखें आगे बढ़ी चूमने
सरस साँवली आभा को,
वे सारे चुँबन बटोरने
चली लजीली लवशाला।
दीवाली है आज, खिले हैं
दीप, सजी है लवशाला।
धूम मचाती है नस-नस में
प्रियतम की छवि की हाला।
नजरों पर नजरें जब होंगी,
वक्त ठहर कर बोलेगा-
प्रेमी की ऑंखों का प्याला
है न कभी भरने-वाला।
सींच-सींच कर भाव-नीर से
प्रेमोद्यान अगर पाला।
चाह-भरे अरमानों का यदि
फिर उस पर पहरा डाला।
खूब खिलेंगे फूल मिलन के
और तृप्ति के फल मीठे,
ब्रह्मानंद ग्रहण कर लेंगे
सजन तरुण, सजनी बाला।
खाना, हँसना, मौज उड़ाना
यह सिद्धांत बना डाला।
आज हुआ जो, बीत गया वह,
फिर न कभी आने-वाला।
चार दिनों के बाद यहाँ से
अपना टिकट कटाना है,
इस कारण अपने प्रियतम की
जल्दी जपनी है माला।
प्रेमी जपता रहे निरंतर
प्रिय के नामों की माला।
जीवन की अंतिम घड़ियों तक
वह न कभी थकने वाला।
बात न हो यदि प्रिय से, तो भी
उसकी आशा धैर्य रखे,
अमर प्रतीक्षा का वह पुतला,
उसे न छोड़े लवशाला।
खोया देख उषा की लाली,
बना उसीका मतवाला।
चाहा गले लगा लूँ अपने
बना उसे अविचल माला।
बिखरा रूप दिशाओं भर का
सिमट समाए इस मन में,
और बहारों से बजवा दे
शहनाई यह लवशाला।
पहले मैंने 'प्यार' नाम के
साँचे में खुद को ढाला।
फिर अपना हर क्षण अपने उन
मनभावन पर खो डाला।
उसके बाद चढ़ाया उन पर
जब अपना अपनापन भी
फौरन अपना लिया उन्होंने
मुझको पाकर दिलवाला।
प्रेमी वह, जो अपनी उनसे
प्यार बहुत करनेवाला।
और प्रेमिका वह, जिसने मन
अपना उनको दे डाला।
प्यार एक चुभता काँटा है,
फूलों-सा वह कोमल है,
और किसी के दिल के टाँके
सी दे जो, वह 'लवशाला'
खेल-खेल में भी रूठा हो
यदि मन में बसनेवाला।
तो सारा दिन लगता अंधा,
सूरज भी लगता काला।
प्यार बड़ा ही जादूगर है,
उसके एक इशारे पर,
जल-थल अंगारे-सा लगता,
चाहे हो ठंडा पाला।
उन बालों का, उन गालों का,
उन ऑंखों का मतवाला।
ध्यान करे जब उन बातों का
भर कर ऑंखों का प्याला।
अपनेपन को भूल-भाल जब
वह प्रियतम में खो जाए,
तब उसको बाँहों में लेकर
शाबाशी दे लवशाला।
प्यार नाम की मदिरा से हो
भरा हुआ मन का प्याला।
और गुलाबी नशा चढ़ा हो,
धुत हो अति पीने-वाला।
फिर उसको कुछ काम न जग से,
योगी सब उसके नीचे,
एक उसे वैराग कि पा लूँ
अपनी जोगन मधुबाला।
चाहे ऑंखों के आगे हो
शुष्क निराशा का भाला।
या गरदन में हो असफलता
के कटु घावों की माला।
गहन विरह की ऑंधी हो या
हो तूफान अड़चनों का,
पर प्रेमी इन पतझड़ियों में
धैर्य न है खोने-वाला।
संसारी को ऐश चाहिए,
वैरागी को जप-माला।
साधु-संत को भ्रम का धंधा,
बनिए को धन का नाला।
पर प्रेमी की चाह और कुछ,
उसकी प्यास निगाहों की,
उसको बस चाहिए प्रेमिका
की मुस्कानों का प्याला।
प्यार न जिसने किया कभी,
वह मन की परतों से काला।
पर प्रेमी का हृदय प्यार ने
निर्मल जल-सा कर डाला।
पापी, नीच, कुकर्मी भी यदि
प्यार करे दिलवाली से,
उसके पुरखों तक का जीवन
बन जाए सद्गति-वाला।
सब विद्याओं से बढ़ कर है
ठाई अक्षर की माला।
पंडित, ज्ञानी, प्रेम-धुरंधर
बन जाता जपने-वाला।
गहराई सागर की उथली
प्रेमी के गहरे दिल से,
उसकी नैया पार कि जिसका
पूजाघर हो लवशाला।
हृदय-रूप पिंजरे में जिसने
प्रेम-रूप तोता पाला।
प्रेम-वारि को जिसने अपने
मन की प्यास बना डाला।
धर्म, अर्थ, मोक्ष से बढ़ कर
पाया सब-कुछ उस नर ने,
प्रेम-महल में घुस कर जिसने
अंदर से डाला ताला।
प्रेमी की बातों का जिसने
स्वाद चखा हो मतवाला।
उसको शक्कर फीकी लगती,
लगता कड़वा हर प्याला।
सारे रिश्ते खट्टे लगते
हलुआ लगता मिर्चो-सा,
सब-कुछ ऐसा-वैसा लगता,
विषमय लगती मधुशाला।
देख घटा श्यामल मेघों की
मचली भावों की हाला।
सावन का मैं मोर बन गया,
मन ने मुझे नचा डाला।
नर-मादा चिड़ियों की नजरें
उड़ने लगी तले ऊपर,
चहक-चहक कर जो कहती हैं-
'लवशाला-चूँ-लवशाला'।
संध्या के सारे रंगों की
पहन निर्वसन वरमाला।
परियों का मेहमान बना मैं
खुद को इंद्र बना डाला।
घूमा नभ के हर कोने में,
दिखा मुझे हर और यही-
तारक-दल नर, किरणें नारी,
और प्रकृति है लवशाला।
वह घर है वीरान कि जिसमें
प्रियतम ने न कदम डाला।
वह घर है श्मशान कि जिसमें
बहे न प्राणों की हाला।
वह घर नरक समान कि जिसमें
प्रेमी जन्म न लेते हों,
वह घर स्वर्ग समान कि जिसमें
हर प्राणी हो दिलवाला।
मैंने सोचा, मैं प्रोफेसर,
विद्या को घर में पाला।
सब कहते मैं ज्ञानी-ध्यानी,
ऊँची तर्क-बुद्धि-वाला।
लेकिन एक अपढ़-सी लड़की
बोली- 'बिलकुल अनपढ़ हो,
सीखो पहला पाठ यहाँ तुम',
और दिखा दी लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ डॉक्टर,
हर इलाज करने-वाला।
बीमारी को मैंने घर से
कोसों दूर भगा डाला।
लेकिन एक नशीली लाा
दिखते ही बीमार पड़ा,
वही सिर्फ डॉक्टर मेरी,
अस्पताल है लवशाला।
मैंने सोचा, मैं वकील हूँ,
खूब बहस करने-वाला।
मैंने बहुत जजों को अपने
तर्को से बहका डाला।
लेकिन एक चपल बाला की
बातों से मैं हार गया,
उसने समझाया- 'सबसे है
बड़ी कचहरी लवशाला'।
मैंने सोचा, मैं हूँ साहब,
बहुत-बहुत इात-वाला।
सब झुकते हैं मेरे आगे,
पैसा, बाबू या लाला।
लेकिन एक सुभग रमणी ने
घुटने मेरे टिका दिए,
अपनी इात से भी प्यारी
लगती मुझको वह बाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ नेता,
चक्कर में पड़ने वाला।
जनहित का षडयंत्र चलाकर
जग भर को चकरा डाला।
लेकिन एक बड़ा चक्कर
जब से ऑंखों में समा गया,
तब से चारों ओर दीखती
लवशाला ही लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ राजा,
सब पर रौब जमा डाला।
दास-दासियों का जीवन मैं
मुट्ठी में रखने-वाला।
लेकिन एक अजब-सी दासी
मुझको दास बना बैठी,
अब उसकी मुट्ठी में मेरे
प्राणों का डगमग प्याला।
मैंने सोचा, मैं हूँ क्षत्रिय,
तीर-धनुष रखने-वाला।
कितनों ही को मार गिराया
कितनों को चित कर डाला।
लेकिन एक नजर से छूटा
तीर लगा आकर जब से,
तब से अपना जौहर भूला
बनी शिवाला लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ बनिया,
अनुपम धन-दौलत-वाला।
कभी न बेचा कुछ घाटे में,
सारी ही घर भर डाला।
लेकिन एक सरल गुड़िया ने
यों ही मुझे खरीद लिया,
अब न पता है, कहाँ तिजोरी,
और तिजोरी का ताला।
मैंने सोचा, मैं सन्यासी,
जग भर से बचने-वाला।
सत् की ओर बढ़ा अपने पग
खुद को संत बना डाला।
लेकिन एक सदाचारिन पर
जब से मेरी दृष्टि पड़ी,
तब से मेरे पग बढ़ने का
मार्ग एक बस- लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ फक्कड़,
बिलकुल सूखे दिल-वाला।
घूमे बाग बहुत, पर मुझ पर
फूलों ने न असर डाला।
लेकिन एक लता-सी उसने
भारी मन को हिला दिया,
पत्थर के भीतर भी लहरें
खूब उठाती लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ पागल,
अस्थिर बुद्धि-वचन-वाला।
मेरे अंदर मचता रहता
अनसुलझा गड़बड़झाला।
लेकिन एक चतुर पगली ने
सब पागलपन दूर किया,
मेरे जीवन का संचालन
करती है अब वह बाला।
मैंने सोचा, मैं जादूगर,
चकित सभी को कर डाला।
मेरे करतब देख-देख कर
जग बन जाए मतवाला।
लेकिन एक इशारो-वाली
जादू मुझ पर चला गई,
'प्यार' शिकारी फंदा उसका,
और मंत्र है 'लवशाला'।
मैंने सोचा, मैं अति सुंदर,
मेरे दम पर लवशाला।
रति-जैसी छवि को भी चाहूँ
तो अपनी हो वह बाला।
लेकिन एक सुघड़ जोगन ने
चूर घमंड किया मेरा,
फिरता मैं अब उसके पीछे
हाथों में ले जयमाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ गायक
गीत मधुर गाने-वाला।
मैंने अपनी सुर-लहरी से
सबका हृदय रिझा डाला।
लेकिन एक मधुरवदना की
जैसे ही आवाज सुनी,
बस मैं भूला राग, ताल, सुर,
कंठ बसी अब लवशाला।
मैंने सोचा, मैं प्रतिनिधि कवि,
श्रृंगारी भावों-वाला।
दसियों रूपसियों को मैंने
सब की प्रिया बना डाला।
लेकिन उस कविता जैसी का
जब मुझको श्रृंगार दिखा,
हुई तुरंत बेहोश लेखनी,
बंद हुई यह लवशाला।
डॉक्टर रमेश चंद्र महरोत्रा
आपकी आवाज बहुत प्यारी है।
ReplyDeleteपॉडकासटिंग की दुनिया में स्वागत है। चलिये कोई साथी मिला।