छत्तीसगढ़ का दूसरा बड़ा शहर बिलासपुर जहाँ प्रदेश का उच्च न्यायालय स्थित है औरं इस संस्कारधानी बिलासपुर को इसीलिये न्यायधानी बिलासपुर के रूप में भी जाना जाता है। बिलासपुर के आसपास रतनपुर, मल्हार, शिवरीनारारायण, तालागाँव जैसे स्थल ये कहते हैं कि पुरातात्विक संदर्भ में ये क्षेत्र बेहद समृद्ध रहा है। यहाँ की आज की खूबियाँ तो सबकी नजरों में हैं लेकिन सौ सालों पहले बिलासपुर क्या था, कैसा था, उसके कुछ अवशेष, कुछ उपलब्ध जानकारियों का लेखा-जोखा हम भारतीय सांस्कृतिक निधि (इन्टैक) बिलासपुर अध्याय के शोध व आलेख के आधार पर आपके लिये पॉडकास्ट के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से बिलासपुर क्षेत्र में बिलासपुर नगर की स्थापना का कोई विवरण प्राप्त नहीं होता। एक अस्पष्ट मछृआरी बस्ती की मछुआरिन बिलासा जो देवार गीतों में महिमा मंडित है, उसकी तथाकथित मर्यादा रक्षा हेतु आत्मदाह की गाथा परस्पर विरोधी है। कई लोग पलाश वृ़क्षों से आच्छादित इस बस्ती को पलाशपुर से बेलासपुर/बिलासपुर हुआ मानते हैं।
1770 से पूर्व बिलासपुर बस्ती का कोई उल्लेख नहीं मिलता। 1742 में भास्कर पंत द्वारा हैहयवंशी राजा रघुनाथ सिंह को परास्त करने के पश्चात् भोंसले राजा रतनपुर में स्थापित हो गए। भास्कर पंत की मृत्यु के पश्चात् रघुनाथ सिंह ने पुनः अपना आधिपत्य जमाया पर 1755 में राधो जी प्रथम द्वारा रतनपुर फिर से अधिग्रहित कर लिया गया। छत्तीसगढ़ का राज्य बिम्बाजी को मिला और राजधानी रतनपुर ही रही। 1758-1787 के मध्य बिम्बाजी ने मछुआरी बस्ती बिलासपुर में रात्रि विश्राम हेतु अरपा तट पर एक किला बनवाना शुरू किया (1770) जो पूर्ण नहीं हो सका और परकोटे के रूप में रहा। यहीं पर नीचे पचरीघाट बना जहां से नौका द्वारा सेना अरपा पार कर रतनपुर जाती थी। बिम्बाजी की मृत्यु के पश्चात् उनकी विधवा आनन्दी बाई ने सत्ता के सूत्र अपने हाथ में रखते हुए 1788 में व्योंकोजी को छत्तीसगढ़ का सूबा सौंपा। 1788 से 1816 तक छत्तीसगढ़ का सूबा मराठों के आधिप्रभाव में रहा पर 1816 में तत्कालीन सूबेदार अप्पा साहब एवं ब्रिटिश के मध्य हुई संधि के अंतर्गत छत्तीसगढ़ क्षेत्र ब्रिटिश अधिप्रभाव में आ गया तथा उसके साथ ही बिलासपुर भी।
लेकिन इस संधि से निराश अप्पा साहब ने 1806 से छत्तीसगढ़ में सक्रिय पिंडारियों की मदद से ब्रिटिश कंपनी से छुटकारा पाने के लिये एक नया सैन्य दल बनाना शुरू किया जिसकी परिणिति अंततोगत्वा पिंडारियों के नाश के साथ सीताबल्डी के तीसरे मराठा युद्ध में 1817 में हुई। संधि के अनुसार नागपुर राज्य की सीमाओं को चार जिलों में बाँटा गया जिसमें छत्तीसगढ़ एक था। सुचारू प्रशासन हेतु एक सुपरिटेण्डेन्ट नियुक्त किया। रतनपुर छत्तीसगढ जिले की राजधानी थी और कैप्टन एडमेण्ड्स प्रथम ब्रिटिश अधीक्षक। 1818 में एडमेण्ड्स की मृत्यु के पश्चात् 1818 से 1825 तक अधीक्षक रहे कर्नल ऐग्न्यू ने छत्तीसगढ़ का मुख्यालय रतनपुर से हटाकर रायपुर बना दिया।
1830 में राधोजी तृतीय के वयस्क होने पर छत्तीसगढ़ सूबा उन्हें सौंपा गया पर 1854 में उनके निःसंतान मरने पर डलहौजी की डॉक्टरिन ऑफ लेप्स नीति के अंतर्गत नागपुर राज्य पुनः ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया।
1856 में बिलासपुर को तहसील का दर्जा दिया गया और 1857 की महान क्रांति की अवधि में 3 नेटिव इन्फैन्ट्री बैटरी की स्थापना रायपुर एवं बिलासपुर में की गई। जनवरी 1858 में रायपुर बैटरी का सैन्यदल ब्रिटिश राज के विरुद्ध बगावत पर उतर आया जबकि बिलासपुर में बगावत कोई हलचल नहीं हुई। बिलासपुर क्षेत्र के उत्तर में सोहागपुर क्षेत्र में छिपे विद्राहियों को पकड़ने डिप्टी कमिश्नर को बिलासपुर क्षेत्र से गुजरना पड़ा। 1861 में बिलासपुर को जिले का दर्जा प्राप्त हुआ तथा 1867 में नगरपालिका की स्थापना हुई।
1887 में बंगाल नागपुर रेल्वे के अंतर्गत बिलासपुर में रेल लाइन बिछी और 1890 में बिलासपुर स्टेशन बना तथा 1891 में बिलासपुर जंक्शन। 1998 में बिलासपुर जोन की घोषणा हुई। 2003 में बिलासपुर जोन दक्षिण पूर्व मध्य रेल्वे के रूप में देश का 16 वां जोन बना।
2000 में नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य की न्यायधानी उच्च न्यायालय की स्थापना के कारण बिलासपुर को विस्तार के नए आयाम मिले। बिलासपुर की पहचान रेल्वे स्टेशन, रेल्वे कॉलोनी से होती थी। अतः बिलासपुर में जो भी भवन स्मारक तथा निर्माण दिखते हैं उनकी आयु ब्रिटिश साम्राज्य के काल से है। सिवाय जूना बिलासपुर किला एवं बावड़ी मराठा राज्य के अंतर्गत नागपुर-रतनपुर मार्ग में अरपा नदी को पार करने के पूर्व रात्रि विश्राम के लिये एक किले का निर्माण प्रारंभ हुआ पर किला पूर्ण नहीं हो सका। केवल परकोटा एवं दरवाजे बन पाए। इसी के साथ मछुआरों की बस्ती और घाट ‘पचरी घाट’, तथा पुराना बिलासपुर ‘जूना बिलासपुर’ बसा था। इसलिये इसे किला वार्ड कहते हैं पर अब परकोटे की दीवार, स्तंभ एवं दीवारों का नामेनिशान नही है। दीवार गिरा कर घर बना लिये गए हैं। यहाँ एक कुँआ था जिसका संबंध 500 मीटर दूर स्थित बावली से था। यह बावली अभी भी है और कहा जाता है कि एक सुरंग द्वारा यह किले तथा रतनपुर से जुड़ी थी। बावली के आंतरिक मुख को ब्रिटिश शासन काल में लोहे की चादर से बंद कर दिया गया था।
रेल्वे कालोनी - बिलासपुर नगर की पहचान एवं विकास का प्रथम मील का पत्थर बिलासपुर स्टेशन एवं रेल्वे कॉलोनी है। विभिन्न आवासीय कालोनियां-लोको कंस्ट्रक्शन, वायरलेस कालोनी, आफिसर्स कालोनी, रेल्वे अस्पताल, रेल्वे इंग्लिश मीडियम स्कूल, नार्थ ईस्ट रेल्वे इंस्टीट्यूट, यूरापियान क्लब, खेल मैदान, बुधवारी बाजार, सेंट अगस्टिन चर्च ये सभी एक शताब्दी से पुराने हैं। संपूर्ण रेल्वे कॉलोनी के दोनों ओर वृक्षों से आच्छादित अत्यंत साफ सुथरी अतिक्रमण से रहित लगभग दो कि.मी. क्षेत्र में फैली है और बिलासपुर नगर के व्यक्तित्व को मोहक बनाती हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पेण्ड्रा जाते समय 1922 में अपनी ‘फांकी’ शीर्षक कविता बिलासपुर स्टेशन पर लिखी थी। विख्यात उपन्यासकार स्वर्गीय विमल मित्र भी यहाँ रेल सेवा में थे।
पुराना पावर हाउस - द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व 1933-34 में तोरबा क्षेत्र में रेल्वे क्षेत्र के समीप लाहौर इलेक्ट्रिक सप्लाई कंपनी के द्वारा पावर हाउस स्थापित किया गया जिसका लाइसेन्स सेंट्रल इंडिया इलेक्ट्रिक सप्लाई कंपनी लाहौर को 30 वर्ष के लिये दिया गया, जिसके बाद राज्य सरकार उस संयंत्र को खरीद सकती थी। 1935-36 से बिलासपुर नगर का विद्युतीकरण हुआ। पुराने पावर हाउस की क्षमता 688 कि.वा. थी। यह कंपनी दूसरे नगरों करे विद्युत विक्रय किया करती थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् - 1950 में इसकी क्षमता 954किलोवाट तथा 1957-58 में 1454 किलोवाट हो गई। यह ताप विद्युत संयंत्र लाइसेंस की समाप्ति पर मध्यप्रदेश विद्युत मंडल द्वारा खरीद लिया गया तथा कालांतर में कोरबा विद्युत संयंत्रों द्वारा विद्युत आपूर्ति होने पर तथा बिलासपुर में 1966 में म.प्र. विद्युत मंडल की स्थापना से यह बंद हो गया। इसकी दो चिमनियाँ अतीत गाथा की प्रतीक हैं। यहाँ अब छत्तीसगढ़ विद्युत मंडल का कार्यालय है।
टाउन हॉल तथा सिविल लाइन्स - पुराने बसाव स्थल पचरी घाट एवं किला वार्ड से 2 कि.मी. दूर पश्चिम में प्रशासनिक भवनों का निर्माण सिविल लाइन्स के रूप में हुआ। कलेक्ट्रेट, कलेक्टर बंगला, टाउन हॉल (1936) तहसील भवन (1926) रेस्ट हाउस (छत्तीसगढ़ भवन) सर्किट हाउस, यूरोपियन क्लब, ऑफिसर्स क्लब (1901) पुलिस लाइन्स (1880) पुलिस अस्पताल (1910) जिला जेल (1883) बिलासपुर के साफ सुथरे इलाकों में हैं जहाँ ब्रिटिश प्रभाव भवनों की निर्माण शैली में परिलक्षित होती है।
शिक्षण संस्थाएँ - बिलासपुर नगर में रेल्वे कालोनी तथा जिला मुख्यालय बनने के साथ, शिक्षा का प्रसार लॉर्ड मैकाले की नीति के अनुसार आरंभ हुआ। बर्जेस कन्या शाला (1885), रेल्वे सूरोपियन स्कूल (1892), गवर्नमेंट ब्वाएज स्कूल (1902), म्यूनिसिपल ब्वाएज स्कूल (1862/1885), मिशन ब्वाएज स्कूल (1926), सेंट जोसफ कान्वेंट (1945) प्रख्यात संस्थाएँ हैं। एस.बी.आर. कॉलेज के नाम से विख्यात महाविद्यालय 1944 में स्थापित हुआ। नार्मल स्कूल टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल के नाम से जाना जाता था जहाँ वर्तमान में हाईकोर्ट बिल्डिंग है। आई.टी.आई.कोनी (1945-1946)से संलग्न परिसर में गुरुघासीदास विश्वविद्यालय (16 जून1983) प्रदेश का दूसरा सामान्य विश्वविद्यालय है जो अब सेन्ट्रल वि.वि. बन चुका है। छत्तीसगढ़ आयुर्विज्ञान संस्थान (सिम्स) नवगठित राज्य का दूसरा चिकित्सा महाविद्यालय है जो सरदार वल्लभ भाई अस्पताल में (2001) में खुला।
पुराना पुल - प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् बिलासपुर के मध्य बहने वाली अरपा नदी पर पुल बनाया गया जिसका लोकार्पण 30 जुलाई 1926 को हुआ था। जिस पर आज भी विश्वसनीयता के साथ शहर का आवागमन चलायमान है।
गांधी चौक - शनिचरी पड़ाव के खुले स्थल में अरपा नदी के किनारे गांधी जी ने एक वट वृक्ष के नीचे चबूतरे पर खड़े होकर एक सभा को 1933 में संबोधित किया था। आज चबूतरा नहीं है पर उस स्थान पर स्वतंत्रता के पश्चात् जयस्तंभ बना दिया गया। यह स्थान आज भी गांधी चौक के नाम से जाना जाता है।
मिशनरी का योगदान - बिलासपुर नगर में रेल्वे कालोनी बनने के पूर्व ब्रिटिश राज के समय मिशनरीज लोग आ बसे और शिक्षा, स्वास्थ्य तथा धार्मिक चेतना हेतु उन्होंने अथक प्रयास किये जिसका उदाहरण सेंट ऑगस्टिन चर्च, डिसइपल चर्च, बर्जेस गर्ल्स स्कूल, जैकमेन मेमोरियल मिशन अस्पताल, मिशन ब्वाएज स्कूल, शेफर स्कूल, कुदुदंड चर्च हैं। जरहाभाटा स्थित ऐशल बंगला एक शमाब्दी पुराना है। बिलासपुर का पहला यूरापियन कब्रिस्तान 1820-30 के बीच वर्तमान प्रेस क्लब भवन के पीछे स्थित है। यहाँ मात्र 3 कब्रें बची हैं पर इसी के कारण मोहल्ले का नाम मसानगंज पड़ा।
मंदिर - बिलासपुर के विकास में मुख्य योगदान मराठों, मिशनरीज एवं रेल्वे का रहा। चांटापारा में नदी किनारे स्थित राममंदिर 1904-1905 में अपने 100 वर्ष पूरे कर चुका है। देहनकर बाड़े से लगा यह मंदिर पूर्व में छोटे स्वरूप में चारों ओर आंगन एवं विभिन्न प्रकार के वृक्षों से घिरा था। इसमें मात्र एक मंदिर कक्ष था। धीरे धीरे दानदाताओं के सहयोग से यह विशाल रूप में आ चुका है।
व्यंकटेश मंदिर - 1942 में स्थापित नगर के मध्य स्थित इस मंदिर में व्यंकटेश्वर की प्रतिमा है। सांस्कृतिक, धार्मिक एवं संस्कृत विद्यालय के रूप में यह मंदिर दर्शनीय है।
श्री रामकृष्ण मिशन, कोनी - स्व. कुंजबिहारी लाल अग्निहोत्री का कोनी स्थित यह बंगला अरपा नदी के किनारे अवस्थित है जिसे श्रीमती अग्निहोत्री ने रामकृष्ण मिशन को दान दे दिया। इसके बगल के भूखंड में ठाकुर का विशाल मंदिर है तथा दूसरी ओर प्रयमरी स्कूल, औषधालय तथा लाइब्रेरी, मिशन द्वारा संचालित हैं।
बिलासपुर के जिला जेल में स्व.माखनलाल चतुर्वेदी -
12 मार्च 1921 को प्रांतीय राजनैतिक सम्मेलन बिलासपुर के शनिचरी पड़ाव में हुआ। जिसमें श्री माखनलाल चतुर्वेदी ने अत्यंत ओजस्वी भाषण दिया जिसके आधार पर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 12 मई 1921 को जबलपुर में गिरफ्तार कर लिये और व्हाया नागपुर बिलासपुर जेल में लाया गया। जहाँ वे 1 मार्च 1922 तक रहे। जेल में उन्होंने ‘पुष्प की अभिलाषा’, ‘पूरी नहीं सुनाओगे तान’, ‘पर्वत की अभिलाषा’ जैसी कविताओं की रचना की।
आलेख - भारतीय सांस्कृति निधि (इन्टैक) बिलासपुर अध्याय से साभार
प्रस्तुति - संज्ञा टंडन
Wednesday, October 27, 2010
Friday, October 22, 2010
शरद पूर्णिमा और चाँद
आज शरद पूर्णिमा है, पूरे चांद की रात। शरद ऋतु के आगमन की सूचना देने वाले चांद की रात, दीपों भरी दीपावली की रात बस आने को है, ये बताने वाले चांद की रात। चांद, चंदा, मामा या चंद्रमा हमारा हर रोज का साथी। एक ऐसा साथी जो हर रात एक नये रूप में हमारे साथ होता है। लेकिन आज की रात का चंद्रमा होता है कुछ खास, कुछ विषेष जो कहता है हमसे बहुत कुछ। इस अवसर पर हमारी कुछ बातें, चांद के कुछ बेहतरीन नगमों और कुछ नायाब संकलित पंक्तियों से सजी ये पोस्ट और पॉडकास्ट आपके लिये प्रस्तुत है-
पॉडकास्ट में शामिल किये गए गीत -
सब तिथियन का चंद्रमा.......(सावन को आने दो)
चांद सिफारिश..............(फना)
वो चाँद खिला............. (अनाड़ी)
चांद सी मेहबूबा.............(हिमालय की गोद में)
मेहताब तेरा चेहरा............(आशिक)
चौदहवीं का चांद हो...........(चौदहवीं का चांद)
मैंने पूछा चांद से............(अबव्दुल्ला)
चंदामामा मेरे द्वार आना........(लाजवंती)
चांद छुपा बादल में...........(हम दिल दे चुके सनम)
धीरे धीरे चल...............(लव मैरिज)
ए चाँद ज़रा छुप जा .........(लाट साहब)
प्राचीनकाल के काव्य से आधुनिक यंग के गद्य, पद्य, गीत, नाटक, कहानियों, फिल्मों आदि में प्रेम और विरह दोनों ही रसों में चाँद यानि चन्द्रमा अपने अनेक पर्याय जैसे - हिमांशु, सुधाकर, सोम, मयंक, रजनीश, राकेश, इंदु, सुधांशु, शशि, रजनीपति आदि के साथएक विशिष्ट स्थान प्राप्त करता आया है। अक्सर नायको द्वारा अपनी जीवन संगिनी की तुलना चाँद से की जाती रही है।
चाँदनी का श्रृंगार समेट, अधखुली आँखों की यह कोर,
लिए अपना रूप अनमोल, ताकती किस अतीत की ओर।
और तो और नायक कई बार अपनी प्रेमिका को चाँद उपहार में देने का प्रतिबद्ध दिखाई पड़ा है। गीत, साहित्य और सिनेमा के अलावा चाँद ने अनेक धर्मों में भी अपना स्थान बनाया है। प्राचीन काल से इसे देवता आदि का स्थान भी प्राप्त रहा है और पूजा-अर्चना होती रही है।लेकिन चाँद है क्या? चाँद दरअसल एक आकाशीय पिण्ड जो अपनी पृथ्वी का एकमात्र उपग्रह है।यह सतत रूप से पृथ्वी की परिक्रमा अंडाकार पथ में 29 दिन, 12 घंटे और 43 मिनट में पूरी करता है। इसे हम चंद्रमास कहते हैं। चंद्रमा का व्यास 3476 कि.मी.है। इसके अपनी धुरी पर घूमने की गति 2287 मील/ घंटा है। 20 जुलाई 1969 को अपोलो 11 की उड़ान में मानव ने अमेरिकी वैज्ञानिक नील आर्मस्ट्रांग के रूप में सर्वप्रथम चंद्रमा के धरातल पर कदम रखे। इसी उड़ान के दौरान चंद्रमा पर एक रिट्रो परावर्तक लगाया गया। पृथ्वी से इस पर लेसर किरणें भेजी गईं जो इस परावर्तक से परावर्तित हुईं ओर उन्हें पुनः प्राप्त करके चंद्रमा की बिल्कुल सही दूरी माप ली गई। ये दूरी 3 लाख 84 हज़ार 400 किमी है और इस दूरी में छः इंच से ज़्यादा की त्रुटि की संभावना नहीं है।
यह शरद की रात, मत कर विरह की बात
जिय अकुला रहा है, नशा सा अपार छा रहा है।
हमको आशीर्वाद देने चाँद छत पर आ रहा है।
चाँद का टुकड़ा, चाँद का कटोरा, ईद का चाँद, चाँद में बैठी चरखा कातती बुढ़िया, चौदहवीं का चाँद, चाँद का दाग, चाँद सा चेहरा आदि अनेक उपमाएँ, लोकोक्तियाँ, मुहावरे आदि प्रारंभ से ही चलन में रहे है। चाँद ने अपनी सुंदरता, शीतलता और आकर्षण से कवियों और साहित्यकारों की लेखनी को तुलना की एक बेमिसाल उपमा प्रदान की, जिसका भरपूर प्रयोग लेखनी के द्वारा किया गया। पर सुंदरता का प्रतीक चंद्रमा - जिसे घंटों निहारते रहने की इच्छा होती है, वास्तव में ऊबड़-खाबड़ सतह वाला उपग्रह है। यहाँ पहाड़, घाटियाँ, चट्टानें और काले-काले सपाट मैदान मात्र है। ढेर सारे बड़े-बड़े गड्ढे भी हैं जिनकी सतह पर राख के ढेर हैं - जो उल्कापात के कारण हो गए हैं, इनके नाम टायको, कोपरनिकस, कैपलर आदि हैं। रात को यह प्यारा सा,सुंदर सा चंद्रमा ठंडा रहता है, पर दिन में इसकी सतह का तापमान लगभग 130 डिग्री सेल्सियस होता है। चाँद की इतनी ख़ूबियाँ बताने के पश्चात् किसी के सुंदर मुखड़े की तुलना चाँद से करने की ज़ुर्रत मत कीजिएगा। अगर करें भी तो ऐसे -
पूनम के मुख का दाग,चाँद से लगता है प्यारा,
दीपक के नीचे छाँह,मात है जिससे उजियारा।
मैं तेरी छवि बनाऊँगा,मैं तेरी छवि बनाऊँगा,
तेरे रंग पे रंग मिलाने को,मैं चाँद से चाँदनी लाऊँगा।
मानव का चाँद के पीछे आकर्षित हाने का कारण है उसकी चाँदनी, उसका प्रकाश और उसकी किरणें।यह तो खै़र हम सभी जानते हैं कि चंद्रमा अपने प्रकाश से प्रकाशित नहीं होता, बल्कि सूर्य के प्रकाश के परावर्तन द्वारा ही चमकता है। लेकिन सबसे रहस्यमय हैं चंद्रमा की किरणें। ये किरणें चमकीली लकीरें हैं, जो टायको, कोपरनिकस और केपलर सरीखे विशाल गड्ढों से सभी दिशाओं में निकलती हैं।वेसे निश्चयपूर्वक ज्ञात नहीं हो पाया है कि इन किरणों की उत्पत्ति कैसे हुई, पर प्रचलित सिद्धांत तो यही है कि ये किरणें उन चट्टानों के कणों की धाराएँ हैं, जो गड्ढों के निर्माण के समय उल्कापिण्डों के टकराने से प्रकीर्णित हो गए थें चूँकि चंद्रमा में कोई वायुमंडल नहीं है, धूल के इन कणों की संरचना में कोई विघ्न नहीं पड़ता। अतः धूल के छितरे कणों का आज भ वही रूप है जैसा निर्माण के समय था।धूल की इन्हीं रेखाओं से सूर्य का प्रकाश परावर्तित हो जाता है, जो हमें चंद्र किरणें के रूप में दिखाई देता है।
चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही है जल-थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अंबर तल में।
छोटे से बच्चे ने अपने पापा से कहा मुझे चाँद चाहिए। पिता ने टाल दिया, कल देंगे। दूसरे दिन बच्चे ने फिर चाँद की फरमाइश की, पिता ने फिर कहा - बेटा कल ला देंगे। सदियों से ये मांग और जवाब यूँ ही हर घर में दोहराई जा रही है।
चंदामामा आना तुम, करना नहीं बहाना तुम।
शीतल किरणें बिखरा कर, अपना रंग जमाना तुम।
कैसे रूप बदलते हो, हमें तनिक बतलाना तुम।
अपने अमृत के घट से, प्रेम-सुधा बरसाना तुम।
चरखा काते जो बुढ़िया, उसका हाल सुनाना तुम।
भू-तल पर हम भी चमकें, ऐसा मंत्र सिखाना तुम।
छोटे बच्चों के चंदामामा में ज़बरदस्त आकर्षण है। माँ कौशल्या से रामचंद्रजी बचपन में खेलने के लिए चंद्रमा मांग बैठै थे ‘मैया मैं चंद्र खिलोना लैहियों’ यही आकर्षण मानव को चंद्रमा से भावनात्मक रूप से जोड़े हुए है। ठीक ऐसे ही ब्रम्हांड में प्रत्येक वस्तु एक दूसरी वस्तु को आकर्षित किए हुए है। इस आकर्षण बल को गुरुत्वाकर्षण बल कहते हैं। चंद्रमा पर गुरुत्व बल पृथ्वी की तुलना में केवल छठवाँ हिस्सा है। यदि कोई मनुष्य पृथ्वी पर एक मीटर उछल सकता है, तो वही मनुष्य चंद्रमा पर छः मीटर उछल लेगा। चंद्रमा के गुरुत्व बल का असर पूर्णिमा के दिन पृथ्वी पर भी पड़ता है और इसी गुरुत्व बल के कारण समुद्रों का पानी ऊपर की ओर खिंचता है, जिससे समुद्रों में ज्वार आते हैं।
चंदा, सुन लो ध्यान से, एक दिन अपने यान से,
चन्द्रलोक में आएँगे, तुमसे हम बतियाएँगे।
और तुम्हारी बस्ती में, झूम-झूम कर मस्ती में,
तनिक सुधारस पी लेंगे, तारों के संग फिर खेलेंगे।
नीलगगन में हंगामा, कर देंगे हम चंदामामा।
चंद्रलोक में पहुँचने की, वहाँ के रहस्यों को समझने की जिज्ञासा सिर्फ बच्चों में ही नहीं, बड़े बुज़ुर्गों में भी हमेशा से रही हैं। बहुत से रहस्यों के परदे अब खुल चुके है। फिर भी शायद चंद्रमा से जुड़े बहुत सी बाते अभी हमें जानने के लिए बाकी हैं। एक बात और - पूर्णिमा के समय मानव में चाँद का मनोवैज्ञानिक प्रभाव देखने को मिलता है। मानसिक रोगियों की शिकायतें कुछ बढ़ जाती हैं। मानवीय मस्तिष्क भी इस समय प्रबल चंद्र गुरुत्वाकर्षण के कारण कुछ ज़्यादा उथल-पुथल का शिकार हो जाता है। बहरहाल पूर्णिमा की प्रकृति चाँदनी की चादर ओढ़ एक नए और अद्वितीय रूप में नज़र आती है।
खूबसूरत से चंद्रमा को ग्रहण भी लगता है। परिक्रमा के दौरान पृथ्वी जब सूर्य और चंद्रमा के बीच आती है, तो पृथ्वी की परछाई चंद्रमा पर पड़ती है।यही परछाईं या अंधकार चंद्रग्रहण कहलाता है। ये ग्रहण हमेशा पूर्णिमा के दिन होता है। आमतौर पर एक साल में तीन ग्रहण होते हैं। एक बात और - जब हम चलते हैं तो चंद्रमा हमारे साथ-साथ क्यों चलता है? चलते वक्त पेड़-पौधे, इमारतें आदि की तरह पीछे जाते अथवा चलते हुए क्यों नहीं दिखता? कारण है-चाँद का पृथ्वी से दूर होना। जब हम गाड़ी इत्यादि में चलते हैंतो धरती पर स्थित वस्तुओं द्वारा हमारी आँख पर बना कोण तेज़ी से बदलता है, इसलिए वस्तुएँ पीछे चलती सी नज़र आती हैं। कोण तेज़ी से इसलिए बदलता है क्योंकि ये वस्तुएँ हमसे अधिक दूरी पर नहीं होतीं।चूँकि चंद्रमा पृथ्वी से ज़्यादा दूर हैतो उसके द्वारा हमारी आँखों पर बनाया गया कोण बहुत कम, ज़रा सा ही बदल पाता है।इसीलिए चंद्रमा हमें अपने साथ साथ चलता हुआ प्रतीत होता है।
पुष्पों द्वारा सजी शीश पर, चारु चन्द्रिका की झांकी।
जैसे वर्तुल रेखा खिची है, रजत शिखर सुषमा की।
और बस चांद की बातों के साथ चांद के गीतों का ये ये सफर यहीं तक।
आलेख - डॉ.राजेश टंडन प्रस्तुति - संज्ञा टंडन
पॉडकास्ट में शामिल किये गए गीत -
सब तिथियन का चंद्रमा.......(सावन को आने दो)
चांद सिफारिश..............(फना)
वो चाँद खिला............. (अनाड़ी)
चांद सी मेहबूबा.............(हिमालय की गोद में)
मेहताब तेरा चेहरा............(आशिक)
चौदहवीं का चांद हो...........(चौदहवीं का चांद)
मैंने पूछा चांद से............(अबव्दुल्ला)
चंदामामा मेरे द्वार आना........(लाजवंती)
चांद छुपा बादल में...........(हम दिल दे चुके सनम)
धीरे धीरे चल...............(लव मैरिज)
ए चाँद ज़रा छुप जा .........(लाट साहब)
प्राचीनकाल के काव्य से आधुनिक यंग के गद्य, पद्य, गीत, नाटक, कहानियों, फिल्मों आदि में प्रेम और विरह दोनों ही रसों में चाँद यानि चन्द्रमा अपने अनेक पर्याय जैसे - हिमांशु, सुधाकर, सोम, मयंक, रजनीश, राकेश, इंदु, सुधांशु, शशि, रजनीपति आदि के साथएक विशिष्ट स्थान प्राप्त करता आया है। अक्सर नायको द्वारा अपनी जीवन संगिनी की तुलना चाँद से की जाती रही है।
चाँदनी का श्रृंगार समेट, अधखुली आँखों की यह कोर,
लिए अपना रूप अनमोल, ताकती किस अतीत की ओर।
और तो और नायक कई बार अपनी प्रेमिका को चाँद उपहार में देने का प्रतिबद्ध दिखाई पड़ा है। गीत, साहित्य और सिनेमा के अलावा चाँद ने अनेक धर्मों में भी अपना स्थान बनाया है। प्राचीन काल से इसे देवता आदि का स्थान भी प्राप्त रहा है और पूजा-अर्चना होती रही है।लेकिन चाँद है क्या? चाँद दरअसल एक आकाशीय पिण्ड जो अपनी पृथ्वी का एकमात्र उपग्रह है।यह सतत रूप से पृथ्वी की परिक्रमा अंडाकार पथ में 29 दिन, 12 घंटे और 43 मिनट में पूरी करता है। इसे हम चंद्रमास कहते हैं। चंद्रमा का व्यास 3476 कि.मी.है। इसके अपनी धुरी पर घूमने की गति 2287 मील/ घंटा है। 20 जुलाई 1969 को अपोलो 11 की उड़ान में मानव ने अमेरिकी वैज्ञानिक नील आर्मस्ट्रांग के रूप में सर्वप्रथम चंद्रमा के धरातल पर कदम रखे। इसी उड़ान के दौरान चंद्रमा पर एक रिट्रो परावर्तक लगाया गया। पृथ्वी से इस पर लेसर किरणें भेजी गईं जो इस परावर्तक से परावर्तित हुईं ओर उन्हें पुनः प्राप्त करके चंद्रमा की बिल्कुल सही दूरी माप ली गई। ये दूरी 3 लाख 84 हज़ार 400 किमी है और इस दूरी में छः इंच से ज़्यादा की त्रुटि की संभावना नहीं है।
यह शरद की रात, मत कर विरह की बात
जिय अकुला रहा है, नशा सा अपार छा रहा है।
हमको आशीर्वाद देने चाँद छत पर आ रहा है।
चाँद का टुकड़ा, चाँद का कटोरा, ईद का चाँद, चाँद में बैठी चरखा कातती बुढ़िया, चौदहवीं का चाँद, चाँद का दाग, चाँद सा चेहरा आदि अनेक उपमाएँ, लोकोक्तियाँ, मुहावरे आदि प्रारंभ से ही चलन में रहे है। चाँद ने अपनी सुंदरता, शीतलता और आकर्षण से कवियों और साहित्यकारों की लेखनी को तुलना की एक बेमिसाल उपमा प्रदान की, जिसका भरपूर प्रयोग लेखनी के द्वारा किया गया। पर सुंदरता का प्रतीक चंद्रमा - जिसे घंटों निहारते रहने की इच्छा होती है, वास्तव में ऊबड़-खाबड़ सतह वाला उपग्रह है। यहाँ पहाड़, घाटियाँ, चट्टानें और काले-काले सपाट मैदान मात्र है। ढेर सारे बड़े-बड़े गड्ढे भी हैं जिनकी सतह पर राख के ढेर हैं - जो उल्कापात के कारण हो गए हैं, इनके नाम टायको, कोपरनिकस, कैपलर आदि हैं। रात को यह प्यारा सा,सुंदर सा चंद्रमा ठंडा रहता है, पर दिन में इसकी सतह का तापमान लगभग 130 डिग्री सेल्सियस होता है। चाँद की इतनी ख़ूबियाँ बताने के पश्चात् किसी के सुंदर मुखड़े की तुलना चाँद से करने की ज़ुर्रत मत कीजिएगा। अगर करें भी तो ऐसे -
पूनम के मुख का दाग,चाँद से लगता है प्यारा,
दीपक के नीचे छाँह,मात है जिससे उजियारा।
मैं तेरी छवि बनाऊँगा,मैं तेरी छवि बनाऊँगा,
तेरे रंग पे रंग मिलाने को,मैं चाँद से चाँदनी लाऊँगा।
मानव का चाँद के पीछे आकर्षित हाने का कारण है उसकी चाँदनी, उसका प्रकाश और उसकी किरणें।यह तो खै़र हम सभी जानते हैं कि चंद्रमा अपने प्रकाश से प्रकाशित नहीं होता, बल्कि सूर्य के प्रकाश के परावर्तन द्वारा ही चमकता है। लेकिन सबसे रहस्यमय हैं चंद्रमा की किरणें। ये किरणें चमकीली लकीरें हैं, जो टायको, कोपरनिकस और केपलर सरीखे विशाल गड्ढों से सभी दिशाओं में निकलती हैं।वेसे निश्चयपूर्वक ज्ञात नहीं हो पाया है कि इन किरणों की उत्पत्ति कैसे हुई, पर प्रचलित सिद्धांत तो यही है कि ये किरणें उन चट्टानों के कणों की धाराएँ हैं, जो गड्ढों के निर्माण के समय उल्कापिण्डों के टकराने से प्रकीर्णित हो गए थें चूँकि चंद्रमा में कोई वायुमंडल नहीं है, धूल के इन कणों की संरचना में कोई विघ्न नहीं पड़ता। अतः धूल के छितरे कणों का आज भ वही रूप है जैसा निर्माण के समय था।धूल की इन्हीं रेखाओं से सूर्य का प्रकाश परावर्तित हो जाता है, जो हमें चंद्र किरणें के रूप में दिखाई देता है।
चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही है जल-थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अंबर तल में।
छोटे से बच्चे ने अपने पापा से कहा मुझे चाँद चाहिए। पिता ने टाल दिया, कल देंगे। दूसरे दिन बच्चे ने फिर चाँद की फरमाइश की, पिता ने फिर कहा - बेटा कल ला देंगे। सदियों से ये मांग और जवाब यूँ ही हर घर में दोहराई जा रही है।
चंदामामा आना तुम, करना नहीं बहाना तुम।
शीतल किरणें बिखरा कर, अपना रंग जमाना तुम।
कैसे रूप बदलते हो, हमें तनिक बतलाना तुम।
अपने अमृत के घट से, प्रेम-सुधा बरसाना तुम।
चरखा काते जो बुढ़िया, उसका हाल सुनाना तुम।
भू-तल पर हम भी चमकें, ऐसा मंत्र सिखाना तुम।
छोटे बच्चों के चंदामामा में ज़बरदस्त आकर्षण है। माँ कौशल्या से रामचंद्रजी बचपन में खेलने के लिए चंद्रमा मांग बैठै थे ‘मैया मैं चंद्र खिलोना लैहियों’ यही आकर्षण मानव को चंद्रमा से भावनात्मक रूप से जोड़े हुए है। ठीक ऐसे ही ब्रम्हांड में प्रत्येक वस्तु एक दूसरी वस्तु को आकर्षित किए हुए है। इस आकर्षण बल को गुरुत्वाकर्षण बल कहते हैं। चंद्रमा पर गुरुत्व बल पृथ्वी की तुलना में केवल छठवाँ हिस्सा है। यदि कोई मनुष्य पृथ्वी पर एक मीटर उछल सकता है, तो वही मनुष्य चंद्रमा पर छः मीटर उछल लेगा। चंद्रमा के गुरुत्व बल का असर पूर्णिमा के दिन पृथ्वी पर भी पड़ता है और इसी गुरुत्व बल के कारण समुद्रों का पानी ऊपर की ओर खिंचता है, जिससे समुद्रों में ज्वार आते हैं।
चंदा, सुन लो ध्यान से, एक दिन अपने यान से,
चन्द्रलोक में आएँगे, तुमसे हम बतियाएँगे।
और तुम्हारी बस्ती में, झूम-झूम कर मस्ती में,
तनिक सुधारस पी लेंगे, तारों के संग फिर खेलेंगे।
नीलगगन में हंगामा, कर देंगे हम चंदामामा।
चंद्रलोक में पहुँचने की, वहाँ के रहस्यों को समझने की जिज्ञासा सिर्फ बच्चों में ही नहीं, बड़े बुज़ुर्गों में भी हमेशा से रही हैं। बहुत से रहस्यों के परदे अब खुल चुके है। फिर भी शायद चंद्रमा से जुड़े बहुत सी बाते अभी हमें जानने के लिए बाकी हैं। एक बात और - पूर्णिमा के समय मानव में चाँद का मनोवैज्ञानिक प्रभाव देखने को मिलता है। मानसिक रोगियों की शिकायतें कुछ बढ़ जाती हैं। मानवीय मस्तिष्क भी इस समय प्रबल चंद्र गुरुत्वाकर्षण के कारण कुछ ज़्यादा उथल-पुथल का शिकार हो जाता है। बहरहाल पूर्णिमा की प्रकृति चाँदनी की चादर ओढ़ एक नए और अद्वितीय रूप में नज़र आती है।
खूबसूरत से चंद्रमा को ग्रहण भी लगता है। परिक्रमा के दौरान पृथ्वी जब सूर्य और चंद्रमा के बीच आती है, तो पृथ्वी की परछाई चंद्रमा पर पड़ती है।यही परछाईं या अंधकार चंद्रग्रहण कहलाता है। ये ग्रहण हमेशा पूर्णिमा के दिन होता है। आमतौर पर एक साल में तीन ग्रहण होते हैं। एक बात और - जब हम चलते हैं तो चंद्रमा हमारे साथ-साथ क्यों चलता है? चलते वक्त पेड़-पौधे, इमारतें आदि की तरह पीछे जाते अथवा चलते हुए क्यों नहीं दिखता? कारण है-चाँद का पृथ्वी से दूर होना। जब हम गाड़ी इत्यादि में चलते हैंतो धरती पर स्थित वस्तुओं द्वारा हमारी आँख पर बना कोण तेज़ी से बदलता है, इसलिए वस्तुएँ पीछे चलती सी नज़र आती हैं। कोण तेज़ी से इसलिए बदलता है क्योंकि ये वस्तुएँ हमसे अधिक दूरी पर नहीं होतीं।चूँकि चंद्रमा पृथ्वी से ज़्यादा दूर हैतो उसके द्वारा हमारी आँखों पर बनाया गया कोण बहुत कम, ज़रा सा ही बदल पाता है।इसीलिए चंद्रमा हमें अपने साथ साथ चलता हुआ प्रतीत होता है।
पुष्पों द्वारा सजी शीश पर, चारु चन्द्रिका की झांकी।
जैसे वर्तुल रेखा खिची है, रजत शिखर सुषमा की।
और बस चांद की बातों के साथ चांद के गीतों का ये ये सफर यहीं तक।
आलेख - डॉ.राजेश टंडन प्रस्तुति - संज्ञा टंडन
Thursday, October 14, 2010
बातों और गीतों की जुबानी - बचपन
बचपन - एक ऐसा शब्द जिसकी मधुर स्मृतियाँ हर जेहन में जीवन भर बसी होती है, जिनको याद करना, कल्पनाओं में समय के बीत चुके पलों में उड़ाने भरने के समान है।
अगर हम आपसे पूछें कि ये बचपन आखिर है क्या- तो आपका जवाब क्या होगा- शायद कोई कहे उन्मुक्त आकाश और मजबूत पंख - यही बचपन है। न जवाबदारी, न भय, न जहमत, न तोहमत, बस प्यार, स्नेह वात्सल्य और दुलार - यही होता है बचपन। किसी का जवाब हो सकता है -सीख, संस्कार, समझाइश- यही होता है बचपन या फिर - मुस्कुराहट, खिलखिलाहट, हास-परिहास- ये है बचपन। जवाब ये भी हो सकता है- थोड़ी डाँट, थोड़ी डपट, एक चपत और दो बूंद आंसू- ये है बचपन या-निश्छलता, सरलता, निस्वार्थता और अपनापन- ये है बचपन।
बालसुलभता या बचपना प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद होता है, और आखिर क्यों न हो, हर व्यक्ति ने जीवन के उन बेहतरीन पलों को जिया है, भोगा है, समझा है और आनंद लिया है। स्वर्णिम काल होता है बचपन। और अप्रतिम बचपन का बचपना बढ़ती उम्र के साथ भी अपना अंश, अपनी मौजूदगी बनाए रखता है। मौका-ब-मौका, जाने- अनजाने, प्रत्येक उम्र दराज इसका प्रदर्शन भी करता है और सबको अच्छा भी लगता है- बावजूद इसके उम्र के दूसरे पड़ावों तक पहुँचने के लिए बचपन को बाय-बाय करना ही पड़ता है। कभी न कभी वह अबोध बालपन, भोलापन, हमसे छूट ही जाता है।
बच्चे की पहली आवाज, उसका रोना, घर के सभी सदस्यों के चेहरों पर मुस्कान ला देता है। बिलकुल वीआईपी होता है बच्चा। चारों तरफ लोगों से घिरा हुआ, जिसकी किलकारी लोगों को खुश और जरा सी पीड़ा भरी दुहाई सबको दौड़भाग करने को मजबूर कर देती है। जिसकी हर हरकत को प्रशंसा के भाव से देखा जाता है और हर शिकायत ममत्व और अपनत्व से भरी होती है। बच्चे का पहली बार पलटना, घुटनों पर चलना, पैरों पर खड़े होना, पहला शब्द बोलना- त्यौहार के मानिन्द होता है। लेकिन ये सारी बातें बचपन के उस हिस्से से जुड़ी हुई जो बड़े होने पर यादों में नहीं परिवार वालों की बातों से पता चलती रहती हैं- बचपन की याद रखने वाली बातें तो होती है- नानी-दादी की कहानियां, बारिश के पानी में छप-छप करना, दूध चुपके से खिड़की के पीछे फेंक देना, सिक्कों को मिट्टी में रोपना या फिर आम-अमरूद के पेड़ों पर चढ़कर चोरी से फल तोड़ना। हर व्यक्ति के साथ अपने बचपन की यादों का एक बहुत पिटारा होता है- जिसको खोलने पर बस यही लगता है - बचपन के दिन भी क्या दिन थे।
बच्चे का स्कूल जाना परिवार के लिए अपने आप में अभूतपूर्व घटना होती है। माँ-बाप से मिले शिक्षा और संस्कार अकेले काफी नहीं होते। गुरुजनों से ज्ञानार्जन बहुत जरूरी होता है। कितना अजीब लगता है अक्षरज्ञान से शिक्षा प्रारंभ करके बच्चा बाद में अकल्पनीय ऊँचाइयों तक पहँच जाता है। यकीनन इस दौरान बच्चे के बस्ते का बोझ भविष्य के लिए उसके कंधो को मजबूती देता है। कितना बढ़िया होता है बचपन सिर्फ खाओ-पियो, पढ़ो और खेलो- ना कोई चिंता- ना कोई गम।
पहले के समय में गिल्ली-डंडा, डंडा-पचरंगा, लट्टू , सत्थुल-पिट्टुल, गदागदी, छू-छूआ, छुपा-छुपी आदि अनेक देसी खेल जाने थे। आज क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल के साथ साथ रकबी और बेसबॉल जैसे आधुनिक खेलों का जमाना है। यहाँ तक तो सब ठीक है- लेकिन बच्चे आजकल वीडियो और कम्प्यूटर गेम्स खेला करते हैं-अब उसमें दिमागी मजबूती कितनी मिलती है- हम नहीं जानते - लेकिन शारीरिक मजबूती तो कतई नहीं मिलती। बहरहाल बच्चों का बचपन खेलों के बगैर गुजरे ऐसा तो हो ही नहीं सकता क्योंकि बच्चे और खेल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और खेलने के लिए होते हैं साथी- ढेर सारे साथी -ढेर सारे दोस्त । जिनमें दांतकाटी दोस्ती भी होती है, तुनक-मिजाज़ी भी, मान-मनौवल भी और कभी खट्टी कभी मिट्ठी। बचपन के साथी शायद ही कभी कोई भूल सकता है।
अक्सर उदासी या तन्हाई के आलम में आदमी अपने बचपन की स्मृतियांे का सहारा लेता है। बचपन की खट्टी -मिट्ठी यादें वापस उम्र के उसी मोड़ पर पहुँचा देती हैं। यार-दोस्त, शैतानियाँ, खेल-प्यार, स्नेह-भरी घटनांए जब याद आती हैं तो अवसाद की स्थिति से आदमी निश्चित ही उबर जाता है वहीं बचपन में घटी कुछ घटनांएँ ऐसी होती है जो आंखें नम कर देती है। ना जाने कितने भाव और रसों को समेटे रहता है बचपन अपने अंदर। ऐसा ही होता है बचपन।
पॉडकास्ट में इस्तेमाल गीत -
गीत गाता चल- बचपन हर गम से बेगाना होता है
बीस साल बाद - सपने सुहाने लडकपन के
वो कागज की कश्ती-जगजीत सिंह
दीदार- बचपन के दिन भुलाअनमोल घड़ी - मेरे बचपन के साथी - नूरजहाँ
कुछ और बचपन से जुड़े गीत वीडियो पर -
अनमोल मोती - कोई मेरा बचपन ला दे.
सुजाता - बचपन के दिन भी क्या दिन-.आशा, गीता दत्त
जंगली - जा जा जा मेरे बचपन - लता
पुरानी जीन्स - अली हैदर
आया है मुझे फिर याद वो जालिम -देवर
अगर हम आपसे पूछें कि ये बचपन आखिर है क्या- तो आपका जवाब क्या होगा- शायद कोई कहे उन्मुक्त आकाश और मजबूत पंख - यही बचपन है। न जवाबदारी, न भय, न जहमत, न तोहमत, बस प्यार, स्नेह वात्सल्य और दुलार - यही होता है बचपन। किसी का जवाब हो सकता है -सीख, संस्कार, समझाइश- यही होता है बचपन या फिर - मुस्कुराहट, खिलखिलाहट, हास-परिहास- ये है बचपन। जवाब ये भी हो सकता है- थोड़ी डाँट, थोड़ी डपट, एक चपत और दो बूंद आंसू- ये है बचपन या-निश्छलता, सरलता, निस्वार्थता और अपनापन- ये है बचपन।
बालसुलभता या बचपना प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद होता है, और आखिर क्यों न हो, हर व्यक्ति ने जीवन के उन बेहतरीन पलों को जिया है, भोगा है, समझा है और आनंद लिया है। स्वर्णिम काल होता है बचपन। और अप्रतिम बचपन का बचपना बढ़ती उम्र के साथ भी अपना अंश, अपनी मौजूदगी बनाए रखता है। मौका-ब-मौका, जाने- अनजाने, प्रत्येक उम्र दराज इसका प्रदर्शन भी करता है और सबको अच्छा भी लगता है- बावजूद इसके उम्र के दूसरे पड़ावों तक पहुँचने के लिए बचपन को बाय-बाय करना ही पड़ता है। कभी न कभी वह अबोध बालपन, भोलापन, हमसे छूट ही जाता है।
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बच्चे की पहली आवाज, उसका रोना, घर के सभी सदस्यों के चेहरों पर मुस्कान ला देता है। बिलकुल वीआईपी होता है बच्चा। चारों तरफ लोगों से घिरा हुआ, जिसकी किलकारी लोगों को खुश और जरा सी पीड़ा भरी दुहाई सबको दौड़भाग करने को मजबूर कर देती है। जिसकी हर हरकत को प्रशंसा के भाव से देखा जाता है और हर शिकायत ममत्व और अपनत्व से भरी होती है। बच्चे का पहली बार पलटना, घुटनों पर चलना, पैरों पर खड़े होना, पहला शब्द बोलना- त्यौहार के मानिन्द होता है। लेकिन ये सारी बातें बचपन के उस हिस्से से जुड़ी हुई जो बड़े होने पर यादों में नहीं परिवार वालों की बातों से पता चलती रहती हैं- बचपन की याद रखने वाली बातें तो होती है- नानी-दादी की कहानियां, बारिश के पानी में छप-छप करना, दूध चुपके से खिड़की के पीछे फेंक देना, सिक्कों को मिट्टी में रोपना या फिर आम-अमरूद के पेड़ों पर चढ़कर चोरी से फल तोड़ना। हर व्यक्ति के साथ अपने बचपन की यादों का एक बहुत पिटारा होता है- जिसको खोलने पर बस यही लगता है - बचपन के दिन भी क्या दिन थे।
बच्चे का स्कूल जाना परिवार के लिए अपने आप में अभूतपूर्व घटना होती है। माँ-बाप से मिले शिक्षा और संस्कार अकेले काफी नहीं होते। गुरुजनों से ज्ञानार्जन बहुत जरूरी होता है। कितना अजीब लगता है अक्षरज्ञान से शिक्षा प्रारंभ करके बच्चा बाद में अकल्पनीय ऊँचाइयों तक पहँच जाता है। यकीनन इस दौरान बच्चे के बस्ते का बोझ भविष्य के लिए उसके कंधो को मजबूती देता है। कितना बढ़िया होता है बचपन सिर्फ खाओ-पियो, पढ़ो और खेलो- ना कोई चिंता- ना कोई गम।
पहले के समय में गिल्ली-डंडा, डंडा-पचरंगा, लट्टू , सत्थुल-पिट्टुल, गदागदी, छू-छूआ, छुपा-छुपी आदि अनेक देसी खेल जाने थे। आज क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल के साथ साथ रकबी और बेसबॉल जैसे आधुनिक खेलों का जमाना है। यहाँ तक तो सब ठीक है- लेकिन बच्चे आजकल वीडियो और कम्प्यूटर गेम्स खेला करते हैं-अब उसमें दिमागी मजबूती कितनी मिलती है- हम नहीं जानते - लेकिन शारीरिक मजबूती तो कतई नहीं मिलती। बहरहाल बच्चों का बचपन खेलों के बगैर गुजरे ऐसा तो हो ही नहीं सकता क्योंकि बच्चे और खेल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और खेलने के लिए होते हैं साथी- ढेर सारे साथी -ढेर सारे दोस्त । जिनमें दांतकाटी दोस्ती भी होती है, तुनक-मिजाज़ी भी, मान-मनौवल भी और कभी खट्टी कभी मिट्ठी। बचपन के साथी शायद ही कभी कोई भूल सकता है।
अक्सर उदासी या तन्हाई के आलम में आदमी अपने बचपन की स्मृतियांे का सहारा लेता है। बचपन की खट्टी -मिट्ठी यादें वापस उम्र के उसी मोड़ पर पहुँचा देती हैं। यार-दोस्त, शैतानियाँ, खेल-प्यार, स्नेह-भरी घटनांए जब याद आती हैं तो अवसाद की स्थिति से आदमी निश्चित ही उबर जाता है वहीं बचपन में घटी कुछ घटनांएँ ऐसी होती है जो आंखें नम कर देती है। ना जाने कितने भाव और रसों को समेटे रहता है बचपन अपने अंदर। ऐसा ही होता है बचपन।
पॉडकास्ट में इस्तेमाल गीत -
गीत गाता चल- बचपन हर गम से बेगाना होता है
बीस साल बाद - सपने सुहाने लडकपन के
वो कागज की कश्ती-जगजीत सिंह
दीदार- बचपन के दिन भुलाअनमोल घड़ी - मेरे बचपन के साथी - नूरजहाँ
कुछ और बचपन से जुड़े गीत वीडियो पर -
अनमोल मोती - कोई मेरा बचपन ला दे.
सुजाता - बचपन के दिन भी क्या दिन-.आशा, गीता दत्त
जंगली - जा जा जा मेरे बचपन - लता
पुरानी जीन्स - अली हैदर
आया है मुझे फिर याद वो जालिम -देवर
रेडियो धारावाहिक रचना-3
तृतीय एपिसोेड
गर्भावस्था (प्रथम चरण)
सूत्रधार 1- रचना की शादी हुई थी पिछले एपिसोड में, उसके बाद ढाई साल बीत गये है तब रचना और उनके पति जो बहुत समझदारी से पूरी प्लानिंग के साथ उन्होंने नया जीवन जीना सीखा था उन्होंने दो, ढाई साल में अपने परिवारिक जिम्मेदारियां भी निभाई, अपनी माँ को लेकर हरिद्वार गये। आर्थिक रूप से सुदृढ़ हुये, मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार हुये, उसके बाद उन्होंने माँ-बाप बनने का फैसला लिया।
सूत्रधार 2- और रचना के सास के लिए वह दिन आ गया जिसका उनको इंतजार था।
सास - बहुत तरसाया बहू। साल भर परेशान किया तूने । देर से सही लेकिन जिंदगी की सबसे बड़ी खुशखबरी सुनने की घड़ी आ ही गई।
रचना - लेकिन माँ पहले पक्का तो हो जाए, जाँच तो हो जाए।
सास - वो तो अपन अभी चल रहे हैं। आज तो नर्स दीदी के आने का भी दिन है। चल जल्दी से तैयार हो जा। तैयार क्या होना, अच्छी खासी तो दिख रही है। मुँह में पानी मार और चल।
रचना - चल रही हूँ माँ, चल रही हूँ।
सास - पक्का होने के बाद ये खबर दीनू को तू ही देना।
रचना - मैं नहीं बताऊँगी। उनको आप ही बताइयेगा। मुझे लाज आयेगी। पर माँ पहले पक्का तो हो जाने दीजिये। अभी
15 दिन ही तो ऊपर हुये हैं।
सास - ठीक है चल, अभी तो आंगनबाड़ी चलें
-- -- -- -- --
कमला - (आंगनबाड़ी दीदी) -अरे गौरी काकी नमस्ते। बहुत दिन बाद आना हुआ। तेरी हरिद्वार यात्रा के बाद एक बार
मिली फिर गायब ही हो गई। दो दफे आपके घर भी गई तो आपसे मुलाकात नहीं हुई। बहुरिया मिली थी।
सास - अरी कमला, ये शिकवा शिकायत छोड़, पहले ये बता कि सुलेखा नर्स आई है कि नहीं।
कमला - क्यों क्या हुआ? क्यों रचना.......ऐसा क्या....खुशखबरी.....सुलेखा...सुलेखा। खबर देने में साल भर का इंतजार करवाया, लेकिन मैं तो कहती हूँ, बहुत अच्छा किया। बढ़िया घूमे फिरे, मस्ती.....अरे सुलेखा जरा रचना की जाँच कर ले।
सुलेखा - अरे वाह रचना। आओ चलो अंदर चलो रचना। आखिरी बार महीना कब आया था।
रचना - पिछले महीने 2 तारीख को।
सुलेखा - और आज हो गई 27...माने..... उम्मीद तो बनती है। आओ बैठो। अरे कमला दीदी परदा नीचे कर दो और यहाँ किसी को आने मत देना।
कमला - ठीक है तू अपना काम कर। यहाँ मैं संभाल लूँगी। क्या बताएँ गौरी काकी, यहाँ सब कुछ इतना अच्छा है इतनी ट्रेन्ड नर्स है, पर ए.एन.सी. टेबल नहीं है।
सास - ए.एन.सी. टेबल क्या?
कमला - अरे जाँच की टेबल, जिस पर लिटा कर जाँच की जाती है। अभी आराम कुर्सी से ही काम चलाना पड़ता है।
सास - तो लेते क्यों नहीं?
कमला - फंड की दिक्कत है। अरे आप को तो सरपंच तुलेश्वर जी बहुत मानते हैं। आप ही उनको बोलकर ए.एन.सी.
टेबल की व्यवस्था पंचायत से करवा सकती हैं।
सास - बिल्कुल वो तो बहुत जरूरी है। अगली दफे मेरी बहू यहाँ जाँच के लिये आयेगी तो वही ...क्या...ए....
कमला - ए.एन.सी. टेबल
सास - हाँ वही ए.एन.सी. टेबल पर ही जाँच करवायेगी। मैं बोलती हूँ तुलेश्वर से।
सुलेखा - गौरी काकी-गौरी काकी...अपने कुलदेवता को प्रसाद चढ़ा दो। रचना माँ बनने वाली है।
सास - सच...हे भगवान...मेरी बरसों की इच्छा पूरी हो गई......याने याने मुझे दादी-दादी बोलने वाला कोई आने वाला है।
सुलेखा - हाँ बिल्कुल आने वाला है ...और अब रचना का ख्याल रखना। इसे अब बराबर अपनी जाँच करवाते रहना पड़ेगा।
कमला - गौरी काकी आपको बहुत बहुत बधाई और रचना तुम्हें भी। आओ तुम्हारा पंजीयन कर दें।
सास - पंजीयन.....? वो क्यों?
कमला - पहली तिमाही में प्रत्येक गर्भवती का आंगनबाड़ी में पंजीयन करवाने से माँ के स्वास्थ्य की लगातार जाँच भी होती है और जरूरी दवाएँ और सलाह मिलती रहती है। खैर चलो रचना अब तुम घर जाओ और जाकर थोड़ा आराम
करो। तुम्हें क्या करना है क्या नहीं, वो मैं शाम को आकर बताऊँगी। आज गृह भ्रमण में तुम्हारे घर भी आना है।
सास - पक्का आना...मिठाई भी खिलाऊँगी। हे भगवान मैं दादी बनने वाली हूँ। चल चल रचना घर चलें।
कमला - गौरी काकी. वो सरपंच जी आ रहे हैं, उनको वो जाँच वाली टेबल के लिये बोल देतीं।
(मोटर साइकिल की आवाज)
सास - ए तुलेश्वर...तुलेश्वर...ओ सरपंच जी सुनो।
सरपंच - क्या हुआ गौरी काकी मुझे सरपंच जी बोल कर शर्मिंदा मत करो..मैं तुम्हारा तुलेश्वर ही हूँ...पाँव लागूं।
सास - खुश रहो।
सरपंच - आप बड़ी खुश दिख रही हैं गौरी काकी, क्या बात है और रचना बहू भी साथ है।
सास - खुशी की तो बात है ही ...मैं दादी बनने वाली हूँ और दीनू बाप।
सरपंच - और मैं ताऊ...ये तो बहुत खुशी की बात है। मैं मिठाई मंगवाता हूँ।
सास - मिठाई तो मैं तुम सबको खिलाऊँगी। तू तो बस वो टे..ए. ...वो क्या टेबल थी कमला ...
कमला - ए.एन.सी. टेबल, गौरी काकी ।
सास - हाँ वही ए.एन.सी. टेबल...तू उसका इंतजाम अपनी पंचायत से करवा दे।
सरपंच - अभी-अभी तो वजन मशीन आंगनबाड़ी को दी हे हमने।
सास - वो तो तूने बड़ा अच्छा किया। अब एक धरम का काम समझ के ये जाँच टेबल की भी व्यवस्था पंचायत से करवा दे बेटा। लड़की जात को जाँच में सुविधा हो जायेगी।
सुलेखा - हाँ सरपंच जी । इसके बिना बड़ी परेशानी है। अब कैसे बतायें, महिलाओं को यहाँ वहाँ बिठाकर लिटाकर जाँच
करनी पड़ती है। इंन्फेक्शन का डर अलग रहता है। बहुत परेशानी.
सरपंच - ऐसी बात है तो वहले बताना था ना...मैं तुरंत इसका इंतजाम करवाता हूँ।
सास - मैं जानती थी तू मेरी बात नहीं टालेगा।
सरपंच - इसमें बात टालने वाली क्या बात है काकी, जनसेवा का काम है। नर्स दीदी तुम मुझे बताना कैसी टेबल बननी है..या खरीदनी है...मैं उसका इंतजाम करवाता हूँ। और गौरी काकी आप मिठाई का इंतजाम करो मैं शाम को घर आ रहा हूँ। (मोटर साइकिल स्टार्ट होने की आवाज) और दीनू को मेरी तरफ से बधाई देना।
-- -- -- --
रचना - आप को एक बात बताऊँ।
पति - बताओ
रचना - वो ना.....वो ना.... मैं
पति - क्यों वो वो लगा रखा है...सीधे सीधे बताओ ना..
रचना - वो...वो...बचपन में मैं अपने दोस्तों के साथ गंगू चाचा की बाड़ी में मैं अपने दोस्तों के साथ घुस जाती थी और हम लोग खूब सारे आम तोड़ते थे। गंगू चाचा शायद सब देखते थे, पर अनजान बनते थे। फिर जब हम लोग
आम तोड़ लेते थे। तो वो हमारे पीछे दौड़ते थे और किसी एक को पकड़ लेते थे। जो पकड़ा जाता था उसे कान
पकड़ कर उठक बैठक करनी पड़ती थी। उन्होंने मुझे कभी नहीं पकड़ा जबकि मैं वहीं बाड़ी के किनारे बैठकर
आम खाती रहती थी।
पति - लेकिन ये सब तुम्हें अभी क्यों याद आ रहा है?
रचना - मुझे आज कच्चा आम खाने की इच्छा हो रही है। आम ला दो ना...सिर्फ 2-4 कच्चे आम।
पति - अब इस वक्त मैं कच्चे आम कहाँ से लाऊँ।
रचना - तो फिर थोड़ी सी इमली ले आओ...वो भी चलेगी।
पति - इमली! अच्छी जिद लगा रखी है, कभी आम कभी इमली।
रचना - तो फिर कोई खट्टा सा अचार ही ला दो, उसी से काम चला लूंगी।
पति - रचना तुम...ये क्या हो गया है तुम्हें...आम, इमली, अचार...खट्टा...खट्टा .......अरे रचना...क्या क्या...मैं सही सोच रहा हूँ...तुम...तुम ......मैं बाप....
रचना - हाँ आज ही जाँच करवाई है।
पति - ओ रचना...तुम बहुत अच्छी हो...मैं मैं बाप बनने वाला हूँ...ओ रचना मैं सचमुच बाप बनने वाला हूँ।
रचना - अरे अरे उतारिये मुझे...गिर जाऊँगी, उतारिये ना।
पति - हाँ-हाँ तुम यहाँ आराम से बैठो..तुम्हें अब अपना खूब ध्यान रखना है।
रचना - हाँ वो तो है। शाम को कमला दीदी घर आयेंगी। बोल रही थीं..बहुत सी बातें समझानी हैं।
पति - वो आंगनबाड़ी कार्यकर्ता...कमला....वो बहुत अच्छे से अपनी बातें समझाती हैं। बहुत अनुभवी हैं, समझदार हैं।
रचना - समझदार तो आप भी है।
पति - वो तो मैं हूँ ही - स्वास्थ्य केन्द्र की सलाहें और तरीके अपना कर देखो, जब हमने चाहा तभी खबर मिली।
रचना - हाँ और इतने वक्त में आज कुछ रूपये भी हमारे पास हैं।
पति - अब तो मैं और मेहनत करूँगा, और पैसे बचाऊँगा, ताकि वक्त आने पर गाँठ में रकम पूरी हो। अगले 6-7 माह में काफी बचत करनी होगी...और उस समय के लिये गाड़ी की व्यवस्था भी करनी होगी।
रचना - उसके लिये तो अभी काफी समय है।
पति - तो क्या हुआ। गाड़ी की व्यवस्था के लिये अभी से रामेश्वर को बोल देता हूँ। उसके पास ट्रेक्टर ट्रॉली दोनों हैं।
रचना - कौन रामेश्वर?
पति - अरे वही सरपंच तुलेश्वर जी का छोटा भाई। मेरा अच्छा दोस्त है। वो मना भी नहीं करेगा।
रचना - आपको मेरा कितना ख्याल है, कितनी फिक्र है। अभी से सारी तैयारियों में जुट रहे हैं।
पति - हर वक्त ख्यालों में, ख्वाबों में तुम ही तुम तो रहती है। तुम्हारी फिक्र न करूँ तो किसकी करूँ, तो किसकी फिक्र करूँ।
रचना - सच!
पति - हाँ...तुम मेरी इकलौती बीवी जो हो।
रचना - ए.....
पति - हा..हा..हा..
-- -- -- -- --
सास - काफी देर कर दी कमला तुमने आने में....
कमला - हाँ गौरी काकी, 5-6 घर होकर आखिर में आपके यहाँ आई हूँ...आराम से बातें करेंगे...रचना को बहुत कुछ समझाना है। नहीं मालूम क्यों उससे बात करने में बहुत अच्छा लगता है। बहुत अच्छी बहू लाई हैं आप।
सास - मेरी निगाहें कभी धोखा नहीं खातीं - उसमें बचपना है, लेकिन है बहुत अच्छी जो बोलो बिना शिकायत करे
करती है। कोई भी काम बोलो मना नहीं करती, सवेरे जो उठती है रात तक जुटी रहती है।
कमला - लेकिन काकी अब उसे थोड़ा आराम दो और दिन में कम से कम दो घंटे तो वो कुछ ना करे, सिर्फ आराम करे।
सास - हाँ वो पानी भरने से तो मैं खुद उसे मना करने वाली थी। बाल्टी या भारी सामान उठाना ठीक नहीं।
कमला - वो तो खैर बिल्कुल भी नहीं करना है। साथ ही दिनमें दो घंटे आराम करना बहुत जरूरी है काकी। रचना को
डाँट के बोलना कि दोपहर में दो घंटा आराम करे।
सास - ऐसा...ठीक है मैं उसे दो घंटे बिस्तर से उठने ही नहीं दूंगी।
कमला - और गौरी काकी, उसे एक अतिरिक्त भोजन भी करवाना - वो मना करेगी पर जिद करके उसे एक बार एक्सट्रा खाना खाने को कहना।
सास - क्यों वो क्यों।
कमला - बच्चा क्या खायेगा जो पेट में और आपको दादी दादी कह कर बुलाने वाला है, उसे भी तो कुछ चाहिये, वो भूखा रहेगा क्या।
सास - ऐसा...रचना को को तो मैं एक डाँट लगाऊँगी तो वो दो बार एक्स्ट्रा खायेगी।
कमला - नहीं बस एक बार काफी है। खाना बस पौष्टिक हो, दलिया, दाल ही बहुत है। और अब तो उसका पंजीयन हो चुका है आंगनबाड़ी में, हर मंगलवार उसके लिये दलिया वहाँ से मंगवा लेना।
सास - ठीक है...रचना ए रचना...इधर आ....
रचना - हाँ माँ जी...नमस्ते कमला दीदी।
कमला - नमस्ते नमस्ते।
सास - सुन रचना - तुझे दिन में एक बार अलग से भोजन करना है, वो जो मैं दूंगी। तुझे दिन में दो घंटे आराम करना है..चाहे जो हो जाये और कोई भारी सामान नहीं उठाना है। आज से तेरा पानी भरना बंद भले ही तू अपने पति
दीनू को बोल कि शाम को जल्दी घर आये पानी भरने...ठीक कमला।
कमला - हाँ बिल्कुल ठीक, लेकिन और भी बातें हैं रचना जिनका तुम्हें ख्याल रखना है।
रचना - क्या...आप बतायँ..मैं जरूर ख्याल रखूँगी।
कमला - तुम्हें कम से कम तीन बार ए.एन.एम. से अपने पेट की जाँच करवानी है। ब्लड प्रेशर, फीटस्कोप से पेट जाँच और वजन लेना उसमें बढ़ोत्तरी-कमी की जाँच बहुत जरूरी है।
सास - ऐसा!
कमला - इसके अलावा एक माह के अंतराल पर टिटनेस के दो टीके सुलेखा नर्स से तुम्हें लेने होंगे और आयरन की
गोलयाँ मैं तुम्हें दे दूंगी-लाल गोली। तीन महीने तक रोज एक गोली खाने के बाद खानी है और खूब सारा पानी
पीना है। हो सकता है ये गोली खाकर तुम्हे कभी कभी उल्टी जैसा लगे, शौच का रंग काला सा हो तो तुम्हें
घबराना नहीं है और गोली खाना बंद नहीं करना है। ये होता है ...ठीक है।
रचना - हाँ दीदी, खाना खाने के बाद रोज गोली लूंगी।
कमला - और खाना भी पौष्टिक लेना। नींबू, आंवला, टमाटर, संतरा जैसे विटामिन सी बहुत जरूरी हैं तुम्हारे लिये।
रचना - ये सब भी खाना है।
सास - ये सब मैं देख लूंगी।
कमला - गौरी काकी दायी की व्यवस्था रखना और वो भी प्रशिक्षित दाई।
सास - प्रशिक्षित दाई...वो क्यो भला?
कमला - देखो काकी या तो अस्पताल में प्रसव कराना और घर में कराना हो तो प्रशिक्षित दाई से ही कराना।
सास - कमला, दाई तो दाई होती है, कोई भी हो बच्चा तो पैदा हो ही जायेगा।
कमला - बात तो ठीक है, लेकिन ऐसे में जच्चा बच्चा कभी कभी खतरे में पड़ जाते हैं।
सास - क्यों?
कमला - अच्छा ये बताओ क्या किसी भी स्कूल में अंगूठा आदमी छाप गुरूजी बन सकता है?
सास - हैं...कैसे बन सकता है, खुद अंगूठा छाप दूसरों को क्या पढ़ायेगा।
कमला - ठीक वैसे ही अप्रशिक्षित दाई, किसी का सफल प्रसव कैसे करा पायेगी। जो दाई प्रशिक्षण ले चुकी होती है, वो अपना काम अच्छे से जानती है, इसलिये दाई तो प्रशिक्षित ही ढूँढना।
सास - ऐसा
कमला - अब मैं चलूँ और रचना मैंने जैसा समझाया है वैसा ही करना।
सास - उसकी चिंता तू मत कर कमला। मैं हूँ ना, मैं सब देख लूंगी। तुम बस बीच में आती रहा करो। मुझे तो सिर्फ तोतली बोली में दादी दादी सुनना है...और ये क्या इसका पति भी वही करेगा जो मैं कहूँगी। चल बहू...तू सबसे
पहले...फल खा...फिर दलिया ...फिर खाना.....फिर आराम.....फिर........
गर्भावस्था (प्रथम चरण)
सूत्रधार 1- रचना की शादी हुई थी पिछले एपिसोड में, उसके बाद ढाई साल बीत गये है तब रचना और उनके पति जो बहुत समझदारी से पूरी प्लानिंग के साथ उन्होंने नया जीवन जीना सीखा था उन्होंने दो, ढाई साल में अपने परिवारिक जिम्मेदारियां भी निभाई, अपनी माँ को लेकर हरिद्वार गये। आर्थिक रूप से सुदृढ़ हुये, मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार हुये, उसके बाद उन्होंने माँ-बाप बनने का फैसला लिया।
सूत्रधार 2- और रचना के सास के लिए वह दिन आ गया जिसका उनको इंतजार था।
सास - बहुत तरसाया बहू। साल भर परेशान किया तूने । देर से सही लेकिन जिंदगी की सबसे बड़ी खुशखबरी सुनने की घड़ी आ ही गई।
रचना - लेकिन माँ पहले पक्का तो हो जाए, जाँच तो हो जाए।
सास - वो तो अपन अभी चल रहे हैं। आज तो नर्स दीदी के आने का भी दिन है। चल जल्दी से तैयार हो जा। तैयार क्या होना, अच्छी खासी तो दिख रही है। मुँह में पानी मार और चल।
रचना - चल रही हूँ माँ, चल रही हूँ।
सास - पक्का होने के बाद ये खबर दीनू को तू ही देना।
रचना - मैं नहीं बताऊँगी। उनको आप ही बताइयेगा। मुझे लाज आयेगी। पर माँ पहले पक्का तो हो जाने दीजिये। अभी
15 दिन ही तो ऊपर हुये हैं।
सास - ठीक है चल, अभी तो आंगनबाड़ी चलें
-- -- -- -- --
कमला - (आंगनबाड़ी दीदी) -अरे गौरी काकी नमस्ते। बहुत दिन बाद आना हुआ। तेरी हरिद्वार यात्रा के बाद एक बार
मिली फिर गायब ही हो गई। दो दफे आपके घर भी गई तो आपसे मुलाकात नहीं हुई। बहुरिया मिली थी।
सास - अरी कमला, ये शिकवा शिकायत छोड़, पहले ये बता कि सुलेखा नर्स आई है कि नहीं।
कमला - क्यों क्या हुआ? क्यों रचना.......ऐसा क्या....खुशखबरी.....सुलेखा...सुलेखा। खबर देने में साल भर का इंतजार करवाया, लेकिन मैं तो कहती हूँ, बहुत अच्छा किया। बढ़िया घूमे फिरे, मस्ती.....अरे सुलेखा जरा रचना की जाँच कर ले।
सुलेखा - अरे वाह रचना। आओ चलो अंदर चलो रचना। आखिरी बार महीना कब आया था।
रचना - पिछले महीने 2 तारीख को।
सुलेखा - और आज हो गई 27...माने..... उम्मीद तो बनती है। आओ बैठो। अरे कमला दीदी परदा नीचे कर दो और यहाँ किसी को आने मत देना।
कमला - ठीक है तू अपना काम कर। यहाँ मैं संभाल लूँगी। क्या बताएँ गौरी काकी, यहाँ सब कुछ इतना अच्छा है इतनी ट्रेन्ड नर्स है, पर ए.एन.सी. टेबल नहीं है।
सास - ए.एन.सी. टेबल क्या?
कमला - अरे जाँच की टेबल, जिस पर लिटा कर जाँच की जाती है। अभी आराम कुर्सी से ही काम चलाना पड़ता है।
सास - तो लेते क्यों नहीं?
कमला - फंड की दिक्कत है। अरे आप को तो सरपंच तुलेश्वर जी बहुत मानते हैं। आप ही उनको बोलकर ए.एन.सी.
टेबल की व्यवस्था पंचायत से करवा सकती हैं।
सास - बिल्कुल वो तो बहुत जरूरी है। अगली दफे मेरी बहू यहाँ जाँच के लिये आयेगी तो वही ...क्या...ए....
कमला - ए.एन.सी. टेबल
सास - हाँ वही ए.एन.सी. टेबल पर ही जाँच करवायेगी। मैं बोलती हूँ तुलेश्वर से।
सुलेखा - गौरी काकी-गौरी काकी...अपने कुलदेवता को प्रसाद चढ़ा दो। रचना माँ बनने वाली है।
सास - सच...हे भगवान...मेरी बरसों की इच्छा पूरी हो गई......याने याने मुझे दादी-दादी बोलने वाला कोई आने वाला है।
सुलेखा - हाँ बिल्कुल आने वाला है ...और अब रचना का ख्याल रखना। इसे अब बराबर अपनी जाँच करवाते रहना पड़ेगा।
कमला - गौरी काकी आपको बहुत बहुत बधाई और रचना तुम्हें भी। आओ तुम्हारा पंजीयन कर दें।
सास - पंजीयन.....? वो क्यों?
कमला - पहली तिमाही में प्रत्येक गर्भवती का आंगनबाड़ी में पंजीयन करवाने से माँ के स्वास्थ्य की लगातार जाँच भी होती है और जरूरी दवाएँ और सलाह मिलती रहती है। खैर चलो रचना अब तुम घर जाओ और जाकर थोड़ा आराम
करो। तुम्हें क्या करना है क्या नहीं, वो मैं शाम को आकर बताऊँगी। आज गृह भ्रमण में तुम्हारे घर भी आना है।
सास - पक्का आना...मिठाई भी खिलाऊँगी। हे भगवान मैं दादी बनने वाली हूँ। चल चल रचना घर चलें।
कमला - गौरी काकी. वो सरपंच जी आ रहे हैं, उनको वो जाँच वाली टेबल के लिये बोल देतीं।
(मोटर साइकिल की आवाज)
सास - ए तुलेश्वर...तुलेश्वर...ओ सरपंच जी सुनो।
सरपंच - क्या हुआ गौरी काकी मुझे सरपंच जी बोल कर शर्मिंदा मत करो..मैं तुम्हारा तुलेश्वर ही हूँ...पाँव लागूं।
सास - खुश रहो।
सरपंच - आप बड़ी खुश दिख रही हैं गौरी काकी, क्या बात है और रचना बहू भी साथ है।
सास - खुशी की तो बात है ही ...मैं दादी बनने वाली हूँ और दीनू बाप।
सरपंच - और मैं ताऊ...ये तो बहुत खुशी की बात है। मैं मिठाई मंगवाता हूँ।
सास - मिठाई तो मैं तुम सबको खिलाऊँगी। तू तो बस वो टे..ए. ...वो क्या टेबल थी कमला ...
कमला - ए.एन.सी. टेबल, गौरी काकी ।
सास - हाँ वही ए.एन.सी. टेबल...तू उसका इंतजाम अपनी पंचायत से करवा दे।
सरपंच - अभी-अभी तो वजन मशीन आंगनबाड़ी को दी हे हमने।
सास - वो तो तूने बड़ा अच्छा किया। अब एक धरम का काम समझ के ये जाँच टेबल की भी व्यवस्था पंचायत से करवा दे बेटा। लड़की जात को जाँच में सुविधा हो जायेगी।
सुलेखा - हाँ सरपंच जी । इसके बिना बड़ी परेशानी है। अब कैसे बतायें, महिलाओं को यहाँ वहाँ बिठाकर लिटाकर जाँच
करनी पड़ती है। इंन्फेक्शन का डर अलग रहता है। बहुत परेशानी.
सरपंच - ऐसी बात है तो वहले बताना था ना...मैं तुरंत इसका इंतजाम करवाता हूँ।
सास - मैं जानती थी तू मेरी बात नहीं टालेगा।
सरपंच - इसमें बात टालने वाली क्या बात है काकी, जनसेवा का काम है। नर्स दीदी तुम मुझे बताना कैसी टेबल बननी है..या खरीदनी है...मैं उसका इंतजाम करवाता हूँ। और गौरी काकी आप मिठाई का इंतजाम करो मैं शाम को घर आ रहा हूँ। (मोटर साइकिल स्टार्ट होने की आवाज) और दीनू को मेरी तरफ से बधाई देना।
-- -- -- --
रचना - आप को एक बात बताऊँ।
पति - बताओ
रचना - वो ना.....वो ना.... मैं
पति - क्यों वो वो लगा रखा है...सीधे सीधे बताओ ना..
रचना - वो...वो...बचपन में मैं अपने दोस्तों के साथ गंगू चाचा की बाड़ी में मैं अपने दोस्तों के साथ घुस जाती थी और हम लोग खूब सारे आम तोड़ते थे। गंगू चाचा शायद सब देखते थे, पर अनजान बनते थे। फिर जब हम लोग
आम तोड़ लेते थे। तो वो हमारे पीछे दौड़ते थे और किसी एक को पकड़ लेते थे। जो पकड़ा जाता था उसे कान
पकड़ कर उठक बैठक करनी पड़ती थी। उन्होंने मुझे कभी नहीं पकड़ा जबकि मैं वहीं बाड़ी के किनारे बैठकर
आम खाती रहती थी।
पति - लेकिन ये सब तुम्हें अभी क्यों याद आ रहा है?
रचना - मुझे आज कच्चा आम खाने की इच्छा हो रही है। आम ला दो ना...सिर्फ 2-4 कच्चे आम।
पति - अब इस वक्त मैं कच्चे आम कहाँ से लाऊँ।
रचना - तो फिर थोड़ी सी इमली ले आओ...वो भी चलेगी।
पति - इमली! अच्छी जिद लगा रखी है, कभी आम कभी इमली।
रचना - तो फिर कोई खट्टा सा अचार ही ला दो, उसी से काम चला लूंगी।
पति - रचना तुम...ये क्या हो गया है तुम्हें...आम, इमली, अचार...खट्टा...खट्टा .......अरे रचना...क्या क्या...मैं सही सोच रहा हूँ...तुम...तुम ......मैं बाप....
रचना - हाँ आज ही जाँच करवाई है।
पति - ओ रचना...तुम बहुत अच्छी हो...मैं मैं बाप बनने वाला हूँ...ओ रचना मैं सचमुच बाप बनने वाला हूँ।
रचना - अरे अरे उतारिये मुझे...गिर जाऊँगी, उतारिये ना।
पति - हाँ-हाँ तुम यहाँ आराम से बैठो..तुम्हें अब अपना खूब ध्यान रखना है।
रचना - हाँ वो तो है। शाम को कमला दीदी घर आयेंगी। बोल रही थीं..बहुत सी बातें समझानी हैं।
पति - वो आंगनबाड़ी कार्यकर्ता...कमला....वो बहुत अच्छे से अपनी बातें समझाती हैं। बहुत अनुभवी हैं, समझदार हैं।
रचना - समझदार तो आप भी है।
पति - वो तो मैं हूँ ही - स्वास्थ्य केन्द्र की सलाहें और तरीके अपना कर देखो, जब हमने चाहा तभी खबर मिली।
रचना - हाँ और इतने वक्त में आज कुछ रूपये भी हमारे पास हैं।
पति - अब तो मैं और मेहनत करूँगा, और पैसे बचाऊँगा, ताकि वक्त आने पर गाँठ में रकम पूरी हो। अगले 6-7 माह में काफी बचत करनी होगी...और उस समय के लिये गाड़ी की व्यवस्था भी करनी होगी।
रचना - उसके लिये तो अभी काफी समय है।
पति - तो क्या हुआ। गाड़ी की व्यवस्था के लिये अभी से रामेश्वर को बोल देता हूँ। उसके पास ट्रेक्टर ट्रॉली दोनों हैं।
रचना - कौन रामेश्वर?
पति - अरे वही सरपंच तुलेश्वर जी का छोटा भाई। मेरा अच्छा दोस्त है। वो मना भी नहीं करेगा।
रचना - आपको मेरा कितना ख्याल है, कितनी फिक्र है। अभी से सारी तैयारियों में जुट रहे हैं।
पति - हर वक्त ख्यालों में, ख्वाबों में तुम ही तुम तो रहती है। तुम्हारी फिक्र न करूँ तो किसकी करूँ, तो किसकी फिक्र करूँ।
रचना - सच!
पति - हाँ...तुम मेरी इकलौती बीवी जो हो।
रचना - ए.....
पति - हा..हा..हा..
-- -- -- -- --
सास - काफी देर कर दी कमला तुमने आने में....
कमला - हाँ गौरी काकी, 5-6 घर होकर आखिर में आपके यहाँ आई हूँ...आराम से बातें करेंगे...रचना को बहुत कुछ समझाना है। नहीं मालूम क्यों उससे बात करने में बहुत अच्छा लगता है। बहुत अच्छी बहू लाई हैं आप।
सास - मेरी निगाहें कभी धोखा नहीं खातीं - उसमें बचपना है, लेकिन है बहुत अच्छी जो बोलो बिना शिकायत करे
करती है। कोई भी काम बोलो मना नहीं करती, सवेरे जो उठती है रात तक जुटी रहती है।
कमला - लेकिन काकी अब उसे थोड़ा आराम दो और दिन में कम से कम दो घंटे तो वो कुछ ना करे, सिर्फ आराम करे।
सास - हाँ वो पानी भरने से तो मैं खुद उसे मना करने वाली थी। बाल्टी या भारी सामान उठाना ठीक नहीं।
कमला - वो तो खैर बिल्कुल भी नहीं करना है। साथ ही दिनमें दो घंटे आराम करना बहुत जरूरी है काकी। रचना को
डाँट के बोलना कि दोपहर में दो घंटा आराम करे।
सास - ऐसा...ठीक है मैं उसे दो घंटे बिस्तर से उठने ही नहीं दूंगी।
कमला - और गौरी काकी, उसे एक अतिरिक्त भोजन भी करवाना - वो मना करेगी पर जिद करके उसे एक बार एक्सट्रा खाना खाने को कहना।
सास - क्यों वो क्यों।
कमला - बच्चा क्या खायेगा जो पेट में और आपको दादी दादी कह कर बुलाने वाला है, उसे भी तो कुछ चाहिये, वो भूखा रहेगा क्या।
सास - ऐसा...रचना को को तो मैं एक डाँट लगाऊँगी तो वो दो बार एक्स्ट्रा खायेगी।
कमला - नहीं बस एक बार काफी है। खाना बस पौष्टिक हो, दलिया, दाल ही बहुत है। और अब तो उसका पंजीयन हो चुका है आंगनबाड़ी में, हर मंगलवार उसके लिये दलिया वहाँ से मंगवा लेना।
सास - ठीक है...रचना ए रचना...इधर आ....
रचना - हाँ माँ जी...नमस्ते कमला दीदी।
कमला - नमस्ते नमस्ते।
सास - सुन रचना - तुझे दिन में एक बार अलग से भोजन करना है, वो जो मैं दूंगी। तुझे दिन में दो घंटे आराम करना है..चाहे जो हो जाये और कोई भारी सामान नहीं उठाना है। आज से तेरा पानी भरना बंद भले ही तू अपने पति
दीनू को बोल कि शाम को जल्दी घर आये पानी भरने...ठीक कमला।
कमला - हाँ बिल्कुल ठीक, लेकिन और भी बातें हैं रचना जिनका तुम्हें ख्याल रखना है।
रचना - क्या...आप बतायँ..मैं जरूर ख्याल रखूँगी।
कमला - तुम्हें कम से कम तीन बार ए.एन.एम. से अपने पेट की जाँच करवानी है। ब्लड प्रेशर, फीटस्कोप से पेट जाँच और वजन लेना उसमें बढ़ोत्तरी-कमी की जाँच बहुत जरूरी है।
सास - ऐसा!
कमला - इसके अलावा एक माह के अंतराल पर टिटनेस के दो टीके सुलेखा नर्स से तुम्हें लेने होंगे और आयरन की
गोलयाँ मैं तुम्हें दे दूंगी-लाल गोली। तीन महीने तक रोज एक गोली खाने के बाद खानी है और खूब सारा पानी
पीना है। हो सकता है ये गोली खाकर तुम्हे कभी कभी उल्टी जैसा लगे, शौच का रंग काला सा हो तो तुम्हें
घबराना नहीं है और गोली खाना बंद नहीं करना है। ये होता है ...ठीक है।
रचना - हाँ दीदी, खाना खाने के बाद रोज गोली लूंगी।
कमला - और खाना भी पौष्टिक लेना। नींबू, आंवला, टमाटर, संतरा जैसे विटामिन सी बहुत जरूरी हैं तुम्हारे लिये।
रचना - ये सब भी खाना है।
सास - ये सब मैं देख लूंगी।
कमला - गौरी काकी दायी की व्यवस्था रखना और वो भी प्रशिक्षित दाई।
सास - प्रशिक्षित दाई...वो क्यो भला?
कमला - देखो काकी या तो अस्पताल में प्रसव कराना और घर में कराना हो तो प्रशिक्षित दाई से ही कराना।
सास - कमला, दाई तो दाई होती है, कोई भी हो बच्चा तो पैदा हो ही जायेगा।
कमला - बात तो ठीक है, लेकिन ऐसे में जच्चा बच्चा कभी कभी खतरे में पड़ जाते हैं।
सास - क्यों?
कमला - अच्छा ये बताओ क्या किसी भी स्कूल में अंगूठा आदमी छाप गुरूजी बन सकता है?
सास - हैं...कैसे बन सकता है, खुद अंगूठा छाप दूसरों को क्या पढ़ायेगा।
कमला - ठीक वैसे ही अप्रशिक्षित दाई, किसी का सफल प्रसव कैसे करा पायेगी। जो दाई प्रशिक्षण ले चुकी होती है, वो अपना काम अच्छे से जानती है, इसलिये दाई तो प्रशिक्षित ही ढूँढना।
सास - ऐसा
कमला - अब मैं चलूँ और रचना मैंने जैसा समझाया है वैसा ही करना।
सास - उसकी चिंता तू मत कर कमला। मैं हूँ ना, मैं सब देख लूंगी। तुम बस बीच में आती रहा करो। मुझे तो सिर्फ तोतली बोली में दादी दादी सुनना है...और ये क्या इसका पति भी वही करेगा जो मैं कहूँगी। चल बहू...तू सबसे
पहले...फल खा...फिर दलिया ...फिर खाना.....फिर आराम.....फिर........
Monday, October 11, 2010
रेडियो धारावाहिक रचना - भाग 2
रचना ' द्वितीय एपिसोड
शादी की उम्र
सूत्रधार 1 - पिछली बार हमने पाया कि रचना के पिता और दादी ने बेहद बुद्धिमत्ता दिखाते हुए रचना की माँ की जिद पूरी नहीं होने दी।
सूत्रधार 2 - हाँ, चूंकि रचना शादी की उम्र के लिहाज से छोटी थी, उसकी शादी करना रचना के साथ अन्याय करना हो
जाता। उसका विवाह बिल्कुल भी न्यायसंगत नहीं होता।
सूत्रधार 1 - ठीक कह रही हो, हमें अपने आस पास ही ऐसे कई किस्से सुनने को मिल जाते हैं कि फलां गाँव में फलां की शादी 14-15 साल में कर दी गई। दो-एक साल में लड़की माँ भी बन गई और जच्चा-बच्चा दोनों की जान को खतरा हो गया।
सूत्रधार 2 - बिल्कुल कम उम्र में बच्ची की शादी करना उसके बचपन के साथ साथ उसकी जिन्दगी को भी नष्ट करना
होता है।
सूत्रधार 1 - और सरकार भी बाल विवाह के खिलाफ है। 18 साल की उम्र से पहले लड़की को विवाह के लिये बाध्य करना दंडनीय अपराध है।
सूत्रधार 2 - बहरहाल हमारी रचना के परिवार ने उस वक्त समझदारी दिखाई और उसे शादी के लिये परिपक्व होने दिया।
(शहनाई की धुन)
सूत्रधार 1 - इस बात को साढ़े तीन साल बीत गये। रचना अब साढ़े 18 की हो गई।
सूत्रधार 2 - और लो सुनो, शहनाई की गूंज। ये शहनाई, बाजे गाजे की आवाज कहाँ से आ रही है?
सूत्रधार 1 - शायद रचना के ही घर से ये आवाजें आ रही हैं
सूत्रधार 2 - हाँ यही लगता है। आओ चल कर देखें।
(शहनाई एवं शोरगुल की आवाजें)
01 - हलवाई को बोला था लड्डू छोटी बूंदी के बनेंगे।
02 - तुमको तो कहा था कि ध्यान रखना।
01 - तो मेरे पास और भी तो काम थे। टेंट वाले के बर्तन कम आये थे उसे गिनती भी तो करना था।
03 - अच्छा ये सब छोड़ो, जितने लड्डू बन चुके ठीक है, बाकी के लिये छोटी बूंदी बनवाओ और बड़ी बूंदी रायते के लिये रखवा लो।
02 - और सुन गौरी के यहाँ साड़ियाँ पीकू-फॉल के लिये गई थीं। दो साड़ियाँ नहीं आई हैं, वो ले आना।
01 - पहले टेंट वाले के बर्तन तो गिनवा लूं।
03 - वो रामू को बोल दे तू पहले.....
दादी - अरे वो रामू कहाँ है। चूलमाटी के लिये सुवासा को तैयार कर लाने भेजा था अभी तक खबर नहीं आई.. और बेटा तू अब आ रहा है...चूलमाटी के लिये देर हो रही है।
पिता - बर्फ का ऑर्डर देने गया था माँ-गर्मी का मौसम है, बाराती ठंडा शर्बत चाहेंगे और सुन माँ वो बाहर आंगनबाड़ी वाली दीदी खड़ी हैं, रवना से मिलना चाहती हैं, उसे ऊपर रचना के कमरे में ले जा।
दादी - वो तू बहू को बोल दे, यहाँ औरतें तैयार बैठी है, चूलमाटी में जाने के लिये...वो मुआ रामू अभी तक नहीं आया, खेलने लग गया होगा....मैं ही जाती हूँ। अरे चाची, तुमने बड़ी देर कर दी।
चाची - मुझे चाची मत कहिये, आप तो बड़ी हैं।
दादी - अरे चाची, तुम तो जगत चाची हो। चलो बाकी लोगों को तैयार करो, जल्दी निकलना है चूलमाटी के लिये। मैं सुवासिनों को देखती हूँ।
चाची - माँ जी वो आंगनबाड़ी वाली आई हैं, रचना से मिलने, उसे मना कर दूँ- बेकार समय खराब करेगी।
पिता - काहे वापस भेजेगी, मिलने आई है तो मिलने दो - रचना को दो-चार अच्छी बातें ही बतायेगी। वैसे भी रचना उसे बहुत मानती है।
चाची - वो क्या बतायेगी। रचना को तो मैं सब समझा दूंगी। मैं चली रचना के पास।
दादी - तुम तो मत ही समझाना चाची - तुम बस बाकी रिश्तेदारों का ख्याल रखो और बेटा वो मंडप लिये डूमर पत्ती लाने कौन गया है?
पिता - तुम तो पहले चूलमाटी में जाओ तुम्हारे वापस आने तक डूमर पत्ती भी आ चुकी होगी। मैं आंगनबाड़ी दीदी को रचना से मिलवा दूँ।
-- -- --
चाची - और रचना बिटिया क्या हाल है। तुम तो बड़ी सुन्दर लग रही हो।
रचना - प्रणाम चाची
चाची - खुश रहो, आबाद रहो, फलो-फूलो, जल्दी से जल्दी, हमें पोते...
रचना - अरे आंगनबाड़ी दीदी आई हैं। आओ दीदी।
दीदी - कैसी हो रचना, कैसा लग रहा है?
रचना - ठीक हूँ दीदी, पर कैसा-कैसा तो लग रहा है।
दीदी - क्यों....क्या कैसा कैसा लग रहा है?
रचना - एक तो घर, दोस्त, गाँव और आंगनबाड़ी सब छूट जायेगा। फिर पता नहीं ससुराल में क्या हो, वहाँ लोग कैसे हों।
दीदी - घर, दोस्त, गाँव तो सभी लड़कियों का शादी के बाद छूटता ही है। पर संबंध थोड़ी न खत्म हो जाते हैं बल्कि प्यार और सम्मान बढ़ जाता है। और फिर जहाँ जाओ वहाँ नया घर-दोस्त, गाँव भी मिलेगा और अच्छी तरह
देखभाल करने वाला पति भी।
रचना - वहाँ पर सबका व्यवहार कैसा होगा, क्या पता।
दीदी - तुम्हें इसकी चिन्ता करने जरूरत नहीं है। तुम पढ़ी लिखी हो, समझदार हो, व्यवहार कुशल हो, तुम खुद सब कुछ संभाल लोगी। ऐसे ही प्रेम-स्नेह से, मधुरता से सब से व्यवहार रखना सब तुम्हें पसंद करेंगे।
चाची - पति तो बेशक तुझे पसंद करेगा और तू भी अपने पति से ही ज्यादा मतलब रखना। बाकी......
01 - (आवाज) चाची जल्दी आओ चूलमाटी में चलना है, सब तैयार हैं।
चाची - तो मैं चलूँ रचना बेटी। बाद में बात करेंगे। पर एक बात हमेशा याद रखना। पति ही सब कुछ है और साल भर के अंदर ही तेरी गोद भर जानी चाहिये, बताए देती हूँ हाँ।
दीदी - उफ् ये चाची भी....
रचना - पर दीदी यहाँ जैसे मुझे कुछ तकलीफ होती थी, तो तुमसे बातें करके बहुत चैन मिलता था।
दीदी - वो भी चिन्ता की बात नहीं, जहाँ तुम ब्याह कर जा रही हो, वहाँ भी आंगनबाड़ी केन्द्र है, वहाँ भी आंगनबाड़ी दीदी है। उससे एक बार मिल लेना, वो भी तुम्हारा ख्याल रखेगी।
रचना - वहाँ भी आंगनबाड़ी केन्द्र है?
दीदी - हाँ भई, बिल्कुल है। तुम्हें पता है बिलासपुर जिले में 1710 आंगनबाड़ी केन्द्र हैं।
रचना - 1710 आंगनबाड़ी केन्द्र!
दीदी - हाँ और सब जगह मेरी तरह आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं और तुम जानती हो कि हम रोज शाम को कई घरों का दौरा करते हैं। वहाँ तुम्हारे नये गाँव में भी आंगनबाड़ी कार्यकर्ता तुम्हारे घर पहुँचेंगी तो तुम्हारी उनसे मुलाकात
हो जायेगी।
रचना - हाँ, लेकिन...
दीदी - अब लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। सब ठीक रहेगा। तू बिल्कुल चिंता मत कर - हाँ बस तुम बच्चे के लिये जल्दी मत करना। चाची की बातें इस कान से सुन उस कान से निकाल देना।
रचना - पर दीदी ये तो भगवान के हाथ में है। अपनी मर्जी से थोड़े ही कुछ होता है।
दीदी - सब कुछ अपनी मर्जी पर ही निर्भर करता है। बच्चा न चाहो या दो बच्चों में लंबा अंतराल चाहो तो कई तरीके हैं, जिनसे ये सब हो सकता है।
रचना - ऐसा दीदी!
दीदी - हाँ ये समझ लो कि स्थायी या अस्थायी तरीके होते हैं गर्भ न धारण करने के लिये। स्थायी में एक छोटा सा ऑपरेशन करवा कर गर्भधारण को हमेशा के लिये रोका जा सकता है और ये ऑपरेशन पुरुष और स्त्री दोनों
करवा सकते हैं। पर ये 2 बच्चे हो जाने के बाद ही करवाया जाता है तुम्हारे लिये अस्थायी तरीके ही ठीक रहेंगे।
रचना - ये क्या क्या होते है?
दीदी - जैसे लूप या गर्भ निरोधक गोलियाँ, जिनसे जब तक बच्चा ना चाहो तब तक प्रयोग में लाते हैं और कंडोम जिसे पुरुष द्वारा प्रयोग किया जाता है, जो शुक्राणुओं को गर्भ में प्रवेश ही नहीं करने देता। साथ ही इससे गुप्त
रोग, एड्स आदि से भी बचाव होता है।
रचना - बाबा रे बाबा मुझे तो ये सब पता ही नहीं था।....पर दीदी अगर मेरे वो माने पति ये सब न चाहे तो...
दीदी - तुम समझाना। तुम तो समझदार हो। उन्हें बताना कि स्वस्थ बच्चों के लिये उनमें कुछ अंतराल कितना जरूरी है। ये अंतराल माँ और बच्चा दोनों को स्वस्थ रखता है।
माँ - लो दीदी चाय लो, बहुत देर बातें कर लीं।
दीदी - इतना सारा नाश्ता...ये तो बहुत ज्यादा है..मैं..
माँ - अरे तेरी रचना की शादी है। तू भी खा और इसे भी खिला। लो चाय लो।(आवाजें..)
और रचना को सब समझा दिया ना।
दीदी - हाँ और वैसे ही रचना बहुत समझदार है। लेकिन तुम रचना मेरी बातों को भूलना मत...बच्चे के लिये जल्दबाजी नहीं। और वहाँ की नर्स दीदी हर हफ्ते किसी दिन आती होंगी, उनसे मिल लेना। बाकी वो सब समझा देंगी। एक बात और सफाई का विशेष ध्यान रखना। क्यों बहन रचना के ससुराल में शौचालय तो है ना...
माँ - हाँ है...इसके पिताजी तो उस घर में ही अपनी लड़की नहीं देते जहाँ शौचालय न हो।
दीदी - ये बढ़िया है...तो रचना कोई और परेशानी तो नहीं।
रचना - नहीं दीदी।
माँ - अब मैं तो बेटी ये सब कुछ नहीं समझती, लेकिन तू अपनी दीदी की बातें अच्छे से समझ ले। ये जो भी बतायेंगी तेरे फायदे के लिये ही बतायेंगी।
दीदी - अब मैं चलूँ।
माँ - कहाँ चली अभी मगरोहन, मंडपाच्छादन, दौतेला, हरदियाही, चीकट सब होना है। तुझे इन सबमें शामिल होना है, तू यहीं रुक।
दीदी - अभी बहुत सारे काम हैं। रामजी लाल के यहाँ छोटे वाले लड़के की बहू आई है। थोड़ा उससे मिल लूँ। उसे भी बहुत कुछ समझाना है, पूछना है। बाद में जरूर आऊँगी। एक ना एक कार्यक्रम में रहूँगी।
माँ - ठीक है, अब काम है तो जाओ। लेकिन रचना की बिदाई से पहले आना जरूर।
(शहनाई....., मंत्रोच्चार आदि की आवाजें)
(बाबुल की दुआएँ लेती जा...गाना पार्श्व में)
माँ......रोना
बाबूजी........बेटा.....
-- -- -- --
सास - आ बहू इस कटोरे को पाँव से गिरा दे। (आवाज)
बहुत अच्छा......अब अंदर आ....लो भई लक्ष्मी घर में आ गई। बहू जितने भी रिश्तेदार हैं सबके पैर छू और आशीर्वाद
ले। मैं साथ चलती हूँ, तुझे बताती रहूँगी किस किसके पैर छूने हैं....आ चल....ये ये...तेरी चचेरी सास है...पैर छू और ....ये मेरी ननद और .....ये मेरी छोटी बहन ...ये......
-- -- -- -- --
(चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो गाना पार्श्व में)
(दरवाजा बंद होने की आवाज)
पति - उह...हूँ... रचना ऐ रचना
रचना - जी
पति - तुम...तुम खुश हो शादी से।
रचना - जी
पति - मैं पसंद हूँ तुम्हें।
रचना - जी
पति - तो चलो अपना चाँद सा चेहरा हमें भी दिखा दो।
रचना - जी
पति - अच्छा पहले एक बात बताओ।
रचना - जी
पति - तुम्हें जी जी के अलावा कुछ और भी कहना आता है?
रचना - जी...जी हाँ..मतलब...
पति - (हँसता है) रचना देखो अब हमें जिंदगी भर एक दूसरे का साथ निभाना है। आं...लाओ अपना हाथ दो...हाँ....तो...
मेरा तुमसे वादा है कैसी भी परेशानी हो तुम्हें मैं जीवन में कोई कष्ट नहीं होने दूंगा। आज से मेरे सारे सुख
तुम्हारे और तुम्हारे सारे दुख मेरे।
रचना - ऐ..ऐसा क्यों कहते है....जब आप मेरे साथ हैं तो मुझे काहे का दुख।
पति - बस मुझे यही विश्वास तुमसे चाहिये। देखो रचना, हम बहुत पैसे वाले नहीं हैं, थोड़ी बहुत खेती है और मैं
बिलासपुर जाकर काम करता हूँ। पिताजी का देहांत तब हो गया था जब मैं छोटा था। उसके बाद पढ़ाई के
साथ साथ घर की देखभाल भी करता आया हूँ। लेकिन तुम्हें किसी बात की कोई कमी नहीं होने दूंगा। ये...येकृ
एक अंगूठी तुम्हारे लिये लाया हूँ...पहना दूं।
रचना - जी
पति - अब जरा घूंघट तो हटा दो।
रचना - जी
पति - हर आँख अश्कबार है, हर सांस बेकरार है तेरे बगैर अब जिंदगी, उजड़ी हुई बहार है।
रचना - आप..आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ।
पति - बिल्कुल कहो..मैं काहे बुरा मानूंगा।
रचना - वो...वो...
पति - कहो ना...बेहिचक कहो, आखिर अब हम पति-पत्नी हैं।
रचना - जी ..वो
पति - वैसे तुम लजाती हो तो और सुंदर लगती हो।
रचना - जी
पति - फिर जी..अरे जी जी ही करती रहोगी तो जो कुछ बोलना चाहती हो वो कैसे बोलोगी।
रचना - वो हम...हम लोग अगर बच्चे की जल्दी न करें तो......आप बुरा मान गये।
पति - हा..हा..हा..बुरा! मैं तो बहुत खुश हूँ कि मुझे इतनी समझदार पत्नी मिली है। जानती हो रचना मैं खुद स्वास्थ्य केन्द्र गया था और बर्थ स्पेसिंग याने बच्चों में अंतर आदि के बारे में सारी जानकारी और उसके उपाय सब समझे हैं मैंने। तुम बिल्कुल चिंता मत करो। अभी एक साल तक तो बच्चे के बारे में सोचना भी नहीं है और फिर
बरसात के बाद हमें घूमने चलना है।
रचना - कहाँ-कहाँ जायेंगे।
पति - हरिद्वार।
रचना - हरिद्वार?
पति - हाँ, असल में माँ जाना चाहती है। वहाँ माँ को किसी अच्छी जगह ठहराकर अपन घूमने चले चलेंगे।
रचना - कहाँ?
पति - जहाँ तुम चाहो...और और अब तो घूंघट पूरा हटा दो...उफ्...चौदहवीं का चाँद भी रश्क करता होगा तुम्हारी खूबसूरती से। मचलते हुए दिल की धड़कन ने सुलझे जो काजल से छूटे तो आंचल से उलझे ....(फेड आउट)
शादी की उम्र
सूत्रधार 1 - पिछली बार हमने पाया कि रचना के पिता और दादी ने बेहद बुद्धिमत्ता दिखाते हुए रचना की माँ की जिद पूरी नहीं होने दी।
सूत्रधार 2 - हाँ, चूंकि रचना शादी की उम्र के लिहाज से छोटी थी, उसकी शादी करना रचना के साथ अन्याय करना हो
जाता। उसका विवाह बिल्कुल भी न्यायसंगत नहीं होता।
सूत्रधार 1 - ठीक कह रही हो, हमें अपने आस पास ही ऐसे कई किस्से सुनने को मिल जाते हैं कि फलां गाँव में फलां की शादी 14-15 साल में कर दी गई। दो-एक साल में लड़की माँ भी बन गई और जच्चा-बच्चा दोनों की जान को खतरा हो गया।
सूत्रधार 2 - बिल्कुल कम उम्र में बच्ची की शादी करना उसके बचपन के साथ साथ उसकी जिन्दगी को भी नष्ट करना
होता है।
सूत्रधार 1 - और सरकार भी बाल विवाह के खिलाफ है। 18 साल की उम्र से पहले लड़की को विवाह के लिये बाध्य करना दंडनीय अपराध है।
सूत्रधार 2 - बहरहाल हमारी रचना के परिवार ने उस वक्त समझदारी दिखाई और उसे शादी के लिये परिपक्व होने दिया।
(शहनाई की धुन)
सूत्रधार 1 - इस बात को साढ़े तीन साल बीत गये। रचना अब साढ़े 18 की हो गई।
सूत्रधार 2 - और लो सुनो, शहनाई की गूंज। ये शहनाई, बाजे गाजे की आवाज कहाँ से आ रही है?
सूत्रधार 1 - शायद रचना के ही घर से ये आवाजें आ रही हैं
सूत्रधार 2 - हाँ यही लगता है। आओ चल कर देखें।
(शहनाई एवं शोरगुल की आवाजें)
01 - हलवाई को बोला था लड्डू छोटी बूंदी के बनेंगे।
02 - तुमको तो कहा था कि ध्यान रखना।
01 - तो मेरे पास और भी तो काम थे। टेंट वाले के बर्तन कम आये थे उसे गिनती भी तो करना था।
03 - अच्छा ये सब छोड़ो, जितने लड्डू बन चुके ठीक है, बाकी के लिये छोटी बूंदी बनवाओ और बड़ी बूंदी रायते के लिये रखवा लो।
02 - और सुन गौरी के यहाँ साड़ियाँ पीकू-फॉल के लिये गई थीं। दो साड़ियाँ नहीं आई हैं, वो ले आना।
01 - पहले टेंट वाले के बर्तन तो गिनवा लूं।
03 - वो रामू को बोल दे तू पहले.....
दादी - अरे वो रामू कहाँ है। चूलमाटी के लिये सुवासा को तैयार कर लाने भेजा था अभी तक खबर नहीं आई.. और बेटा तू अब आ रहा है...चूलमाटी के लिये देर हो रही है।
पिता - बर्फ का ऑर्डर देने गया था माँ-गर्मी का मौसम है, बाराती ठंडा शर्बत चाहेंगे और सुन माँ वो बाहर आंगनबाड़ी वाली दीदी खड़ी हैं, रवना से मिलना चाहती हैं, उसे ऊपर रचना के कमरे में ले जा।
दादी - वो तू बहू को बोल दे, यहाँ औरतें तैयार बैठी है, चूलमाटी में जाने के लिये...वो मुआ रामू अभी तक नहीं आया, खेलने लग गया होगा....मैं ही जाती हूँ। अरे चाची, तुमने बड़ी देर कर दी।
चाची - मुझे चाची मत कहिये, आप तो बड़ी हैं।
दादी - अरे चाची, तुम तो जगत चाची हो। चलो बाकी लोगों को तैयार करो, जल्दी निकलना है चूलमाटी के लिये। मैं सुवासिनों को देखती हूँ।
चाची - माँ जी वो आंगनबाड़ी वाली आई हैं, रचना से मिलने, उसे मना कर दूँ- बेकार समय खराब करेगी।
पिता - काहे वापस भेजेगी, मिलने आई है तो मिलने दो - रचना को दो-चार अच्छी बातें ही बतायेगी। वैसे भी रचना उसे बहुत मानती है।
चाची - वो क्या बतायेगी। रचना को तो मैं सब समझा दूंगी। मैं चली रचना के पास।
दादी - तुम तो मत ही समझाना चाची - तुम बस बाकी रिश्तेदारों का ख्याल रखो और बेटा वो मंडप लिये डूमर पत्ती लाने कौन गया है?
पिता - तुम तो पहले चूलमाटी में जाओ तुम्हारे वापस आने तक डूमर पत्ती भी आ चुकी होगी। मैं आंगनबाड़ी दीदी को रचना से मिलवा दूँ।
-- -- --
चाची - और रचना बिटिया क्या हाल है। तुम तो बड़ी सुन्दर लग रही हो।
रचना - प्रणाम चाची
चाची - खुश रहो, आबाद रहो, फलो-फूलो, जल्दी से जल्दी, हमें पोते...
रचना - अरे आंगनबाड़ी दीदी आई हैं। आओ दीदी।
दीदी - कैसी हो रचना, कैसा लग रहा है?
रचना - ठीक हूँ दीदी, पर कैसा-कैसा तो लग रहा है।
दीदी - क्यों....क्या कैसा कैसा लग रहा है?
रचना - एक तो घर, दोस्त, गाँव और आंगनबाड़ी सब छूट जायेगा। फिर पता नहीं ससुराल में क्या हो, वहाँ लोग कैसे हों।
दीदी - घर, दोस्त, गाँव तो सभी लड़कियों का शादी के बाद छूटता ही है। पर संबंध थोड़ी न खत्म हो जाते हैं बल्कि प्यार और सम्मान बढ़ जाता है। और फिर जहाँ जाओ वहाँ नया घर-दोस्त, गाँव भी मिलेगा और अच्छी तरह
देखभाल करने वाला पति भी।
रचना - वहाँ पर सबका व्यवहार कैसा होगा, क्या पता।
दीदी - तुम्हें इसकी चिन्ता करने जरूरत नहीं है। तुम पढ़ी लिखी हो, समझदार हो, व्यवहार कुशल हो, तुम खुद सब कुछ संभाल लोगी। ऐसे ही प्रेम-स्नेह से, मधुरता से सब से व्यवहार रखना सब तुम्हें पसंद करेंगे।
चाची - पति तो बेशक तुझे पसंद करेगा और तू भी अपने पति से ही ज्यादा मतलब रखना। बाकी......
01 - (आवाज) चाची जल्दी आओ चूलमाटी में चलना है, सब तैयार हैं।
चाची - तो मैं चलूँ रचना बेटी। बाद में बात करेंगे। पर एक बात हमेशा याद रखना। पति ही सब कुछ है और साल भर के अंदर ही तेरी गोद भर जानी चाहिये, बताए देती हूँ हाँ।
दीदी - उफ् ये चाची भी....
रचना - पर दीदी यहाँ जैसे मुझे कुछ तकलीफ होती थी, तो तुमसे बातें करके बहुत चैन मिलता था।
दीदी - वो भी चिन्ता की बात नहीं, जहाँ तुम ब्याह कर जा रही हो, वहाँ भी आंगनबाड़ी केन्द्र है, वहाँ भी आंगनबाड़ी दीदी है। उससे एक बार मिल लेना, वो भी तुम्हारा ख्याल रखेगी।
रचना - वहाँ भी आंगनबाड़ी केन्द्र है?
दीदी - हाँ भई, बिल्कुल है। तुम्हें पता है बिलासपुर जिले में 1710 आंगनबाड़ी केन्द्र हैं।
रचना - 1710 आंगनबाड़ी केन्द्र!
दीदी - हाँ और सब जगह मेरी तरह आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं और तुम जानती हो कि हम रोज शाम को कई घरों का दौरा करते हैं। वहाँ तुम्हारे नये गाँव में भी आंगनबाड़ी कार्यकर्ता तुम्हारे घर पहुँचेंगी तो तुम्हारी उनसे मुलाकात
हो जायेगी।
रचना - हाँ, लेकिन...
दीदी - अब लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। सब ठीक रहेगा। तू बिल्कुल चिंता मत कर - हाँ बस तुम बच्चे के लिये जल्दी मत करना। चाची की बातें इस कान से सुन उस कान से निकाल देना।
रचना - पर दीदी ये तो भगवान के हाथ में है। अपनी मर्जी से थोड़े ही कुछ होता है।
दीदी - सब कुछ अपनी मर्जी पर ही निर्भर करता है। बच्चा न चाहो या दो बच्चों में लंबा अंतराल चाहो तो कई तरीके हैं, जिनसे ये सब हो सकता है।
रचना - ऐसा दीदी!
दीदी - हाँ ये समझ लो कि स्थायी या अस्थायी तरीके होते हैं गर्भ न धारण करने के लिये। स्थायी में एक छोटा सा ऑपरेशन करवा कर गर्भधारण को हमेशा के लिये रोका जा सकता है और ये ऑपरेशन पुरुष और स्त्री दोनों
करवा सकते हैं। पर ये 2 बच्चे हो जाने के बाद ही करवाया जाता है तुम्हारे लिये अस्थायी तरीके ही ठीक रहेंगे।
रचना - ये क्या क्या होते है?
दीदी - जैसे लूप या गर्भ निरोधक गोलियाँ, जिनसे जब तक बच्चा ना चाहो तब तक प्रयोग में लाते हैं और कंडोम जिसे पुरुष द्वारा प्रयोग किया जाता है, जो शुक्राणुओं को गर्भ में प्रवेश ही नहीं करने देता। साथ ही इससे गुप्त
रोग, एड्स आदि से भी बचाव होता है।
रचना - बाबा रे बाबा मुझे तो ये सब पता ही नहीं था।....पर दीदी अगर मेरे वो माने पति ये सब न चाहे तो...
दीदी - तुम समझाना। तुम तो समझदार हो। उन्हें बताना कि स्वस्थ बच्चों के लिये उनमें कुछ अंतराल कितना जरूरी है। ये अंतराल माँ और बच्चा दोनों को स्वस्थ रखता है।
माँ - लो दीदी चाय लो, बहुत देर बातें कर लीं।
दीदी - इतना सारा नाश्ता...ये तो बहुत ज्यादा है..मैं..
माँ - अरे तेरी रचना की शादी है। तू भी खा और इसे भी खिला। लो चाय लो।(आवाजें..)
और रचना को सब समझा दिया ना।
दीदी - हाँ और वैसे ही रचना बहुत समझदार है। लेकिन तुम रचना मेरी बातों को भूलना मत...बच्चे के लिये जल्दबाजी नहीं। और वहाँ की नर्स दीदी हर हफ्ते किसी दिन आती होंगी, उनसे मिल लेना। बाकी वो सब समझा देंगी। एक बात और सफाई का विशेष ध्यान रखना। क्यों बहन रचना के ससुराल में शौचालय तो है ना...
माँ - हाँ है...इसके पिताजी तो उस घर में ही अपनी लड़की नहीं देते जहाँ शौचालय न हो।
दीदी - ये बढ़िया है...तो रचना कोई और परेशानी तो नहीं।
रचना - नहीं दीदी।
माँ - अब मैं तो बेटी ये सब कुछ नहीं समझती, लेकिन तू अपनी दीदी की बातें अच्छे से समझ ले। ये जो भी बतायेंगी तेरे फायदे के लिये ही बतायेंगी।
दीदी - अब मैं चलूँ।
माँ - कहाँ चली अभी मगरोहन, मंडपाच्छादन, दौतेला, हरदियाही, चीकट सब होना है। तुझे इन सबमें शामिल होना है, तू यहीं रुक।
दीदी - अभी बहुत सारे काम हैं। रामजी लाल के यहाँ छोटे वाले लड़के की बहू आई है। थोड़ा उससे मिल लूँ। उसे भी बहुत कुछ समझाना है, पूछना है। बाद में जरूर आऊँगी। एक ना एक कार्यक्रम में रहूँगी।
माँ - ठीक है, अब काम है तो जाओ। लेकिन रचना की बिदाई से पहले आना जरूर।
(शहनाई....., मंत्रोच्चार आदि की आवाजें)
(बाबुल की दुआएँ लेती जा...गाना पार्श्व में)
माँ......रोना
बाबूजी........बेटा.....
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सास - आ बहू इस कटोरे को पाँव से गिरा दे। (आवाज)
बहुत अच्छा......अब अंदर आ....लो भई लक्ष्मी घर में आ गई। बहू जितने भी रिश्तेदार हैं सबके पैर छू और आशीर्वाद
ले। मैं साथ चलती हूँ, तुझे बताती रहूँगी किस किसके पैर छूने हैं....आ चल....ये ये...तेरी चचेरी सास है...पैर छू और ....ये मेरी ननद और .....ये मेरी छोटी बहन ...ये......
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(चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो गाना पार्श्व में)
(दरवाजा बंद होने की आवाज)
पति - उह...हूँ... रचना ऐ रचना
रचना - जी
पति - तुम...तुम खुश हो शादी से।
रचना - जी
पति - मैं पसंद हूँ तुम्हें।
रचना - जी
पति - तो चलो अपना चाँद सा चेहरा हमें भी दिखा दो।
रचना - जी
पति - अच्छा पहले एक बात बताओ।
रचना - जी
पति - तुम्हें जी जी के अलावा कुछ और भी कहना आता है?
रचना - जी...जी हाँ..मतलब...
पति - (हँसता है) रचना देखो अब हमें जिंदगी भर एक दूसरे का साथ निभाना है। आं...लाओ अपना हाथ दो...हाँ....तो...
मेरा तुमसे वादा है कैसी भी परेशानी हो तुम्हें मैं जीवन में कोई कष्ट नहीं होने दूंगा। आज से मेरे सारे सुख
तुम्हारे और तुम्हारे सारे दुख मेरे।
रचना - ऐ..ऐसा क्यों कहते है....जब आप मेरे साथ हैं तो मुझे काहे का दुख।
पति - बस मुझे यही विश्वास तुमसे चाहिये। देखो रचना, हम बहुत पैसे वाले नहीं हैं, थोड़ी बहुत खेती है और मैं
बिलासपुर जाकर काम करता हूँ। पिताजी का देहांत तब हो गया था जब मैं छोटा था। उसके बाद पढ़ाई के
साथ साथ घर की देखभाल भी करता आया हूँ। लेकिन तुम्हें किसी बात की कोई कमी नहीं होने दूंगा। ये...येकृ
एक अंगूठी तुम्हारे लिये लाया हूँ...पहना दूं।
रचना - जी
पति - अब जरा घूंघट तो हटा दो।
रचना - जी
पति - हर आँख अश्कबार है, हर सांस बेकरार है तेरे बगैर अब जिंदगी, उजड़ी हुई बहार है।
रचना - आप..आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ।
पति - बिल्कुल कहो..मैं काहे बुरा मानूंगा।
रचना - वो...वो...
पति - कहो ना...बेहिचक कहो, आखिर अब हम पति-पत्नी हैं।
रचना - जी ..वो
पति - वैसे तुम लजाती हो तो और सुंदर लगती हो।
रचना - जी
पति - फिर जी..अरे जी जी ही करती रहोगी तो जो कुछ बोलना चाहती हो वो कैसे बोलोगी।
रचना - वो हम...हम लोग अगर बच्चे की जल्दी न करें तो......आप बुरा मान गये।
पति - हा..हा..हा..बुरा! मैं तो बहुत खुश हूँ कि मुझे इतनी समझदार पत्नी मिली है। जानती हो रचना मैं खुद स्वास्थ्य केन्द्र गया था और बर्थ स्पेसिंग याने बच्चों में अंतर आदि के बारे में सारी जानकारी और उसके उपाय सब समझे हैं मैंने। तुम बिल्कुल चिंता मत करो। अभी एक साल तक तो बच्चे के बारे में सोचना भी नहीं है और फिर
बरसात के बाद हमें घूमने चलना है।
रचना - कहाँ-कहाँ जायेंगे।
पति - हरिद्वार।
रचना - हरिद्वार?
पति - हाँ, असल में माँ जाना चाहती है। वहाँ माँ को किसी अच्छी जगह ठहराकर अपन घूमने चले चलेंगे।
रचना - कहाँ?
पति - जहाँ तुम चाहो...और और अब तो घूंघट पूरा हटा दो...उफ्...चौदहवीं का चाँद भी रश्क करता होगा तुम्हारी खूबसूरती से। मचलते हुए दिल की धड़कन ने सुलझे जो काजल से छूटे तो आंचल से उलझे ....(फेड आउट)
Thursday, October 7, 2010
रेडियो धारावाहिक रचना-1
‘रचना’ लिब्रा मीडिया ग्रुप द्वारा निर्मित एक ऐसा धारावाहिक था जिसके हर एपिसोड के प्रथम भाग में एक पारिवारिक ड्रामा था। इसको एक कहानी के रूप में प्रस्तुत किया गया था ‘रचना’ नामक लड़की की कहानी उसकी किशोरावस्था से लेकर उसके बच्चे के अन्नप्राशन तक धारावाहिक के रूप में प्रस्तुत की जायेगी। इस कहानी में अधिक से अधिक संदेश एवं जानकारियाँ देने का प्रयास किया गया था।
प्रथम भाग की मुख्य पात्र रचना के अलावा एपिसोड में दो महिला कंपीयर्स थीं, जो इस कहानी से मिलने वाले संदेशों के अलावा अन्य जानकारियाँ तो देती ही थीं, साथ ही कार्यक्रम को जोड़कर रखने का काम करती थीं। एपिसोड के दूसरे भाग में किसी डॉक्टर या रिसोर्स पर्सन से उस विषय पर, समस्याओं पर बातचीत की जाती थी।
हम इस धारावाहिक में से 9 कड़ियों के सिर्फ पहले भाग को ही आपके लिये पॉडकास्ट बनाकर सुनवाने के लिये लाए हैं। नाटक के रूप में यह प्रस्तुतियाँ संदेशात्मक भी हैं। आपको कैसी लगीं हमें जरूर बताइये।
धारावाहिक रचना की नौ कड़ियाँ इस प्रकार थीं -
1. किशोरावस्था
2. शादी की उम्र
3. गर्भावस्था के शुरूवाती 6 महीने
4. गर्भावस्था के अंतिम 3 महीने
5. प्रसव
6. 1 माह
7. 2-6 माह
8. अन्नप्राशन
9. संक्षिप्तिका
केयर इंडिया छत्तीसगढ़ के लिये निर्मित
प्रजनन एवं शिशु स्वास्थ्य, मातृत्व कल्याण एवं पोषण पर आधारित
आकाशवाणी बिलासपुर से प्रसारित रेडियो धारावाहिक
रचना नाटिका
(9 कड़ियाँ)
प्रसारण जून-जुलाई 2006
आलेख डॉ.राजेश टंडन
निर्माण - लिब्रा मीडिया ग्रुप
प्रथम एपिसोड पॉडकास्ट
किशोरावस्था
प्रथम एपिसोड आलेख
किशोरावस्था
माँ - क्यों रचना, ये चुन्नी में क्या बांध रख है तूने और तू आ कहाँ से रही है? ये...ये चोट कोहनी में कैसे
लगी?
रचना - आम हैं माँ, कच्चे आम। वो गंगू चाचा की बाड़ी में इत्ते आम लगे हैं, इत्ते आम लगे हैं, एक पत्थर
मारो, चार
गिरते हैं...खूब सारे आम तोड़े।
माँ - तू अकेले गंगू की बाड़ी में आम....
रचना - अकेले नहीं माँ रामू था...घासी था...जमना थी...शांति थी...फजल और सुरेश और राधे भी था। सबको 7-7 आम दे
दिये। बस राधे को आम नहीं मिले। बस राधे को नहीं दिये।
माँ - क्यों ? राधे को आम क्यों नहीं दिये।
मुनिया - वो गंगू चाचा की बाड़ी में कान पकड़ कर उठक बैठक कर रहा है ना।
माँ - कान पकड़ कर उठक-बैठक!
मुनिया - हाँ भागते समय वो पकड़ा गया था ना। गंगू चाचा ने उसे एक थप्पड़ मारा ...और...और ..वो आएगा तो उसे
उसके हिस्से के आम दम दूंगी...एक ज्यादा दे दूंगी।
माँ - कितनी बार समझाया है तुझे रचना, तू बड़ी हो गई है। छोटे बच्चों के साथ ऊधम करना छोड़ दे। जब देखो
दौड़ भाग करती रहती है। अरी घर के काम काज में ध्यान दे, रसोई संभाल, सिलाई कड़ाई सीख, बाकी काम सीख।
रचना - आता तो है, सब आता है- खाना बनाना, बड़ी बनाना, चाय बनाना, थोड़ी सिलाई भी.....
दादी - पर इतना काफी नहीं है घर संभालने के लिये। बहुत सारे काम आने चाहिये। तेरी उम्र में तो मैं सब सीख चुकी
थी।
रचना - पर दादी मुझे पढ़ना भी तो पड़ता है।
दादी - तो छोड़ दे पढ़ाई-लिखाई। कौन मार तुझे आगे किसी की नौकरी करनी है। ये काम चरनू के लिये छोड़ दे।
रचना - भैया पढ़ेगा! उसका मन भी लगता है पढ़ने लिखने में। पढ़ाई-लिखाई तो मैं नहीं छोड़ँूगी। देखना भैया से ज्यादा
पढ़ूँगी मैं।
माँ - ठीक तो कह रही है तेरी दादी, मैं खुद चौथी पास हूँ। आगे नहीं पढ़ी...लो रेखा मितानिन आ गई।
दादी - रे मितानिन तू ही रचना को समझा, बेकार पढ़ाई लिखाई में समय खराब कर रही हे। अरे मैं तो बिल्कुल नहीं
पढ़ी, इसकी माँ भी चौथी के बाद नहीं पढ़ी तो हमारा क्या बिगड़ गया और पढ़ लिख लेगी तो इसका क्या बन
पायेगा।
मितानिन - और अगर पढ़ लिख लेगी तो आपका क्या बिगड़ जायेगा।
दादी - हैं.....वो..अब...वो हम लोगों में लड़की को ज्यादा पढ़ा लिखा अच्छा नहीं मानते, वो फिर शादी में..
मितानिन - शादी में क्या...अरे अगर अच्छा पढ़ लिख लेगी तो अच्छा पढ़ा लिखा पति मिलेगा इसे। जहाँ जायेगी वहाँ सम्मान
पायेगी। इच्छा हो या जरूरत हो तो अच्छी नौकरी पा जायेगी। आज की दुनिया में शिक्षा बहुत जरूरी है माँजी।
माँ - पर हमारे समय में....
मितानिन - आप का समय अलग था, आज का अलग है। आज जिंदगी बहुत तेज रफ्तार है, जो पिछड़ा, उसके सारे रास्ते
बंद। इसीलिये माँ जी रचना को पढ़ने दो।
रचना - मैं तो पढूँगी, मैंने बोल दिया बस......
दादी - मुझे तो ये सब समझ में नहीं आता, जो जी में आये सो करो।
मितानिन - अरे तू कहाँ चली रचना?
रचना - राधे को आम देने ..वो अब तक छूट गया होगा।
मितानिन - बहुत चंचल है अपनी रचना।
माँ - यही तो परेशानी है मितानिन दीदी। बड़ी हो गई है रचना लंब तड़ंग, पर बचपना नहीं गया है उसका। जब देखो
भाग दौड़, लड़कों के साथ भी खेलती है और स्कूल में भी मुझे...मुझे तो डर लगता है कहीं कोई ऊँच नीच न
हो जाये।
(चाची का आगमन)
चाची - क्या ऊँच नीच बहू।
माँ, मितानिन - नमस्ते चाची
चाची - नमस्ते, नमस्ते। कोई गंभीर विषय पर बात चल रही है शायद। मैं गलत वक्त पर तो नहीं आई।
मितानिन - नहीं चाची, ऐसी बात नहीं है, वो रचना की बात चल रही थी....तो माँ जी ऐसे घबराने की बात नहीं है। स्कूल में
तो सभी गुरूजी-बहनजी बच्चों का ख्याल रखते ही हैं। लड़कियों की फीस माफ है। किताबें कापियाँ अलग
मिलती हैं। लड़के लड़कियों की बहुत सी व्यवस्थायें अलग अलग हैं और अब तो स्कूलों में पक्के शौचलय भी बन
गये हैं। रही बात उसकी लापरवाही, बचपना, लड़कपन की तो मैं उससे खुद बात करूँगी, उसे समझाऊँगी। आप
निश्चिंत रहें। और हाँ अब मैं चलूँ वैसे ही बहुत देर हो गई है। बच्चों को बुलाया था, सब इंतजार कर रहे होंगे।
अच्छा नमस्ते।
दादी - अरे कहाँ चली मैं तो चाय लाई थी तुम्हारे लिये और यदि चाची तुम ...तुम कब आईं।
चाची - आप मुझे चाची मत कहिये, आप तो मुझसे बड़ी है।
दादी - अरे तुझसे बड़ा यहाँ कोई नहीं है। तू तो जगत चाची है और मितानिन चाय पी फिर जाना।
मितानिन - नहीं माँ जी । आज जाने दीजिये। वैसे ही काफी देर हो गई है। चाय फिर कभी....मैं चलूँ।
चाची - माँ जी चाय का अब क्या करोगी?
दादी - क्यों तू क्या करेगी। तेरे मुँह में तो तंबाखू भरा है।
चाची - तंबाखू को मुँह में एक तरफ कर दूसरी तरफ से चाय पी लूँगी।
दादी - तो तुम ही पियो चाची।
चाची - फिर चाची। आप मुझे चाची मत कहा करिये। मैं तो आपसे छोटी हूँ।
दादी - तू कहाँ की छोटी। सारी दुनिया तुझसे छोटी है चाची।
चाची - फिर चाची
दादी - मैं तो चली। बहुत सारे काम हैं।
चाची - ठीक है माँ जी आप आराम करिये।
दादी - मैंने कब कहा आराम करने जा रही हूँ। मैंने कहा कि काम करना है।
चाची - तो फिर वही करिये। मैं बहू रानी के साथ थोड़ा बतिया लूँ।
दादी - एक बात सुन ले, मेरी बहू से उल्टी सीधी बात नहीं करना बताए देती हूँ।
चाची - अरे मैं तो बस यूँ ही टाइम पास के लिये आई हूँ, आप बेकार में डरती हैं माँ जी।
दादी - तुझसे तो दुनिया डरती है चाची।
चाची - हुँह......हाँ बहू माँ जी गईं। बोलती हैं काम है। काम नहीं आराम करना होगा। ये सारी सो एक जैसी होती हैं। ...
खैर तू ये बता वो कमला मितानिन क्या पट्टी पढा़ रही थी तुझे।...हैं...
माँ - अरे कुछ नहीं चाची, मैं थोड़ा रचना को लेकर परेशान थी..सयानी हो रही है, पर बचपना नहीं गया उसका। कभी
ृ किसी बाड़ी से आम तोड़ती है तो कभी किसी की भी साइकिल उठा तीन सवारी पूरे गाँव भर घूमती है। हर
समय भाग दौड़, खेलना कूदना। समझ में नहीं आता क्या करूँ। मितानिन दीदी बोली हैं कि चिन्ता ना करूँ, वो
खुद रचना से बात करेंगी।
चाची - और वो दूसरी बात क्या हो रही थी।
माँ - कौन सी दूसरी बात?
चाची - जब मैं आई थी तो कुछ ऊँच-नीच वाली बात चल रही थी। क्या बात थी।
माँ - अरे वो मैं अपनी चिंता बता रही थी कमला मितानिन को कि रचना बड़ी हो रही है इतनी देर तक घर से बाहर
स्कूल में रहना, फिर सारे दिन खेलना।
चाची - बिल्कुल सही चिंता है तेरी। चिंता की बात तो है ही ये और इसमें मितानिन क्या कर लेगी। तुझे तो कोई कठोर
कदम उठाना चाहिये। सही है अगर कुछ ऊँच-नीच हो गई तो गाँव हँसेगा। तू कहीं मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहेगी। बिल्कुल सही चिंता कर रही हो तुमं।
माँ - ऐसा!
चाची - हाँ, और मैं बताऊँ मुझे तो रचना का पढ़ना, बच्चों के साथ खेलना....और अब वो बच्चे कहाँ रहे सब बड़े हो रहे
हैं...मुझे तो ये सब जरा भी पसंद नहीं है। और बुरा मत मानना बहू तुम्हें अपना मानती हूँ इसलिये कह दे रही हूँ
ये रचना के रंग ढंग भी ठीक नहीं लगते। इतनी बड़ी हो गई है, सब जानती है, समझती है फिर भी इस प्रकार
कभी भी किसी के साथ कहीं भी चले जाना, भले ही खेलने के लिये ...भई ये ठीक नहीं है। मैं तो कई दिनों से
ताक में थी कि तुझे समझाऊँ, पर तेरी सास तुझे छोड़े तब ना।
माँ - तो चाची मैं क्या करूँ?
चाची - मेरी मान तो कोई अच्छा सा लड़का ढूँढ और रचना को ब्याह दे।
माँ - पर वो अभी 18 की कहाँ हुई है।
चाची - क्यांे क्या कसम खाए बैठी है कि रचना जब 18 की होगी तब ही उसकी शादी करूँगी।
माँ - पर सरपंच कह रही थी उस दिन कि बिटिया की शादी 18 के पहले करना कानूनन अपराध है।
चाची - अपराध है..हुँह..जा जाके सरपंच से पूछ कि जब उसकी शादी हुई थी तो वो कितने साल की थी और तू...तू..
कितने साल की थी जब तेरी शादी हुई थी।
माँ - मगर वो पुराना जमाना था...
चाची - अरी नया पुराना कुछ नहीं होता। जैसे हो लड़का मिले ठीक ठाक तो उसकी शादी निपटा दे..इंतजार किया तो
बाद में पछताना पड़ सकता है। मैं तो कहती हूँ लड़की जैसे ही बड़ी हो दूसरों के मत्थे डाल दो -आजकल
रिस्क लेना बेकार है। ससुराल वाले जानें, समझें।
माँ - पर इतनी जल्दी लड़का ढूँढना...
चाची - अरे लड़का है, मेरे जेठ के साले का लड़का। लड़का अच्छा है, नवमीं पास है। दसवीं में फेल हो गया था। पर
कुलीन है, अच्छा खाता पीता परिवार है। बोलेगी तो दहेज में डिस्काउंट करवा दूंगी। मेरी उन लोगों से अच्छी
जमती है।
माँ - मैं रचना के पिताजी से बात करती हूँ।
चाची - बात क्या करना तू तो जिद पर अड़ जाना। मरद औरत की जिद से हारता ही है।
दादी की आवाज - बहू ...बहू...जरा सुनना....
चाची - मैं अब चलती हूँ, लेकिन मेरी बात को समझना। रचना तेरी ही नहीं मेरी भी बेटी है। मुझे भी उसकी चिंता है।
मैं भी उसके भले के लिये ही सोचती हूँ। तू अब जा नहीं तो तेरी सास तेरा......
माँ - नहीं मेरी सास ऐसी नहीं है।
चाची - तो हो जायेगी..सभी सास एक समान होती हैं।....मैं चलूँ
- - - - - -
रचना का पिता - उफ् क्या गरमी है। इस साल तो गर्मी ने हलकान कर दिया। ऊपर से शादियों का मौसम। कल
रामप्रसाद की बेटी की शादी में कोरबा जाना है और नरसों अपने पीताम्बर की बेटी सरला की शादी में भाटापारा। कैसे जाना होगा। गर्मी इतनी पड़ रही है कि रह रह कर गला सूखता है।
माँ - सरला की उम्र कितनी होगी?
पिता - पता नहीं पर सयानी हो गई है।
माँ - सयानी तो अपनी रचना भी हो गई है।
पिता - रचना कहाँ सयानी हो गई है। बच्ची है अभी तो...अभी...लेकिन तुम ऐसा क्यों कह रही हो।
माँ - सब बोलते हैं
पिता - कौन बोलता है?
माँ - रचना अब बड़ी हो गई है हमें भी अब उसके बारे में सोचना चाहिये। उम्र निकल गई तो बाद में परेशानी होगी।
पिता - उम्र निकल गई तो.....अरे अभी तो उसकी उम्र आई ही नहीं है उसकी। खेलने कूदने के दिन हैं रचना के। अभी
2-4 साल तो उसकी शादी के बारे में सोचना भी मत। उसे खेलने दे पढ़ने दे।
माँ - (गुस्से से) खेलने दे... पढ़ने दे, खेलने दे..... पढ़ने दे...सुनते सुनते कान पक गये हैं मेरे। आखिर कब तक खेलती
और पढ़ती रहेगी वो। दुनिया भर को चिंता है उसकी और आप...
पिता - तुम तो बड़ी गंभीर हो गई...हैं...और तुम किसके बारे में कह रही थीं कि उसे रचना की चंता है.....अच्छा वो चाची
आई थीं क्या?
माँ - कोई भी आया हो आपको क्या..आप बस अच्छा सा लड़का देखिये और रचना का ब्याह करिये।
पिता - एक तो इतनी जल्दी 18 साल के पहले रचना का ब्याह नहीं करूँगा। दूसरा थोड़ी देर के लिये मान लिया कि
उसका ब्याह इसी साल कर दूँगा तो लड़के क्या बाजार में सजे-सजाए मिलते हैं और खर्चे वगैरह का इंतजाम...
माँ - वो चाची का एक दूर का रिश्तेदार है। अच्छा खाता पीता परिवार है। लड़का सुंदर है और दहेज में वो
डिस्काउंट भी करवा देंगी।
पिता - तो ये सब चाची का भरा हुआ है। उसको तो मैं.....
माँ - उनको गाली मत दीजियेगा। वो बोल रही थीं उन्हें भी रचना की फिकर है। रचना उनके लिये बेटी जैसी है।
पिता - लो माँ आ गईं - माँ जी तुम ही इसे समझाओ। चाची ने तो...
दादी - मैंने सब सुन लिया है। बहू तुम्हें कई दफे मैंने कहा है चाची की बात पर ध्यान न दिया कर, दिन भर
तंबाखू-गुड़ाखू से फुरसत नहीं है उसको। तू तो समझदार है। अभी रचना की उम्र शादी के लायक नहीं है।
माँ - क्या फर्क पड़ जायेगा माँ। कल हो या आज हो शादी तो उसकी करनी ही है, तो देर क्यों करें।
दादी - अरे बहू जो गलती हमारे माँ बाप ने की वो हम तुम क्यों करें। वो भी इस बात को समझते तो आज मेरे दो बेटे
और एक बेटी और होती।
माँ - घर में जवान होती लड़की बहुत बड़ा भार होती है माँ।
दादी - लड़की कहाँ भार होती है माँ, वो तो अपने कंधों पर पूरे घर का भार उठा लेती है। अगर अभी उसकी शादी कर
दोगे, तो सबसे पहले तो उसकी पढ़ाई का नुकसान फिर स्वास्थ्य केन्द्र में नर्स दीदी बता रही थीं कि 18 साल
से पहले लड़की का शरीर इस लायक नहीं होता कि वो बच्चे को संभाल सके। बच्चा भी कमजोर और कुपोषण
का शिकार होगा। माँ में खून की कमी हो जायेगी।
पिता - तेरे से सौ बार कहा है कि मंगलवार को आंगनबाड़ी चली जाया कर, कुछ सीखेगी। कम से स्वास्थ्य शिविर में
तो जाया कर, जहाँ ये सब बातें तुम्हारी नर्स दीदी रेखा हमेशा बताती हैं।
दादी - अब मुझसे पूछो मैं सब जानती हूँ। आंगनबाड़ी में गर्भवती महिलाएँ, धात्री महिलाएँ, पैदा हुये बच्चे से लेकर 6
साल तक के बच्चों को पूरक पोषण आहार दिया जाता है, समय-समय पर लगने वाले टीके लगाये जाते हैं,
स्वास्थ्य व पोषण की जानकारी दी जाती है। चाची की गलत-सलत बातें तो तेरे दिमाग में फौरन घुस गईं,
लेकिन ये सब जरूरी बातें तुझे पता ही नहीं हैं। अरे हाँ...किशोरी बालिकाओं के लिये भी आंगनबाड़ी में कुछ
योजनाएँ चलती हैं। उनको कुछ.... आयरन की गोलियाँ...और पोषण आहार के साथ-साथ स्वास्थ्य शिक्षा भी दी
जाती है। तू नहीं जाती तो कल से रचना को तो वहाँ ले जा।
माँ - ठीक कहती हैं माँ जी आप। पहले रचना शारीरिक रूप से तैयार हो, उसे सारी जानकारियाँ हों, तभी हमें
उसकी शादी की बात सोचनी चाहिये।
पिता - चल तुझे कुछ समझ में तो आया।
रचना - माँ...माँ...माँ....
माँ - क्या हुआ?
रचना - गंगू चाचा ने अबकी बार फिरतू को पकड़ लिया।
माँ - क्यों?
रचना - वो धीरे भागता है ना इसलिये, पोलियो है ना उसको।
पिता - अब सुन ले फिरतू के घर वालों ने ध्यान नहीं दिया था, समय पर पोलियो की दवा नहीं पिलायी थी, बेचारा
जिंदगी भर को ऐसा होकर रह गया। माँ बाप को हर मामले में तो बच्चों का ध्यान रखना पड़ता है।
माँ - सही है। अब मैं तेरा क्या ध्यान रखूँ रचना। तुझे तो पकड़ कर पीटना चाहिये तू फिर गंगू चाचा के यहाँ आम
तोड़ने गई थी।
रचना - नहीं माँ..इमली। अबकी बार इमली तोड़ने गये थे।
(संगीत)
|
हम इस धारावाहिक में से 9 कड़ियों के सिर्फ पहले भाग को ही आपके लिये पॉडकास्ट बनाकर सुनवाने के लिये लाए हैं। नाटक के रूप में यह प्रस्तुतियाँ संदेशात्मक भी हैं। आपको कैसी लगीं हमें जरूर बताइये।
धारावाहिक रचना की नौ कड़ियाँ इस प्रकार थीं -
1. किशोरावस्था
2. शादी की उम्र
3. गर्भावस्था के शुरूवाती 6 महीने
4. गर्भावस्था के अंतिम 3 महीने
5. प्रसव
6. 1 माह
7. 2-6 माह
8. अन्नप्राशन
9. संक्षिप्तिका
केयर इंडिया छत्तीसगढ़ के लिये निर्मित
प्रजनन एवं शिशु स्वास्थ्य, मातृत्व कल्याण एवं पोषण पर आधारित
आकाशवाणी बिलासपुर से प्रसारित रेडियो धारावाहिक
रचना नाटिका
(9 कड़ियाँ)
प्रसारण जून-जुलाई 2006
आलेख डॉ.राजेश टंडन
निर्माण - लिब्रा मीडिया ग्रुप
प्रथम एपिसोड पॉडकास्ट
किशोरावस्था
|
प्रथम एपिसोड आलेख
किशोरावस्था
माँ - क्यों रचना, ये चुन्नी में क्या बांध रख है तूने और तू आ कहाँ से रही है? ये...ये चोट कोहनी में कैसे
लगी?
रचना - आम हैं माँ, कच्चे आम। वो गंगू चाचा की बाड़ी में इत्ते आम लगे हैं, इत्ते आम लगे हैं, एक पत्थर
मारो, चार
गिरते हैं...खूब सारे आम तोड़े।
माँ - तू अकेले गंगू की बाड़ी में आम....
रचना - अकेले नहीं माँ रामू था...घासी था...जमना थी...शांति थी...फजल और सुरेश और राधे भी था। सबको 7-7 आम दे
दिये। बस राधे को आम नहीं मिले। बस राधे को नहीं दिये।
माँ - क्यों ? राधे को आम क्यों नहीं दिये।
मुनिया - वो गंगू चाचा की बाड़ी में कान पकड़ कर उठक बैठक कर रहा है ना।
माँ - कान पकड़ कर उठक-बैठक!
मुनिया - हाँ भागते समय वो पकड़ा गया था ना। गंगू चाचा ने उसे एक थप्पड़ मारा ...और...और ..वो आएगा तो उसे
उसके हिस्से के आम दम दूंगी...एक ज्यादा दे दूंगी।
माँ - कितनी बार समझाया है तुझे रचना, तू बड़ी हो गई है। छोटे बच्चों के साथ ऊधम करना छोड़ दे। जब देखो
दौड़ भाग करती रहती है। अरी घर के काम काज में ध्यान दे, रसोई संभाल, सिलाई कड़ाई सीख, बाकी काम सीख।
रचना - आता तो है, सब आता है- खाना बनाना, बड़ी बनाना, चाय बनाना, थोड़ी सिलाई भी.....
दादी - पर इतना काफी नहीं है घर संभालने के लिये। बहुत सारे काम आने चाहिये। तेरी उम्र में तो मैं सब सीख चुकी
थी।
रचना - पर दादी मुझे पढ़ना भी तो पड़ता है।
दादी - तो छोड़ दे पढ़ाई-लिखाई। कौन मार तुझे आगे किसी की नौकरी करनी है। ये काम चरनू के लिये छोड़ दे।
रचना - भैया पढ़ेगा! उसका मन भी लगता है पढ़ने लिखने में। पढ़ाई-लिखाई तो मैं नहीं छोड़ँूगी। देखना भैया से ज्यादा
पढ़ूँगी मैं।
माँ - ठीक तो कह रही है तेरी दादी, मैं खुद चौथी पास हूँ। आगे नहीं पढ़ी...लो रेखा मितानिन आ गई।
दादी - रे मितानिन तू ही रचना को समझा, बेकार पढ़ाई लिखाई में समय खराब कर रही हे। अरे मैं तो बिल्कुल नहीं
पढ़ी, इसकी माँ भी चौथी के बाद नहीं पढ़ी तो हमारा क्या बिगड़ गया और पढ़ लिख लेगी तो इसका क्या बन
पायेगा।
मितानिन - और अगर पढ़ लिख लेगी तो आपका क्या बिगड़ जायेगा।
दादी - हैं.....वो..अब...वो हम लोगों में लड़की को ज्यादा पढ़ा लिखा अच्छा नहीं मानते, वो फिर शादी में..
मितानिन - शादी में क्या...अरे अगर अच्छा पढ़ लिख लेगी तो अच्छा पढ़ा लिखा पति मिलेगा इसे। जहाँ जायेगी वहाँ सम्मान
पायेगी। इच्छा हो या जरूरत हो तो अच्छी नौकरी पा जायेगी। आज की दुनिया में शिक्षा बहुत जरूरी है माँजी।
माँ - पर हमारे समय में....
मितानिन - आप का समय अलग था, आज का अलग है। आज जिंदगी बहुत तेज रफ्तार है, जो पिछड़ा, उसके सारे रास्ते
बंद। इसीलिये माँ जी रचना को पढ़ने दो।
रचना - मैं तो पढूँगी, मैंने बोल दिया बस......
दादी - मुझे तो ये सब समझ में नहीं आता, जो जी में आये सो करो।
मितानिन - अरे तू कहाँ चली रचना?
रचना - राधे को आम देने ..वो अब तक छूट गया होगा।
मितानिन - बहुत चंचल है अपनी रचना।
माँ - यही तो परेशानी है मितानिन दीदी। बड़ी हो गई है रचना लंब तड़ंग, पर बचपना नहीं गया है उसका। जब देखो
भाग दौड़, लड़कों के साथ भी खेलती है और स्कूल में भी मुझे...मुझे तो डर लगता है कहीं कोई ऊँच नीच न
हो जाये।
(चाची का आगमन)
चाची - क्या ऊँच नीच बहू।
माँ, मितानिन - नमस्ते चाची
चाची - नमस्ते, नमस्ते। कोई गंभीर विषय पर बात चल रही है शायद। मैं गलत वक्त पर तो नहीं आई।
मितानिन - नहीं चाची, ऐसी बात नहीं है, वो रचना की बात चल रही थी....तो माँ जी ऐसे घबराने की बात नहीं है। स्कूल में
तो सभी गुरूजी-बहनजी बच्चों का ख्याल रखते ही हैं। लड़कियों की फीस माफ है। किताबें कापियाँ अलग
मिलती हैं। लड़के लड़कियों की बहुत सी व्यवस्थायें अलग अलग हैं और अब तो स्कूलों में पक्के शौचलय भी बन
गये हैं। रही बात उसकी लापरवाही, बचपना, लड़कपन की तो मैं उससे खुद बात करूँगी, उसे समझाऊँगी। आप
निश्चिंत रहें। और हाँ अब मैं चलूँ वैसे ही बहुत देर हो गई है। बच्चों को बुलाया था, सब इंतजार कर रहे होंगे।
अच्छा नमस्ते।
दादी - अरे कहाँ चली मैं तो चाय लाई थी तुम्हारे लिये और यदि चाची तुम ...तुम कब आईं।
चाची - आप मुझे चाची मत कहिये, आप तो मुझसे बड़ी है।
दादी - अरे तुझसे बड़ा यहाँ कोई नहीं है। तू तो जगत चाची है और मितानिन चाय पी फिर जाना।
मितानिन - नहीं माँ जी । आज जाने दीजिये। वैसे ही काफी देर हो गई है। चाय फिर कभी....मैं चलूँ।
चाची - माँ जी चाय का अब क्या करोगी?
दादी - क्यों तू क्या करेगी। तेरे मुँह में तो तंबाखू भरा है।
चाची - तंबाखू को मुँह में एक तरफ कर दूसरी तरफ से चाय पी लूँगी।
दादी - तो तुम ही पियो चाची।
चाची - फिर चाची। आप मुझे चाची मत कहा करिये। मैं तो आपसे छोटी हूँ।
दादी - तू कहाँ की छोटी। सारी दुनिया तुझसे छोटी है चाची।
चाची - फिर चाची
दादी - मैं तो चली। बहुत सारे काम हैं।
चाची - ठीक है माँ जी आप आराम करिये।
दादी - मैंने कब कहा आराम करने जा रही हूँ। मैंने कहा कि काम करना है।
चाची - तो फिर वही करिये। मैं बहू रानी के साथ थोड़ा बतिया लूँ।
दादी - एक बात सुन ले, मेरी बहू से उल्टी सीधी बात नहीं करना बताए देती हूँ।
चाची - अरे मैं तो बस यूँ ही टाइम पास के लिये आई हूँ, आप बेकार में डरती हैं माँ जी।
दादी - तुझसे तो दुनिया डरती है चाची।
चाची - हुँह......हाँ बहू माँ जी गईं। बोलती हैं काम है। काम नहीं आराम करना होगा। ये सारी सो एक जैसी होती हैं। ...
खैर तू ये बता वो कमला मितानिन क्या पट्टी पढा़ रही थी तुझे।...हैं...
माँ - अरे कुछ नहीं चाची, मैं थोड़ा रचना को लेकर परेशान थी..सयानी हो रही है, पर बचपना नहीं गया उसका। कभी
ृ किसी बाड़ी से आम तोड़ती है तो कभी किसी की भी साइकिल उठा तीन सवारी पूरे गाँव भर घूमती है। हर
समय भाग दौड़, खेलना कूदना। समझ में नहीं आता क्या करूँ। मितानिन दीदी बोली हैं कि चिन्ता ना करूँ, वो
खुद रचना से बात करेंगी।
चाची - और वो दूसरी बात क्या हो रही थी।
माँ - कौन सी दूसरी बात?
चाची - जब मैं आई थी तो कुछ ऊँच-नीच वाली बात चल रही थी। क्या बात थी।
माँ - अरे वो मैं अपनी चिंता बता रही थी कमला मितानिन को कि रचना बड़ी हो रही है इतनी देर तक घर से बाहर
स्कूल में रहना, फिर सारे दिन खेलना।
चाची - बिल्कुल सही चिंता है तेरी। चिंता की बात तो है ही ये और इसमें मितानिन क्या कर लेगी। तुझे तो कोई कठोर
कदम उठाना चाहिये। सही है अगर कुछ ऊँच-नीच हो गई तो गाँव हँसेगा। तू कहीं मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहेगी। बिल्कुल सही चिंता कर रही हो तुमं।
माँ - ऐसा!
चाची - हाँ, और मैं बताऊँ मुझे तो रचना का पढ़ना, बच्चों के साथ खेलना....और अब वो बच्चे कहाँ रहे सब बड़े हो रहे
हैं...मुझे तो ये सब जरा भी पसंद नहीं है। और बुरा मत मानना बहू तुम्हें अपना मानती हूँ इसलिये कह दे रही हूँ
ये रचना के रंग ढंग भी ठीक नहीं लगते। इतनी बड़ी हो गई है, सब जानती है, समझती है फिर भी इस प्रकार
कभी भी किसी के साथ कहीं भी चले जाना, भले ही खेलने के लिये ...भई ये ठीक नहीं है। मैं तो कई दिनों से
ताक में थी कि तुझे समझाऊँ, पर तेरी सास तुझे छोड़े तब ना।
माँ - तो चाची मैं क्या करूँ?
चाची - मेरी मान तो कोई अच्छा सा लड़का ढूँढ और रचना को ब्याह दे।
माँ - पर वो अभी 18 की कहाँ हुई है।
चाची - क्यांे क्या कसम खाए बैठी है कि रचना जब 18 की होगी तब ही उसकी शादी करूँगी।
माँ - पर सरपंच कह रही थी उस दिन कि बिटिया की शादी 18 के पहले करना कानूनन अपराध है।
चाची - अपराध है..हुँह..जा जाके सरपंच से पूछ कि जब उसकी शादी हुई थी तो वो कितने साल की थी और तू...तू..
कितने साल की थी जब तेरी शादी हुई थी।
माँ - मगर वो पुराना जमाना था...
चाची - अरी नया पुराना कुछ नहीं होता। जैसे हो लड़का मिले ठीक ठाक तो उसकी शादी निपटा दे..इंतजार किया तो
बाद में पछताना पड़ सकता है। मैं तो कहती हूँ लड़की जैसे ही बड़ी हो दूसरों के मत्थे डाल दो -आजकल
रिस्क लेना बेकार है। ससुराल वाले जानें, समझें।
माँ - पर इतनी जल्दी लड़का ढूँढना...
चाची - अरे लड़का है, मेरे जेठ के साले का लड़का। लड़का अच्छा है, नवमीं पास है। दसवीं में फेल हो गया था। पर
कुलीन है, अच्छा खाता पीता परिवार है। बोलेगी तो दहेज में डिस्काउंट करवा दूंगी। मेरी उन लोगों से अच्छी
जमती है।
माँ - मैं रचना के पिताजी से बात करती हूँ।
चाची - बात क्या करना तू तो जिद पर अड़ जाना। मरद औरत की जिद से हारता ही है।
दादी की आवाज - बहू ...बहू...जरा सुनना....
चाची - मैं अब चलती हूँ, लेकिन मेरी बात को समझना। रचना तेरी ही नहीं मेरी भी बेटी है। मुझे भी उसकी चिंता है।
मैं भी उसके भले के लिये ही सोचती हूँ। तू अब जा नहीं तो तेरी सास तेरा......
माँ - नहीं मेरी सास ऐसी नहीं है।
चाची - तो हो जायेगी..सभी सास एक समान होती हैं।....मैं चलूँ
- - - - - -
रचना का पिता - उफ् क्या गरमी है। इस साल तो गर्मी ने हलकान कर दिया। ऊपर से शादियों का मौसम। कल
रामप्रसाद की बेटी की शादी में कोरबा जाना है और नरसों अपने पीताम्बर की बेटी सरला की शादी में भाटापारा। कैसे जाना होगा। गर्मी इतनी पड़ रही है कि रह रह कर गला सूखता है।
माँ - सरला की उम्र कितनी होगी?
पिता - पता नहीं पर सयानी हो गई है।
माँ - सयानी तो अपनी रचना भी हो गई है।
पिता - रचना कहाँ सयानी हो गई है। बच्ची है अभी तो...अभी...लेकिन तुम ऐसा क्यों कह रही हो।
माँ - सब बोलते हैं
पिता - कौन बोलता है?
माँ - रचना अब बड़ी हो गई है हमें भी अब उसके बारे में सोचना चाहिये। उम्र निकल गई तो बाद में परेशानी होगी।
पिता - उम्र निकल गई तो.....अरे अभी तो उसकी उम्र आई ही नहीं है उसकी। खेलने कूदने के दिन हैं रचना के। अभी
2-4 साल तो उसकी शादी के बारे में सोचना भी मत। उसे खेलने दे पढ़ने दे।
माँ - (गुस्से से) खेलने दे... पढ़ने दे, खेलने दे..... पढ़ने दे...सुनते सुनते कान पक गये हैं मेरे। आखिर कब तक खेलती
और पढ़ती रहेगी वो। दुनिया भर को चिंता है उसकी और आप...
पिता - तुम तो बड़ी गंभीर हो गई...हैं...और तुम किसके बारे में कह रही थीं कि उसे रचना की चंता है.....अच्छा वो चाची
आई थीं क्या?
माँ - कोई भी आया हो आपको क्या..आप बस अच्छा सा लड़का देखिये और रचना का ब्याह करिये।
पिता - एक तो इतनी जल्दी 18 साल के पहले रचना का ब्याह नहीं करूँगा। दूसरा थोड़ी देर के लिये मान लिया कि
उसका ब्याह इसी साल कर दूँगा तो लड़के क्या बाजार में सजे-सजाए मिलते हैं और खर्चे वगैरह का इंतजाम...
माँ - वो चाची का एक दूर का रिश्तेदार है। अच्छा खाता पीता परिवार है। लड़का सुंदर है और दहेज में वो
डिस्काउंट भी करवा देंगी।
पिता - तो ये सब चाची का भरा हुआ है। उसको तो मैं.....
माँ - उनको गाली मत दीजियेगा। वो बोल रही थीं उन्हें भी रचना की फिकर है। रचना उनके लिये बेटी जैसी है।
पिता - लो माँ आ गईं - माँ जी तुम ही इसे समझाओ। चाची ने तो...
दादी - मैंने सब सुन लिया है। बहू तुम्हें कई दफे मैंने कहा है चाची की बात पर ध्यान न दिया कर, दिन भर
तंबाखू-गुड़ाखू से फुरसत नहीं है उसको। तू तो समझदार है। अभी रचना की उम्र शादी के लायक नहीं है।
माँ - क्या फर्क पड़ जायेगा माँ। कल हो या आज हो शादी तो उसकी करनी ही है, तो देर क्यों करें।
दादी - अरे बहू जो गलती हमारे माँ बाप ने की वो हम तुम क्यों करें। वो भी इस बात को समझते तो आज मेरे दो बेटे
और एक बेटी और होती।
माँ - घर में जवान होती लड़की बहुत बड़ा भार होती है माँ।
दादी - लड़की कहाँ भार होती है माँ, वो तो अपने कंधों पर पूरे घर का भार उठा लेती है। अगर अभी उसकी शादी कर
दोगे, तो सबसे पहले तो उसकी पढ़ाई का नुकसान फिर स्वास्थ्य केन्द्र में नर्स दीदी बता रही थीं कि 18 साल
से पहले लड़की का शरीर इस लायक नहीं होता कि वो बच्चे को संभाल सके। बच्चा भी कमजोर और कुपोषण
का शिकार होगा। माँ में खून की कमी हो जायेगी।
पिता - तेरे से सौ बार कहा है कि मंगलवार को आंगनबाड़ी चली जाया कर, कुछ सीखेगी। कम से स्वास्थ्य शिविर में
तो जाया कर, जहाँ ये सब बातें तुम्हारी नर्स दीदी रेखा हमेशा बताती हैं।
दादी - अब मुझसे पूछो मैं सब जानती हूँ। आंगनबाड़ी में गर्भवती महिलाएँ, धात्री महिलाएँ, पैदा हुये बच्चे से लेकर 6
साल तक के बच्चों को पूरक पोषण आहार दिया जाता है, समय-समय पर लगने वाले टीके लगाये जाते हैं,
स्वास्थ्य व पोषण की जानकारी दी जाती है। चाची की गलत-सलत बातें तो तेरे दिमाग में फौरन घुस गईं,
लेकिन ये सब जरूरी बातें तुझे पता ही नहीं हैं। अरे हाँ...किशोरी बालिकाओं के लिये भी आंगनबाड़ी में कुछ
योजनाएँ चलती हैं। उनको कुछ.... आयरन की गोलियाँ...और पोषण आहार के साथ-साथ स्वास्थ्य शिक्षा भी दी
जाती है। तू नहीं जाती तो कल से रचना को तो वहाँ ले जा।
माँ - ठीक कहती हैं माँ जी आप। पहले रचना शारीरिक रूप से तैयार हो, उसे सारी जानकारियाँ हों, तभी हमें
उसकी शादी की बात सोचनी चाहिये।
पिता - चल तुझे कुछ समझ में तो आया।
रचना - माँ...माँ...माँ....
माँ - क्या हुआ?
रचना - गंगू चाचा ने अबकी बार फिरतू को पकड़ लिया।
माँ - क्यों?
रचना - वो धीरे भागता है ना इसलिये, पोलियो है ना उसको।
पिता - अब सुन ले फिरतू के घर वालों ने ध्यान नहीं दिया था, समय पर पोलियो की दवा नहीं पिलायी थी, बेचारा
जिंदगी भर को ऐसा होकर रह गया। माँ बाप को हर मामले में तो बच्चों का ध्यान रखना पड़ता है।
माँ - सही है। अब मैं तेरा क्या ध्यान रखूँ रचना। तुझे तो पकड़ कर पीटना चाहिये तू फिर गंगू चाचा के यहाँ आम
तोड़ने गई थी।
रचना - नहीं माँ..इमली। अबकी बार इमली तोड़ने गये थे।
(संगीत)
पॉडकास्टिंग: आवाज का आप तक पहुँचने का ज़रिया
इंटरनेट के आने के बाद से हर चीज आसान हाने लगी है। कुछ वर्ष पहले तक लोग इससे केवल सतही तौर पर जुड़ रहे थे। जरूरत पड़ने पर कंप्यूटर खोलकर अपने काम की चीज देखी और नेट बंद, ठीक वैसे ही जैसे मोबाइल शुरूवात में ऐश्वर्य का साधन बना फिर दिखावे का साधन और अब एक आवश्यकता जिसके बगैर एक दिन भी नहीं कटता।
हम बात कर रहे थे इंटरनेट की। अब लोग इसको ज्यादा समय देने लगे हैं। अपने फज्ञेटोग्राफ्स, लोगों की बातचीत, दुनिया भर की जानकारी के साथ ही अपनी भवनाओं को बाँटने का साधन भी बन चुका है ये इंटरनेट। ब्लॉग लिखना अपनी भावनाओं को दूसरों तक पहुँचाने का एक माध्यम है। अपने वीडियोज़ को दुनिया के दूसरे कोने तक पहुँचाने के लिये यू-ट्यूब जैसे साधन हैं और अपनी आवाज़ के माध्यम से शिक्षा, गीत, कहानी, मन की बातें दूसरों तक पहुँचाने का जरिया तेजी के साथ बढ़ रहा है पॉडकास्टिंग। तो मेरे इस ब्लॉग में शामिल रहा करेगा पॉडकास्ट भी। कुछ दुर्लभ आवाजें भी हम आप तक पहुँचाएँगे इस माध्यम से और कुछ आवाजें होंगी हमारे आपके बीच की आवाजें। कुछ ऑडियो कार्यक्रम जिनका निर्माण हमने किया है वे भी स्क्रिप्ट सहित आपकी स्क्रीन पर होंगे। पहले आवाज़ की दुनिया के सम्मोहन पर कुछ बातें मेरे मन की सुनिये......
आज पहली बार पॉडकास्टिंग के साथ अपने इस ब्लॉग पर प्रयोग करते हुए आपको रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के सेवानिवृत्त प्रोफेसर एवं हमारे प्रेरणास्रोत डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा की एक बहुत पुरानी, दुबली-पतली लेकिन मजबूत कविता ‘लवशाला’ की स्क्रिप्ट और उनकी आज की 76 वर्षीय आवाज में एक बानगी प्रस्तुत कर रहे हैं।
दो शब्द... लेखक के
आपने शालाएँ तो बहुत देखी होंगी, पर 'लवशाला' पहली बार देखिए। इसे मैंने तब लिखा था, जब मुझे लोग 'दादा जी' नहीं कहा करते थे। वे भी क्या दिन थे! अब तो रातें ही रातें हैं! और वह भी जगराते वाली।
पाठकों से आग्रह है कि वे इस 'दांपत्य-मंजूषा' को 'हनुमान चालीसा' के समान पढ़ा करें। उनके सारे संकट दूर हो जाएँगे।
लवशाला
कविता के ऑंचल से लेकर
आसव मृदु वाणी वाला।
भीने भावों के फूलों से
गूँथ रहा हूँ यह माला।
प्यार हृदय का जीवन-धन है,
इसका रंग दिखाने को,
यौवन की फुलवारी-जैसी
खोल रहा हूँ लवशाला।
मद में भीगी रसभरियों से
भरा हुआ है यह प्याला।
गंगा-सी बहती है इसमें
मीठे सपनों की हाला।
दो छोरों का जुड़ना इसमें,
गठबंधन दो कृतियों का,
हर लड़की है राधा इसमें,
हर लड़का मुरलीवाला।
इस मंदिर में प्रिय-प्रियतम के
इठला रही प्रणय-वाला।
अर्पण है हृदयों का इसमें
और दर्द भोला-भाला।
उलटी-सीधी साँसें हैं कुछ,
प्यार-भरी कुछ बातें हैं,
और प्रेमियों के मन का,
इसमें कुछ है हालाचाला।
पुरखों ने भी प्यार किया था
छिप-छिप कर ढीला-ढाला।
पोते-परपोते भी आगे
प्यार करेंगे मतवाला।
हर पीढ़ी में बिकते आए,
मोल बिला ही दिलवाले,
इसमें हैं लखपति वे, जिनके
दिल का निकला दीवाला।
मन के सारे दर्द भुलाना
खूब सिखाती है हाला।
और निराशाओं से पीछा
खूब छुड़ाता है प्याला।
लेकिन सारे दर्द और
सब खोते हुए निराशाएँ,
जीवन भर का साथ निभाना
सिर्फ सिखाती लवशाला।
नर हो, सुर हो या दानव हो,
गोरा हो अथवा काला।
संसारी हो या हो वैरागी,
बहनोई अथवा हो साला।
प्यार सभी के मन का मोती,
धन निर्धन-धनवानों का,
उसके बिना अधूरे सब हैं,
लल्ला, लैला या लाला।
हीरे, मोती, पन्ने, नीलम,
या धन-वैभव की माला।
लेन-देन इनका प्रेमी के
लिए व्यर्थ का घोटाला।
झूठी है हर वस्तु यहाँ की,
अटल सत्य बस एक यही-
चाहे जल-थल-नभ मिट जाएँ,
पर न मिटेगी लवशाला।
प्रेमी एक समाज-सुधारक,
सचमुच कुछ करने वाला।
ऊँच-नीच का, जाति-पाँति का
उसने भेद मिटा डाला।
प्रेम किसी से भी हो, सब ही
उसके लिए बराबर हैं,
नलवाली हो या फलवाली,
या महलोंवाली बाला।
यही निबटना है हम सबको,
हाथ मसलना, यदि टाला।
इस जीवन के बाद वहाँ क्या?
केवल है गड़बड़झाला।
जो कुछ भी मिलना है हमको,
यहीं मिलेगा, यह तय है,
फिर न मिलेंगे ऐसे अवसर,
फिर न मिलेगी लवशाला।
पहले रह कर दूर-दूर ही
दिखता अति भोला-भाला।
फिर धीरे से पास पहुँच कर
करता गड़बड़-घोटाला।
लवशाला के नायक का यह
'प्रोग्राम' निश्चित रहता,
आखिर में वह जीत जाता
तब बन जाता है घरवाला।
स्वर्ग, सुनो क्या है मतवालो?
'प्रिय की बाँहों की माला'।
अपने गले लिपटने पर जो
देती सुख सुरपुर वाला।
आलिंगन की गंध नरक के
द्वार बंद कर के रखती,
सब पापों की एक दवा है-
पापहारिणी लवशाला।
प्यार हृदय की भूख-प्यास है,
अमर सुधा का यह प्याला।
प्रेमी अपनी प्यास बुझाता
पी कर नयनों की हाला।
उसकी शब्दावली जरा-सी,
आठ शब्द जिसमें केवल,
'प्रेम, प्रेमिका, मैं, मेरी वह,
मैं उसका होने वाला' ।
लवशाला के दर्शन करके
झूम उठा हर मतवाला।
दो जवान, दोनों दिलवाले
चंचल युवक, मधुर बाला।
एक इधर से, एक उधर से,
आकर दोनों एक हुए,
खोकर सत्ता हृदयों की
फूल रही है लवशाला।
जप-तप, पूजा-पाठ, साधना,
भस्म, मूर्ति, घंटा, माला।
व्यर्थ तीर्थ, धन, यश, पद,
गरिमा, वैभव, मदिरा का प्याला।
स्वाति-बूँद बस बूँद और
सब बूँदें हैं पानी खाली,
अपनी बाला ही बाला बस
बाकी हर बाला ख़ाला।
दो चीजें हैं जिनमें खुद ही
आकर्षण होने वाला।
दोनों चुंबक, दोनों लोहा,
क्यों न मचे हालाचाला।
प्यार अवश्यंभावी जग में,
क्योंकि जवानी आती है,
चूँकि जवानी आती है,
फिर क्यों न जवाँ हो लवशाला।
प्यार न हो, तो विश्व-प्रगति की
फिर न गुँथे आगे माला।
कलियाँ और फूल फिर जग में
जन्म न लें चाहों-वाला।
संतति है वरदान प्यार का,
प्रेम-बेल का वह फल है,
प्यार न हो, तो वंश-वृध्दि पर
रोक लगा दे लवशाला।
प्रियतम यदि अपने हाथों से
पहना दे डोरा काला।
उसकी कींमत के आगे फिर
क्या है हीरों की माला।
प्रिय की है हर चीज अनोखी,
उसका प्यार शराबी है,
उसकी बातों में होता है,
काला जादू मतवाला।
मंदिर-मस्जिद सब भूलोगे,
आकर देखो लवशाला।
साँसों में दिन-रात जपोगे
प्रिय के यादों की माला।
अरमानों के फूल चुनोगे
पूजा करने को प्रिय की,
और कहोगे- ''अहा, अहाहा!
मैंने सब कुछ खो डाला''।
प्यार बिछा है भू-तल पर यों-
जल है युवक, भूमि बाला।
इन दोनों का मिलना-जुलना
जीवन भर चलनेवाला।
हम भी अपनी घड़ियों में कुछ
मिल-जुल लें, कुछ कर-धर लें,
दिन थोड़े हैं, प्रेम बड़ा है,
शरण-भूमि है बस लवशाला।
काम बिना ही रातों में भी
जो न कभी सोने-वाला।
भूख-प्यास को जिसने अपनी
मतलब बिना उड़ा डाला।
निश्चय ही समझो उसको है
'प्रेम' नामका सुंदर वर,
बहुत खुशी से उस ओर बढ़ाता,
जिसने यह बुखार पाला।
प्यार घाव पर मरहम जैसा,
चैन मधुर देने वाला।
भरा हुआ सुख ही सुख जिसमें
ऐसा वह अजीब छाला।
तकलीफों को छील-छील कर
मीठा दर्द बना देता,
बेचैनों के लिए दवा-सी
खुली हुई है लवशाला।
पहले किसी कली पर जिसने
बुना इशारों का जाला।
फिर सारा का सारा मानस
अपना उसको दे डाला।
निष्ठा के अप्रतिम सिंचन से
खिल जाती वह गंधमयी,
बन जाती उसके ऑंगन की
पुष्पवाटिका वह बाला।
घोंचू, मूर्ख, गँवार, गधा हो
या बिलकुल भोला-भाला।
बुद्धू, नीच, अनाड़ी हो या
हो तन या मन का काला।
कलुषित लोहे-सा भी हो यदि,
उसका स्वर्ण बनाने को,
बन जाता पारस का पत्थर
प्यार निराला मतवाला।
नशा प्यार का सबसे गहरा
गिन कर सौ बोतल-वाला।
चढ़ कर फिर यह तभी उतरता,
जब मिलती मन की बाला।
प्रेमी तब हो जाता मोहन,
राधामोहन, मनमोहन,
और प्रेमिका स्वागत करती,
लेकर ओठों का प्याला।
तरुण फूल, तरुणी कलिका को
गूँथ मिला दे, वह 'माला'।
दो प्राणों को एक साथ जो
एक नशा दे, वह 'हाला'।
एक दूसरे के हृदयों में,
कस कर चुभने वालों को,
'प्यार' नाम की डोरी से जो
कस बाँधे, वह 'लवशाला'।
गंगा की पावन धारा हो
या कोई गंदा नाला।
भाव एक सब में मिलने का
बह खुद को खोने वाला।
चाह सभी में अपने प्रिय में
निज अस्तित्व गँवाने की,
सबका है बस लक्ष्य एक ही-
वैतरणी सी लवशाला।
''नकली प्रेमी कौन ?''
उठाती प्रश्न सलोनी लवशाला।
उत्तर मिलता 'जिसने खुद को
जीते जी मृत कर डाला'।
'असली प्रेमी कौन ?' कि जो
खुद मरने पर भी जीता हो,
'प्यार प्रथम, भगवान बाद में'
इसका जप करने-वाला।
चाहे असफलता की बरछी
हो, चाहे दुख का भाला।
वह समाज की घुड़की से भी
है न कभी डरने-वाला।
साहस की हड्डियाँ, धैर्य का
मांस उसे निर्मित करते,
प्रेमी को भगवती शुभा ने
काफी फुरसत में ढाला।
रजनी की अलकों को छूकर
छलकाया मन का प्याला।
तारों के झिलमिल सिंगार ने
यौवन-धन बिखरा डाला।
ऑंखें आगे बढ़ी चूमने
सरस साँवली आभा को,
वे सारे चुँबन बटोरने
चली लजीली लवशाला।
दीवाली है आज, खिले हैं
दीप, सजी है लवशाला।
धूम मचाती है नस-नस में
प्रियतम की छवि की हाला।
नजरों पर नजरें जब होंगी,
वक्त ठहर कर बोलेगा-
प्रेमी की ऑंखों का प्याला
है न कभी भरने-वाला।
सींच-सींच कर भाव-नीर से
प्रेमोद्यान अगर पाला।
चाह-भरे अरमानों का यदि
फिर उस पर पहरा डाला।
खूब खिलेंगे फूल मिलन के
और तृप्ति के फल मीठे,
ब्रह्मानंद ग्रहण कर लेंगे
सजन तरुण, सजनी बाला।
खाना, हँसना, मौज उड़ाना
यह सिद्धांत बना डाला।
आज हुआ जो, बीत गया वह,
फिर न कभी आने-वाला।
चार दिनों के बाद यहाँ से
अपना टिकट कटाना है,
इस कारण अपने प्रियतम की
जल्दी जपनी है माला।
प्रेमी जपता रहे निरंतर
प्रिय के नामों की माला।
जीवन की अंतिम घड़ियों तक
वह न कभी थकने वाला।
बात न हो यदि प्रिय से, तो भी
उसकी आशा धैर्य रखे,
अमर प्रतीक्षा का वह पुतला,
उसे न छोड़े लवशाला।
खोया देख उषा की लाली,
बना उसीका मतवाला।
चाहा गले लगा लूँ अपने
बना उसे अविचल माला।
बिखरा रूप दिशाओं भर का
सिमट समाए इस मन में,
और बहारों से बजवा दे
शहनाई यह लवशाला।
पहले मैंने 'प्यार' नाम के
साँचे में खुद को ढाला।
फिर अपना हर क्षण अपने उन
मनभावन पर खो डाला।
उसके बाद चढ़ाया उन पर
जब अपना अपनापन भी
फौरन अपना लिया उन्होंने
मुझको पाकर दिलवाला।
प्रेमी वह, जो अपनी उनसे
प्यार बहुत करनेवाला।
और प्रेमिका वह, जिसने मन
अपना उनको दे डाला।
प्यार एक चुभता काँटा है,
फूलों-सा वह कोमल है,
और किसी के दिल के टाँके
सी दे जो, वह 'लवशाला'
खेल-खेल में भी रूठा हो
यदि मन में बसनेवाला।
तो सारा दिन लगता अंधा,
सूरज भी लगता काला।
प्यार बड़ा ही जादूगर है,
उसके एक इशारे पर,
जल-थल अंगारे-सा लगता,
चाहे हो ठंडा पाला।
उन बालों का, उन गालों का,
उन ऑंखों का मतवाला।
ध्यान करे जब उन बातों का
भर कर ऑंखों का प्याला।
अपनेपन को भूल-भाल जब
वह प्रियतम में खो जाए,
तब उसको बाँहों में लेकर
शाबाशी दे लवशाला।
प्यार नाम की मदिरा से हो
भरा हुआ मन का प्याला।
और गुलाबी नशा चढ़ा हो,
धुत हो अति पीने-वाला।
फिर उसको कुछ काम न जग से,
योगी सब उसके नीचे,
एक उसे वैराग कि पा लूँ
अपनी जोगन मधुबाला।
चाहे ऑंखों के आगे हो
शुष्क निराशा का भाला।
या गरदन में हो असफलता
के कटु घावों की माला।
गहन विरह की ऑंधी हो या
हो तूफान अड़चनों का,
पर प्रेमी इन पतझड़ियों में
धैर्य न है खोने-वाला।
संसारी को ऐश चाहिए,
वैरागी को जप-माला।
साधु-संत को भ्रम का धंधा,
बनिए को धन का नाला।
पर प्रेमी की चाह और कुछ,
उसकी प्यास निगाहों की,
उसको बस चाहिए प्रेमिका
की मुस्कानों का प्याला।
प्यार न जिसने किया कभी,
वह मन की परतों से काला।
पर प्रेमी का हृदय प्यार ने
निर्मल जल-सा कर डाला।
पापी, नीच, कुकर्मी भी यदि
प्यार करे दिलवाली से,
उसके पुरखों तक का जीवन
बन जाए सद्गति-वाला।
सब विद्याओं से बढ़ कर है
ठाई अक्षर की माला।
पंडित, ज्ञानी, प्रेम-धुरंधर
बन जाता जपने-वाला।
गहराई सागर की उथली
प्रेमी के गहरे दिल से,
उसकी नैया पार कि जिसका
पूजाघर हो लवशाला।
हृदय-रूप पिंजरे में जिसने
प्रेम-रूप तोता पाला।
प्रेम-वारि को जिसने अपने
मन की प्यास बना डाला।
धर्म, अर्थ, मोक्ष से बढ़ कर
पाया सब-कुछ उस नर ने,
प्रेम-महल में घुस कर जिसने
अंदर से डाला ताला।
प्रेमी की बातों का जिसने
स्वाद चखा हो मतवाला।
उसको शक्कर फीकी लगती,
लगता कड़वा हर प्याला।
सारे रिश्ते खट्टे लगते
हलुआ लगता मिर्चो-सा,
सब-कुछ ऐसा-वैसा लगता,
विषमय लगती मधुशाला।
देख घटा श्यामल मेघों की
मचली भावों की हाला।
सावन का मैं मोर बन गया,
मन ने मुझे नचा डाला।
नर-मादा चिड़ियों की नजरें
उड़ने लगी तले ऊपर,
चहक-चहक कर जो कहती हैं-
'लवशाला-चूँ-लवशाला'।
संध्या के सारे रंगों की
पहन निर्वसन वरमाला।
परियों का मेहमान बना मैं
खुद को इंद्र बना डाला।
घूमा नभ के हर कोने में,
दिखा मुझे हर और यही-
तारक-दल नर, किरणें नारी,
और प्रकृति है लवशाला।
वह घर है वीरान कि जिसमें
प्रियतम ने न कदम डाला।
वह घर है श्मशान कि जिसमें
बहे न प्राणों की हाला।
वह घर नरक समान कि जिसमें
प्रेमी जन्म न लेते हों,
वह घर स्वर्ग समान कि जिसमें
हर प्राणी हो दिलवाला।
मैंने सोचा, मैं प्रोफेसर,
विद्या को घर में पाला।
सब कहते मैं ज्ञानी-ध्यानी,
ऊँची तर्क-बुद्धि-वाला।
लेकिन एक अपढ़-सी लड़की
बोली- 'बिलकुल अनपढ़ हो,
सीखो पहला पाठ यहाँ तुम',
और दिखा दी लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ डॉक्टर,
हर इलाज करने-वाला।
बीमारी को मैंने घर से
कोसों दूर भगा डाला।
लेकिन एक नशीली लाा
दिखते ही बीमार पड़ा,
वही सिर्फ डॉक्टर मेरी,
अस्पताल है लवशाला।
मैंने सोचा, मैं वकील हूँ,
खूब बहस करने-वाला।
मैंने बहुत जजों को अपने
तर्को से बहका डाला।
लेकिन एक चपल बाला की
बातों से मैं हार गया,
उसने समझाया- 'सबसे है
बड़ी कचहरी लवशाला'।
मैंने सोचा, मैं हूँ साहब,
बहुत-बहुत इात-वाला।
सब झुकते हैं मेरे आगे,
पैसा, बाबू या लाला।
लेकिन एक सुभग रमणी ने
घुटने मेरे टिका दिए,
अपनी इात से भी प्यारी
लगती मुझको वह बाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ नेता,
चक्कर में पड़ने वाला।
जनहित का षडयंत्र चलाकर
जग भर को चकरा डाला।
लेकिन एक बड़ा चक्कर
जब से ऑंखों में समा गया,
तब से चारों ओर दीखती
लवशाला ही लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ राजा,
सब पर रौब जमा डाला।
दास-दासियों का जीवन मैं
मुट्ठी में रखने-वाला।
लेकिन एक अजब-सी दासी
मुझको दास बना बैठी,
अब उसकी मुट्ठी में मेरे
प्राणों का डगमग प्याला।
मैंने सोचा, मैं हूँ क्षत्रिय,
तीर-धनुष रखने-वाला।
कितनों ही को मार गिराया
कितनों को चित कर डाला।
लेकिन एक नजर से छूटा
तीर लगा आकर जब से,
तब से अपना जौहर भूला
बनी शिवाला लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ बनिया,
अनुपम धन-दौलत-वाला।
कभी न बेचा कुछ घाटे में,
सारी ही घर भर डाला।
लेकिन एक सरल गुड़िया ने
यों ही मुझे खरीद लिया,
अब न पता है, कहाँ तिजोरी,
और तिजोरी का ताला।
मैंने सोचा, मैं सन्यासी,
जग भर से बचने-वाला।
सत् की ओर बढ़ा अपने पग
खुद को संत बना डाला।
लेकिन एक सदाचारिन पर
जब से मेरी दृष्टि पड़ी,
तब से मेरे पग बढ़ने का
मार्ग एक बस- लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ फक्कड़,
बिलकुल सूखे दिल-वाला।
घूमे बाग बहुत, पर मुझ पर
फूलों ने न असर डाला।
लेकिन एक लता-सी उसने
भारी मन को हिला दिया,
पत्थर के भीतर भी लहरें
खूब उठाती लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ पागल,
अस्थिर बुद्धि-वचन-वाला।
मेरे अंदर मचता रहता
अनसुलझा गड़बड़झाला।
लेकिन एक चतुर पगली ने
सब पागलपन दूर किया,
मेरे जीवन का संचालन
करती है अब वह बाला।
मैंने सोचा, मैं जादूगर,
चकित सभी को कर डाला।
मेरे करतब देख-देख कर
जग बन जाए मतवाला।
लेकिन एक इशारो-वाली
जादू मुझ पर चला गई,
'प्यार' शिकारी फंदा उसका,
और मंत्र है 'लवशाला'।
मैंने सोचा, मैं अति सुंदर,
मेरे दम पर लवशाला।
रति-जैसी छवि को भी चाहूँ
तो अपनी हो वह बाला।
लेकिन एक सुघड़ जोगन ने
चूर घमंड किया मेरा,
फिरता मैं अब उसके पीछे
हाथों में ले जयमाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ गायक
गीत मधुर गाने-वाला।
मैंने अपनी सुर-लहरी से
सबका हृदय रिझा डाला।
लेकिन एक मधुरवदना की
जैसे ही आवाज सुनी,
बस मैं भूला राग, ताल, सुर,
कंठ बसी अब लवशाला।
मैंने सोचा, मैं प्रतिनिधि कवि,
श्रृंगारी भावों-वाला।
दसियों रूपसियों को मैंने
सब की प्रिया बना डाला।
लेकिन उस कविता जैसी का
जब मुझको श्रृंगार दिखा,
हुई तुरंत बेहोश लेखनी,
बंद हुई यह लवशाला।
डॉक्टर रमेश चंद्र महरोत्रा
हम बात कर रहे थे इंटरनेट की। अब लोग इसको ज्यादा समय देने लगे हैं। अपने फज्ञेटोग्राफ्स, लोगों की बातचीत, दुनिया भर की जानकारी के साथ ही अपनी भवनाओं को बाँटने का साधन भी बन चुका है ये इंटरनेट। ब्लॉग लिखना अपनी भावनाओं को दूसरों तक पहुँचाने का एक माध्यम है। अपने वीडियोज़ को दुनिया के दूसरे कोने तक पहुँचाने के लिये यू-ट्यूब जैसे साधन हैं और अपनी आवाज़ के माध्यम से शिक्षा, गीत, कहानी, मन की बातें दूसरों तक पहुँचाने का जरिया तेजी के साथ बढ़ रहा है पॉडकास्टिंग। तो मेरे इस ब्लॉग में शामिल रहा करेगा पॉडकास्ट भी। कुछ दुर्लभ आवाजें भी हम आप तक पहुँचाएँगे इस माध्यम से और कुछ आवाजें होंगी हमारे आपके बीच की आवाजें। कुछ ऑडियो कार्यक्रम जिनका निर्माण हमने किया है वे भी स्क्रिप्ट सहित आपकी स्क्रीन पर होंगे। पहले आवाज़ की दुनिया के सम्मोहन पर कुछ बातें मेरे मन की सुनिये......
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आज पहली बार पॉडकास्टिंग के साथ अपने इस ब्लॉग पर प्रयोग करते हुए आपको रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के सेवानिवृत्त प्रोफेसर एवं हमारे प्रेरणास्रोत डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा की एक बहुत पुरानी, दुबली-पतली लेकिन मजबूत कविता ‘लवशाला’ की स्क्रिप्ट और उनकी आज की 76 वर्षीय आवाज में एक बानगी प्रस्तुत कर रहे हैं।
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दो शब्द... लेखक के
आपने शालाएँ तो बहुत देखी होंगी, पर 'लवशाला' पहली बार देखिए। इसे मैंने तब लिखा था, जब मुझे लोग 'दादा जी' नहीं कहा करते थे। वे भी क्या दिन थे! अब तो रातें ही रातें हैं! और वह भी जगराते वाली।
पाठकों से आग्रह है कि वे इस 'दांपत्य-मंजूषा' को 'हनुमान चालीसा' के समान पढ़ा करें। उनके सारे संकट दूर हो जाएँगे।
लवशाला
कविता के ऑंचल से लेकर
आसव मृदु वाणी वाला।
भीने भावों के फूलों से
गूँथ रहा हूँ यह माला।
प्यार हृदय का जीवन-धन है,
इसका रंग दिखाने को,
यौवन की फुलवारी-जैसी
खोल रहा हूँ लवशाला।
मद में भीगी रसभरियों से
भरा हुआ है यह प्याला।
गंगा-सी बहती है इसमें
मीठे सपनों की हाला।
दो छोरों का जुड़ना इसमें,
गठबंधन दो कृतियों का,
हर लड़की है राधा इसमें,
हर लड़का मुरलीवाला।
इस मंदिर में प्रिय-प्रियतम के
इठला रही प्रणय-वाला।
अर्पण है हृदयों का इसमें
और दर्द भोला-भाला।
उलटी-सीधी साँसें हैं कुछ,
प्यार-भरी कुछ बातें हैं,
और प्रेमियों के मन का,
इसमें कुछ है हालाचाला।
पुरखों ने भी प्यार किया था
छिप-छिप कर ढीला-ढाला।
पोते-परपोते भी आगे
प्यार करेंगे मतवाला।
हर पीढ़ी में बिकते आए,
मोल बिला ही दिलवाले,
इसमें हैं लखपति वे, जिनके
दिल का निकला दीवाला।
मन के सारे दर्द भुलाना
खूब सिखाती है हाला।
और निराशाओं से पीछा
खूब छुड़ाता है प्याला।
लेकिन सारे दर्द और
सब खोते हुए निराशाएँ,
जीवन भर का साथ निभाना
सिर्फ सिखाती लवशाला।
नर हो, सुर हो या दानव हो,
गोरा हो अथवा काला।
संसारी हो या हो वैरागी,
बहनोई अथवा हो साला।
प्यार सभी के मन का मोती,
धन निर्धन-धनवानों का,
उसके बिना अधूरे सब हैं,
लल्ला, लैला या लाला।
हीरे, मोती, पन्ने, नीलम,
या धन-वैभव की माला।
लेन-देन इनका प्रेमी के
लिए व्यर्थ का घोटाला।
झूठी है हर वस्तु यहाँ की,
अटल सत्य बस एक यही-
चाहे जल-थल-नभ मिट जाएँ,
पर न मिटेगी लवशाला।
प्रेमी एक समाज-सुधारक,
सचमुच कुछ करने वाला।
ऊँच-नीच का, जाति-पाँति का
उसने भेद मिटा डाला।
प्रेम किसी से भी हो, सब ही
उसके लिए बराबर हैं,
नलवाली हो या फलवाली,
या महलोंवाली बाला।
यही निबटना है हम सबको,
हाथ मसलना, यदि टाला।
इस जीवन के बाद वहाँ क्या?
केवल है गड़बड़झाला।
जो कुछ भी मिलना है हमको,
यहीं मिलेगा, यह तय है,
फिर न मिलेंगे ऐसे अवसर,
फिर न मिलेगी लवशाला।
पहले रह कर दूर-दूर ही
दिखता अति भोला-भाला।
फिर धीरे से पास पहुँच कर
करता गड़बड़-घोटाला।
लवशाला के नायक का यह
'प्रोग्राम' निश्चित रहता,
आखिर में वह जीत जाता
तब बन जाता है घरवाला।
स्वर्ग, सुनो क्या है मतवालो?
'प्रिय की बाँहों की माला'।
अपने गले लिपटने पर जो
देती सुख सुरपुर वाला।
आलिंगन की गंध नरक के
द्वार बंद कर के रखती,
सब पापों की एक दवा है-
पापहारिणी लवशाला।
प्यार हृदय की भूख-प्यास है,
अमर सुधा का यह प्याला।
प्रेमी अपनी प्यास बुझाता
पी कर नयनों की हाला।
उसकी शब्दावली जरा-सी,
आठ शब्द जिसमें केवल,
'प्रेम, प्रेमिका, मैं, मेरी वह,
मैं उसका होने वाला' ।
लवशाला के दर्शन करके
झूम उठा हर मतवाला।
दो जवान, दोनों दिलवाले
चंचल युवक, मधुर बाला।
एक इधर से, एक उधर से,
आकर दोनों एक हुए,
खोकर सत्ता हृदयों की
फूल रही है लवशाला।
जप-तप, पूजा-पाठ, साधना,
भस्म, मूर्ति, घंटा, माला।
व्यर्थ तीर्थ, धन, यश, पद,
गरिमा, वैभव, मदिरा का प्याला।
स्वाति-बूँद बस बूँद और
सब बूँदें हैं पानी खाली,
अपनी बाला ही बाला बस
बाकी हर बाला ख़ाला।
दो चीजें हैं जिनमें खुद ही
आकर्षण होने वाला।
दोनों चुंबक, दोनों लोहा,
क्यों न मचे हालाचाला।
प्यार अवश्यंभावी जग में,
क्योंकि जवानी आती है,
चूँकि जवानी आती है,
फिर क्यों न जवाँ हो लवशाला।
प्यार न हो, तो विश्व-प्रगति की
फिर न गुँथे आगे माला।
कलियाँ और फूल फिर जग में
जन्म न लें चाहों-वाला।
संतति है वरदान प्यार का,
प्रेम-बेल का वह फल है,
प्यार न हो, तो वंश-वृध्दि पर
रोक लगा दे लवशाला।
प्रियतम यदि अपने हाथों से
पहना दे डोरा काला।
उसकी कींमत के आगे फिर
क्या है हीरों की माला।
प्रिय की है हर चीज अनोखी,
उसका प्यार शराबी है,
उसकी बातों में होता है,
काला जादू मतवाला।
मंदिर-मस्जिद सब भूलोगे,
आकर देखो लवशाला।
साँसों में दिन-रात जपोगे
प्रिय के यादों की माला।
अरमानों के फूल चुनोगे
पूजा करने को प्रिय की,
और कहोगे- ''अहा, अहाहा!
मैंने सब कुछ खो डाला''।
प्यार बिछा है भू-तल पर यों-
जल है युवक, भूमि बाला।
इन दोनों का मिलना-जुलना
जीवन भर चलनेवाला।
हम भी अपनी घड़ियों में कुछ
मिल-जुल लें, कुछ कर-धर लें,
दिन थोड़े हैं, प्रेम बड़ा है,
शरण-भूमि है बस लवशाला।
काम बिना ही रातों में भी
जो न कभी सोने-वाला।
भूख-प्यास को जिसने अपनी
मतलब बिना उड़ा डाला।
निश्चय ही समझो उसको है
'प्रेम' नामका सुंदर वर,
बहुत खुशी से उस ओर बढ़ाता,
जिसने यह बुखार पाला।
प्यार घाव पर मरहम जैसा,
चैन मधुर देने वाला।
भरा हुआ सुख ही सुख जिसमें
ऐसा वह अजीब छाला।
तकलीफों को छील-छील कर
मीठा दर्द बना देता,
बेचैनों के लिए दवा-सी
खुली हुई है लवशाला।
पहले किसी कली पर जिसने
बुना इशारों का जाला।
फिर सारा का सारा मानस
अपना उसको दे डाला।
निष्ठा के अप्रतिम सिंचन से
खिल जाती वह गंधमयी,
बन जाती उसके ऑंगन की
पुष्पवाटिका वह बाला।
घोंचू, मूर्ख, गँवार, गधा हो
या बिलकुल भोला-भाला।
बुद्धू, नीच, अनाड़ी हो या
हो तन या मन का काला।
कलुषित लोहे-सा भी हो यदि,
उसका स्वर्ण बनाने को,
बन जाता पारस का पत्थर
प्यार निराला मतवाला।
नशा प्यार का सबसे गहरा
गिन कर सौ बोतल-वाला।
चढ़ कर फिर यह तभी उतरता,
जब मिलती मन की बाला।
प्रेमी तब हो जाता मोहन,
राधामोहन, मनमोहन,
और प्रेमिका स्वागत करती,
लेकर ओठों का प्याला।
तरुण फूल, तरुणी कलिका को
गूँथ मिला दे, वह 'माला'।
दो प्राणों को एक साथ जो
एक नशा दे, वह 'हाला'।
एक दूसरे के हृदयों में,
कस कर चुभने वालों को,
'प्यार' नाम की डोरी से जो
कस बाँधे, वह 'लवशाला'।
गंगा की पावन धारा हो
या कोई गंदा नाला।
भाव एक सब में मिलने का
बह खुद को खोने वाला।
चाह सभी में अपने प्रिय में
निज अस्तित्व गँवाने की,
सबका है बस लक्ष्य एक ही-
वैतरणी सी लवशाला।
''नकली प्रेमी कौन ?''
उठाती प्रश्न सलोनी लवशाला।
उत्तर मिलता 'जिसने खुद को
जीते जी मृत कर डाला'।
'असली प्रेमी कौन ?' कि जो
खुद मरने पर भी जीता हो,
'प्यार प्रथम, भगवान बाद में'
इसका जप करने-वाला।
चाहे असफलता की बरछी
हो, चाहे दुख का भाला।
वह समाज की घुड़की से भी
है न कभी डरने-वाला।
साहस की हड्डियाँ, धैर्य का
मांस उसे निर्मित करते,
प्रेमी को भगवती शुभा ने
काफी फुरसत में ढाला।
रजनी की अलकों को छूकर
छलकाया मन का प्याला।
तारों के झिलमिल सिंगार ने
यौवन-धन बिखरा डाला।
ऑंखें आगे बढ़ी चूमने
सरस साँवली आभा को,
वे सारे चुँबन बटोरने
चली लजीली लवशाला।
दीवाली है आज, खिले हैं
दीप, सजी है लवशाला।
धूम मचाती है नस-नस में
प्रियतम की छवि की हाला।
नजरों पर नजरें जब होंगी,
वक्त ठहर कर बोलेगा-
प्रेमी की ऑंखों का प्याला
है न कभी भरने-वाला।
सींच-सींच कर भाव-नीर से
प्रेमोद्यान अगर पाला।
चाह-भरे अरमानों का यदि
फिर उस पर पहरा डाला।
खूब खिलेंगे फूल मिलन के
और तृप्ति के फल मीठे,
ब्रह्मानंद ग्रहण कर लेंगे
सजन तरुण, सजनी बाला।
खाना, हँसना, मौज उड़ाना
यह सिद्धांत बना डाला।
आज हुआ जो, बीत गया वह,
फिर न कभी आने-वाला।
चार दिनों के बाद यहाँ से
अपना टिकट कटाना है,
इस कारण अपने प्रियतम की
जल्दी जपनी है माला।
प्रेमी जपता रहे निरंतर
प्रिय के नामों की माला।
जीवन की अंतिम घड़ियों तक
वह न कभी थकने वाला।
बात न हो यदि प्रिय से, तो भी
उसकी आशा धैर्य रखे,
अमर प्रतीक्षा का वह पुतला,
उसे न छोड़े लवशाला।
खोया देख उषा की लाली,
बना उसीका मतवाला।
चाहा गले लगा लूँ अपने
बना उसे अविचल माला।
बिखरा रूप दिशाओं भर का
सिमट समाए इस मन में,
और बहारों से बजवा दे
शहनाई यह लवशाला।
पहले मैंने 'प्यार' नाम के
साँचे में खुद को ढाला।
फिर अपना हर क्षण अपने उन
मनभावन पर खो डाला।
उसके बाद चढ़ाया उन पर
जब अपना अपनापन भी
फौरन अपना लिया उन्होंने
मुझको पाकर दिलवाला।
प्रेमी वह, जो अपनी उनसे
प्यार बहुत करनेवाला।
और प्रेमिका वह, जिसने मन
अपना उनको दे डाला।
प्यार एक चुभता काँटा है,
फूलों-सा वह कोमल है,
और किसी के दिल के टाँके
सी दे जो, वह 'लवशाला'
खेल-खेल में भी रूठा हो
यदि मन में बसनेवाला।
तो सारा दिन लगता अंधा,
सूरज भी लगता काला।
प्यार बड़ा ही जादूगर है,
उसके एक इशारे पर,
जल-थल अंगारे-सा लगता,
चाहे हो ठंडा पाला।
उन बालों का, उन गालों का,
उन ऑंखों का मतवाला।
ध्यान करे जब उन बातों का
भर कर ऑंखों का प्याला।
अपनेपन को भूल-भाल जब
वह प्रियतम में खो जाए,
तब उसको बाँहों में लेकर
शाबाशी दे लवशाला।
प्यार नाम की मदिरा से हो
भरा हुआ मन का प्याला।
और गुलाबी नशा चढ़ा हो,
धुत हो अति पीने-वाला।
फिर उसको कुछ काम न जग से,
योगी सब उसके नीचे,
एक उसे वैराग कि पा लूँ
अपनी जोगन मधुबाला।
चाहे ऑंखों के आगे हो
शुष्क निराशा का भाला।
या गरदन में हो असफलता
के कटु घावों की माला।
गहन विरह की ऑंधी हो या
हो तूफान अड़चनों का,
पर प्रेमी इन पतझड़ियों में
धैर्य न है खोने-वाला।
संसारी को ऐश चाहिए,
वैरागी को जप-माला।
साधु-संत को भ्रम का धंधा,
बनिए को धन का नाला।
पर प्रेमी की चाह और कुछ,
उसकी प्यास निगाहों की,
उसको बस चाहिए प्रेमिका
की मुस्कानों का प्याला।
प्यार न जिसने किया कभी,
वह मन की परतों से काला।
पर प्रेमी का हृदय प्यार ने
निर्मल जल-सा कर डाला।
पापी, नीच, कुकर्मी भी यदि
प्यार करे दिलवाली से,
उसके पुरखों तक का जीवन
बन जाए सद्गति-वाला।
सब विद्याओं से बढ़ कर है
ठाई अक्षर की माला।
पंडित, ज्ञानी, प्रेम-धुरंधर
बन जाता जपने-वाला।
गहराई सागर की उथली
प्रेमी के गहरे दिल से,
उसकी नैया पार कि जिसका
पूजाघर हो लवशाला।
हृदय-रूप पिंजरे में जिसने
प्रेम-रूप तोता पाला।
प्रेम-वारि को जिसने अपने
मन की प्यास बना डाला।
धर्म, अर्थ, मोक्ष से बढ़ कर
पाया सब-कुछ उस नर ने,
प्रेम-महल में घुस कर जिसने
अंदर से डाला ताला।
प्रेमी की बातों का जिसने
स्वाद चखा हो मतवाला।
उसको शक्कर फीकी लगती,
लगता कड़वा हर प्याला।
सारे रिश्ते खट्टे लगते
हलुआ लगता मिर्चो-सा,
सब-कुछ ऐसा-वैसा लगता,
विषमय लगती मधुशाला।
देख घटा श्यामल मेघों की
मचली भावों की हाला।
सावन का मैं मोर बन गया,
मन ने मुझे नचा डाला।
नर-मादा चिड़ियों की नजरें
उड़ने लगी तले ऊपर,
चहक-चहक कर जो कहती हैं-
'लवशाला-चूँ-लवशाला'।
संध्या के सारे रंगों की
पहन निर्वसन वरमाला।
परियों का मेहमान बना मैं
खुद को इंद्र बना डाला।
घूमा नभ के हर कोने में,
दिखा मुझे हर और यही-
तारक-दल नर, किरणें नारी,
और प्रकृति है लवशाला।
वह घर है वीरान कि जिसमें
प्रियतम ने न कदम डाला।
वह घर है श्मशान कि जिसमें
बहे न प्राणों की हाला।
वह घर नरक समान कि जिसमें
प्रेमी जन्म न लेते हों,
वह घर स्वर्ग समान कि जिसमें
हर प्राणी हो दिलवाला।
मैंने सोचा, मैं प्रोफेसर,
विद्या को घर में पाला।
सब कहते मैं ज्ञानी-ध्यानी,
ऊँची तर्क-बुद्धि-वाला।
लेकिन एक अपढ़-सी लड़की
बोली- 'बिलकुल अनपढ़ हो,
सीखो पहला पाठ यहाँ तुम',
और दिखा दी लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ डॉक्टर,
हर इलाज करने-वाला।
बीमारी को मैंने घर से
कोसों दूर भगा डाला।
लेकिन एक नशीली लाा
दिखते ही बीमार पड़ा,
वही सिर्फ डॉक्टर मेरी,
अस्पताल है लवशाला।
मैंने सोचा, मैं वकील हूँ,
खूब बहस करने-वाला।
मैंने बहुत जजों को अपने
तर्को से बहका डाला।
लेकिन एक चपल बाला की
बातों से मैं हार गया,
उसने समझाया- 'सबसे है
बड़ी कचहरी लवशाला'।
मैंने सोचा, मैं हूँ साहब,
बहुत-बहुत इात-वाला।
सब झुकते हैं मेरे आगे,
पैसा, बाबू या लाला।
लेकिन एक सुभग रमणी ने
घुटने मेरे टिका दिए,
अपनी इात से भी प्यारी
लगती मुझको वह बाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ नेता,
चक्कर में पड़ने वाला।
जनहित का षडयंत्र चलाकर
जग भर को चकरा डाला।
लेकिन एक बड़ा चक्कर
जब से ऑंखों में समा गया,
तब से चारों ओर दीखती
लवशाला ही लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ राजा,
सब पर रौब जमा डाला।
दास-दासियों का जीवन मैं
मुट्ठी में रखने-वाला।
लेकिन एक अजब-सी दासी
मुझको दास बना बैठी,
अब उसकी मुट्ठी में मेरे
प्राणों का डगमग प्याला।
मैंने सोचा, मैं हूँ क्षत्रिय,
तीर-धनुष रखने-वाला।
कितनों ही को मार गिराया
कितनों को चित कर डाला।
लेकिन एक नजर से छूटा
तीर लगा आकर जब से,
तब से अपना जौहर भूला
बनी शिवाला लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ बनिया,
अनुपम धन-दौलत-वाला।
कभी न बेचा कुछ घाटे में,
सारी ही घर भर डाला।
लेकिन एक सरल गुड़िया ने
यों ही मुझे खरीद लिया,
अब न पता है, कहाँ तिजोरी,
और तिजोरी का ताला।
मैंने सोचा, मैं सन्यासी,
जग भर से बचने-वाला।
सत् की ओर बढ़ा अपने पग
खुद को संत बना डाला।
लेकिन एक सदाचारिन पर
जब से मेरी दृष्टि पड़ी,
तब से मेरे पग बढ़ने का
मार्ग एक बस- लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ फक्कड़,
बिलकुल सूखे दिल-वाला।
घूमे बाग बहुत, पर मुझ पर
फूलों ने न असर डाला।
लेकिन एक लता-सी उसने
भारी मन को हिला दिया,
पत्थर के भीतर भी लहरें
खूब उठाती लवशाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ पागल,
अस्थिर बुद्धि-वचन-वाला।
मेरे अंदर मचता रहता
अनसुलझा गड़बड़झाला।
लेकिन एक चतुर पगली ने
सब पागलपन दूर किया,
मेरे जीवन का संचालन
करती है अब वह बाला।
मैंने सोचा, मैं जादूगर,
चकित सभी को कर डाला।
मेरे करतब देख-देख कर
जग बन जाए मतवाला।
लेकिन एक इशारो-वाली
जादू मुझ पर चला गई,
'प्यार' शिकारी फंदा उसका,
और मंत्र है 'लवशाला'।
मैंने सोचा, मैं अति सुंदर,
मेरे दम पर लवशाला।
रति-जैसी छवि को भी चाहूँ
तो अपनी हो वह बाला।
लेकिन एक सुघड़ जोगन ने
चूर घमंड किया मेरा,
फिरता मैं अब उसके पीछे
हाथों में ले जयमाला।
मैंने सोचा, मैं हूँ गायक
गीत मधुर गाने-वाला।
मैंने अपनी सुर-लहरी से
सबका हृदय रिझा डाला।
लेकिन एक मधुरवदना की
जैसे ही आवाज सुनी,
बस मैं भूला राग, ताल, सुर,
कंठ बसी अब लवशाला।
मैंने सोचा, मैं प्रतिनिधि कवि,
श्रृंगारी भावों-वाला।
दसियों रूपसियों को मैंने
सब की प्रिया बना डाला।
लेकिन उस कविता जैसी का
जब मुझको श्रृंगार दिखा,
हुई तुरंत बेहोश लेखनी,
बंद हुई यह लवशाला।
डॉक्टर रमेश चंद्र महरोत्रा
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