Friday, November 25, 2011
Wednesday, November 23, 2011
बोलते विचार 35 - सम दृष्टि और सामाजिक सुख
आप अपने को स्वस्थ तभी कहते हैं जब आपके सारे अंग ठीक हालत में काम कर रहे होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आपकी किसी अँगुली की पोर में चोट लगी होती है, तब आपका सारा शरीर उसे याद रखता है। इसी तरह यदि आपके सिर में दर्द हो रहा होता है, तब आप यह नहीं कहा करते कि आपके शेष शरीर में दर्द नहीं है।
जिस प्रकार अच्छे स्वास्थ्य के नाम पर शरीर के प्रत्येक अंग का महत्व है उसी प्रकार परिवार के सुख के लिये उसके बड़े-छोटे सब सदस्यों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना जरूरी है। यदि आपने इस मामले में पक्षपात किया तो परिवार में देर-सबेर निश्चित रूप से मनोमालिन्य, विवाद और कलह की स्थिति पैदा हो जाएगी; वरना स्नेह और आदर सबके लिए है, अनुशासन सबके लिए है, त्याग सबके लिए है, अधिकार सबके लिए है।
पेड़ की जड़ें जब समूचे पेड़ को एक सी खुराक पहुँचाती है, तभी उसकी एक-एकपत्ती लहलहाती है। उसके पुष्पित और फलित होने में उसके समग्र अंगों का योगदान रहता है।
समाज में विद्रूपताएँ इसलिए जन्म लेती हैं कि आदमी समाज को इकाई न मानकर स्वयं को इकाई मानते हुए दूसरों का शोषण करता है। दूसरी ओर, जिस-जिस इंसान ने दूसरों को अपने जैसा माना है, वहीं महानन बन गया है। अन्यों का हिस्सा हड़पनेवाले धनपशु राजनेताओं और अति साधारण जन के रोटी-कपड़े-मकान के साथ जिन्दगी जीने वाली जैसी महान् आत्माओं में यही अंतर है। ‘अपने समान सब’ और ‘सब लोगों का हित’ वाली सूक्तियाँ’ ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और ‘सर्वजनहिताय’ मानवता के प्रथम सोपान हैं। सबको एक नजर से देखने का गुण इतना अधिक बड़ा है कि यदि हम इस दिशा में एक कदम भी बढ़ जाएँ तो इनसानियत के नाम पर आज के कुछ लाख लोगों के ऊपर पहुँच जाएँ।
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Tuesday, November 22, 2011
Sunday, November 20, 2011
बोलते विचार 34 - प्रार्थना का महत्व
बोलते विचार 34
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
प्रार्थना का स्वरूप चाहे कोई भी हो, उसका मतलब सिर्फ अपने को बहुत छोटा और अपने आराध्य को बहुत बड़ा मानने से रहता है। प्रार्थना के माध्यम से आदमी अपनी साकार या निराकार अर्चनीय सत्ता को प्राप्त करने और असफलता को झेलने की ताकत इकट्ठी करता है। वह प्रार्थना करते समय महसूस करता है कि सर्वशक्तिमान का साया उसकी रक्षा कर रहा है।प्रार्थना एक ओर दुःखों की त्राण-स्थली है और दूसरी तरफ सुखों की चिरंतन आशा है। गरीब लोग अपनी गरीबी के लिये सहारा प्रार्थना में ढ़ूँढ़ते है। और रईस लोग अपनी रईसी बचाने और उसे बढ़ाने का रास्ता प्रार्थना में ढ़ूँढ़ते हैं। वे रईसीजन्म व्याधियों से मुक्ति के लिए भी प्रार्थना का सहारा लेते हैं। प्रार्थना हर आस्थावान् को संजीवनी देती है।
प्रार्थना से अहंकार का क्षय होता है और स्वभाव में नम्रता पनपती है। उससे मन स्थिर होता है और मनोबल बढ़ता है, जिससे आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। प्रार्थना उस विश्वास की अति को नियंत्रण में रखती है और आदमी को उसकी सीमाओं का आभास कराती है। कुछ बड़े-बड़े डाक्टर भी आपरेशन करने के पूर्व परमपिता का स्मरण कर लेते हैं। उस समय उनके द्वारा की गई नमन-प्रार्थना का उद्देश्य और लाभ होता है कि वे स्वयं को कर्ता-धर्ता समझने की भूल नहीं करते, भले ही भौतिक रूप से वही सब कुछ करते हैं।
कई खिलाड़ी खेल के मैदान में प्रवेश करते समय भूमि का स्पर्श करके हाथ को अपने माथे से लगाते हैं। उनका हृदय अप्रत्यक्ष रूप से विजय की याचना करता है। उन्हें विजय वस्तुतः वह भूमि अपने हाथों से नहीं सौंपती, वे स्वयं ही उसे अपने सत्प्रयत्न से पाते हैं; लेकिन उस क्षण भर की प्रार्थना जैसी चीज से वे इच्छाशक्ति, निष्ठा, आत्मबल एवं गलती के प्रति भय और सावधानी आदि बहुत कुछ संचित कर लेते हैं।
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Wednesday, November 16, 2011
बोलते विचार 33 - आदमी-आदमी में भेद मत रखिए
आदमी-आदमी में भेद मत रखिए बोलते विचार 33 आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा |
आदमी-आदमी में भेद करने वाले व्यक्तियों को ओलंपिक से शिक्षा लेनी चाहिए, जिसमें क्षेत्रवाद और जातिवाद तो क्या, सम्प्रदायवाद और धर्मवाद काभी कोई अता-पता नहीं होता। वहाँ सिर्फ मानववाद होता है। वहाँ कोई नहीं सोचता कि कौन अछूता है और कौन ‘छूत’। रंग-रूप का भी वहाँ अद्भुत संगत दिखाई पड़ता है और समतावाद का भी वहाँ सच्चा रूप देखने को मिलता है। केवल वहाँ अनुभव होता है कि संसार भर के आदमी सिर्फ आदमी हैं।
स्वस्थ और ईमानदार तरीकों से स्पर्धाओं में जीतने के लिये अपनी जान लगा देना और जबरदस्त अनुशासन का पालन करने के लिये सर्वांशतः बाध्य होना आज की दुनिया में शायद केवल ओलंपिक में संभव है। चाहे कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो,? उसके लिये वहाँ ‘पक्षपात’ शब्द का अकाल रहता है। वहाँ स्पर्धाओं के मैदान में कोई किसी का ‘रिश्तेदार’ नहीं होता। वहाँ सिर्फ एक रिश्ता होता है - आदमी का आदमी से।
यदि राजनीतिक स्तर पर किन्हीं दो देशों के बीच शत्रुता होती है, तब भी वहाँ के खिलाडि़यों में ओलंपिक में केवल सद्भाव और भाईचारा रहता है। वहाँ किसी भी देश के राष्ट्रीय ध्वज के अपमान की कल्पना नहीं की जा सकती। स्वर्ण पदक प्राप्त करने के बाद जिस समय संबंधित खिलाड़ी के राष्ट्र की धुन बजती है उस समय का माहौल पारस्परिक सहिष्णुता की दृष्टि से अनुपम होता है। पूरा स्टेडियम उसके सम्मान में अखंड शांति रखता है।
पदकों की प्राप्ति के बाद जिस समय भिन्न-भिन्न राष्ट्रों के विरोधी खिलाड़ी एक-दूसरे के प्रति स्नेह और संवेदनशीलता दिखाते हैं उस समय संसार में बुराई के अस्तित्व के प्रति अविश्वास होने लगता है। यह बुराई पर अच्छाई का हावी होना है।
पूरे आयोजन के दौरान प्रतिभागियों और दर्शकों को देखकर ऐसा लगता है कि जिंदगी उफनी पड़ रही है। समग्रता से रंजित खुशियों का ऐसा खजाना और कहीं देखने को नहीं मिलता। वहाँ अनेक बार खुशी के आँसुओं की बौछार होती देखकर फिर वहीं बात याद आती है कि आदमी कहीं का भी हो, किसी भी जाति और धर्म का हो, मूलतः और अंततः वह आदमी ही है, हमें भेद कर-करके उसे टुकड़ों में नहीं बाँटना चाहिये।
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Tuesday, November 15, 2011
बोलते शब्द 66
बोलते शब्द 66 आज के शब्द जोड़े हैं 'पानी' व 'पानी पानी' और 'प्राच्य' व 'पाश्चात्य' |
आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
स्वर - संज्ञा टंडन
131. 'पानी' व 'पानी पानी'
Sunday, November 13, 2011
बोलते विचार 32 - आगामी कल की भी सोचिए
आगामी कल की भी सोचिए
कुछ लोग वर्तमान से एक पल भी आगे की नहीं सोचते। वे कुआँ तभी खोदना शुरू करते हैं जब उन्हें प्यास लगती है। उन्हें भविष्य की बिलकुल चिन्ता न करने वालो अदूरदर्शी कहा जायेगा। उनके घर के सारे पानी के बरतन प्रायः खाली पड़े रहते हैं। जब नल चला जाता है और उन्हें पानी की जरूरत पड़ती है तब वे उसके लिये अड़ोस-पड़ोस के लोगों को तंग करने में शर्म महसूस नहीं करते। वे कहते हैं कि आखिर पड़ोसी कब काम आयेंगे।
आदमी बहुत छोटी-छोटी बातों पर ध्यान रखकर अपना जीवन एक अच्छे पारिवारिक और सामाजिक के रूप में भी जी सकता है, या फिर दूसरों की सदा आलोचना का पात्र बनकर भी समय काट सकता है। वह जो भी पसंद करे। एक मामूली सा उदाहरण है कि कुछ लोग शौच से निवृत्त होने के बाद मल को फ्लश आदि से बिना बहाय शौचालय से बाहर निकल जाते हैं। उनके बाद वहाँ पहुँचने वाला व्यक्ति उन्हें मन में कम से कम एक बार तो ‘असभ्य’ कह ही देता होगा। पर उन्हें इसकी चिन्ता नहीं रहती। दरअसल उन्हें खुद को छोड़कर संसार में किसी की भी चिन्ता नहीं रहती । वे इस बात पर कभी विचार नहीं किया करते कि कुछ क्षण बाद की स्थिति दूसरों के लिए कैसी रहेगी।
कार और स्कूटर आदि को कहीं पार्क करने वाले श्रीमानजी कभी-कभी न तो अपनी ‘आंखों का’ इस्तेमाल करते हैं और न अपनी ‘अक्ल का’ कि दूसरी गाडि़याँ पार्क करने वालों और आने जाने वालों को कितनी असुविधा हो जाती है। बुद्धि को अपनी पीठ की तरफ खिसका देने वाले ऐसे सज्जन खुद के बारे में भी नहीं सोच पाते कि कुछ समय बाद उन्हें भी अपनी गाड़ी निकालने में परेशानी हो जायेगी। उस समय उन्हें यह बड़बड़ाते हुए आपने जरूर सुना होगा कि दूसरे लोगों ने उनकी गाड़ी को कहाँ फँसा डाला है।
आगे की सहूलियत को ध्यान में रखकर एक साहब बाजार से वापस आने पर घर के गैरेज में अपनी कार को बैक करके ही रखते थे कि जब भी बाद में कहीं जाना होगा, वे उस समय सीधे ही निकल जाएँगे।
एक साहब ने यहाँ दिन में एक दर्जन बार चाय बनती होगी, लेकिन चार बनाने वाला बरतन हर वक्त साफ-सुथरा लटका हुआ मिलता है। कारण यह है कि उस घर की श्रीमतीजी हर बार चाय बन जाने के बाद उसे उसी समय साफ कर डालती थी। वे उसकी आगामी तात्कालिक आवश्यकता पड़ने की बात के साथ-साथ यह भी समझती है कि उस समय बरतन को जूठे बरतनों में डाल देने से उस पर हुए जमाव आदि के सूख जाने से बाद में उसे माँजने में अधिक समय और श्रम लगेगा।
कुछ लोग अपना गुच्छा या अन्य कुछ सामान अकसर इधर-उधर ढ़ूँढ़ते हुए नजर आते हैं। इसका कारण केवल यह है कि वे अपनी चीजों को सही जगह पर यह सोचकर रखने की समझदारी नहीं दिखा पाते कि उनको उन चीजों की भविष्य में जरूरत पड़ेगी। घर हो या कार्यालय, चीजों को कूड़े के ढ़ेर के समान रखने वाला व्यक्ति ‘वर्तमान से एक पल भी आगे न सोचने की बीमारी’ का शिकार होता है। ऐसे लोग आकस्मिक रूप से बिजली चली जाने के बाद या तो उस समय सिर्फ हल्ला मचाना जानते हैं कि मोमबत्ती कहाँ है, दियासलाई कहाँ है; या उन चीजों को ढूँढ़ने के चक्कर में घर का कुछ सामान तोड़ बैठते हैं।
निष्कर्ष यह है कि इस तरह की परेशानियों के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं, बस जरा सा आगे के बारे में सोचकर हम दूसरों की ही नहीं, अपनी भी सुविधायें बढ़ा सकते हैं, समय बचा सकते हैं और बार-बार होने वाली खोज से छुटकारा पा सकते हैं। इसके लिए बड़ी दूरदर्शिता की आवश्यकता नहीं है, केवल थोड़ी सी सावधानी और धैर्य से काम चल जाता है।
यों तो जीना-मरना विधि के हाथों में है, पर यदि आपमें ‘जीवन जीने की लालसा’ है तो कम-से-कम कल के बारे में सोचना होगा। यह सोचकर कि संसार किसी भी समय खत्म हो सकता है, ‘सौ प्रतिशत वर्तमान’ को ही सब कुछ मानने वाले व्यक्ति में जीने की लालसा की तुलना में मरने का भय अधिक होता है। यहाँ एक मद्देनजर किस्सा सुनिए - एक लड़का खाना खाते समय स्वयं को सबसे अच्छी लगने वाली चीज को सबसे पहले खत्म करता था और सबसे रद्दी लगने वाली चीज को सबसे बाद में खाता था। सामान्यतया इसका उलटा होता है कि मुँह का जायका अच्छा बनाए रखने के नाम पर लोग अच्छे स्वाद वाली चीज को सबसे बाद में खाते हैं। जब उस लड़के से उसके उलटे क्रम का कारण पूछा गया तो उसने गंभीरतापूर्वक बताया कि वह डरता है कि कहीं वह खाते-खाते ही न मर जाए, इसलिये कहीं अच्छी चीज को खाने से वंचित न रह जाये।
Friday, November 11, 2011
Wednesday, November 9, 2011
बोलते विचार 31 - जबान की कीमत
जबान की कीमत
आपने एक दुकानदार को नेम-प्लेट बनाने के लिए दी। उसने कछ एडवांस लेकर आपसे कहा कि आप उसकी दुकान पर अगले बुधवार को पहुँच जाएँ। आप बुधवार की शाम को पहुँचे। आपको जवाब मिला - ‘परसों आ जाइए साहब, बस थोड़ा साकाम बच गया है।’
आपने दर्जी को कुरता-पाजामा सिलने को दिया। उसने आपको एक सप्ताह बाद बुलाया। आप उसके पास आठवें दिन पहुँचे। दर्जी ने आपसे कहा कि अभी तीन दिन और लग जायेंगे। आप वहाँ चैथे दिन गए। कुरता-पाजामा तब भी तैयार नहीं था।
आपने प्रेस में कुछ छपने के लिए दिया। काम लेते समय प्रेस वाले ने बेहतद शराफत दिखाई और वचन भरे; पर बाद में उसने अपनी जबान तीन बार पलटी कि कल जरूर दे दूँगा।
आपने बढ़ई सेअपने घर पर काम करवाने के लिए बात पक्की। वह आपको भरपूर विश्वास दिलाकर भी अपने बताए हुए दिन पर नहीं आया।
यह क्या होता जा रहा है आदमी की जबान को और उसके द्वारा दिए गए भरोसे को ! काम आपका, पैसा आपका, समय आपका, आने-जाने की कसरत आपकी, सहनशीलता की परीक्षा भी आपकी।
अपने शब्दों की लाज न रखने वाले उपर्युक्त प्रकार के व्यक्तियों का चरित्र निम्न स्तर का होता है, क्योंकि वे अपने प्रिय ग्राहकों के साथ विश्वासघात करते हैं।
आदमी को अनमोल बोलों का धनी बनने के लिए अपनी कथनी-करनी में भेद न करने का वशीकरण यंत्र बनाना पड़ता है।
अपना तात्कालिक काम निकालने के लिये बहकाने वाली जबान का इस्तेमाल करने वाले आगे-पीछे निश्चित रूप से लोगों की नजरों से गिर जाते हैं। दूसरी ओर, अपनी जबान का इन्सानी उपयोग करने वालों का कद समाज में कितना ऊँचा उठता चला जाता है, उसे उनके मुँह से दिन-रात निकलने वाली सूक्तियाँ बताती हैं। अच्छा आदमी अपनी जबान को चमड़े का कामचलाऊ टुकड़ा नहीं, मानवता का कवच मानता है।
Tuesday, November 8, 2011
Sunday, November 6, 2011
बोलते विचार 30 - आशीर्वाद की वास्तविकता
आशीर्वाद की वास्तविकता
एक बाजार से छिटपुट खरीदारी करके वापस आते हुए एक बुजुर्ग महोदय का शक्कर से भरा पॉलिथीन पैकेट गली में गिरकर किनारे से फट गया और उसमें से शक्कर निकलकर फैलने लगी। सड़क का फर्श पक्का और साफ था, इसलिये बुजुर्ग महोदय शक्कर को ऊपर-ऊपर से बटोरना चाहते थे। वे ऐसा करने ही वाले थे कि सामने से आती हुई दो अनजान लड़कियों में से एक ने तेजी से पास आकर इस काम में उनका हाथ बँटाना शुरू कर दिया। काम पूरा हो जाने पर बुजुर्ग ने ‘धन्यवाद बेटी’ कहते हुए उस विवाह योग्य लड़की को आशीर्वादात्मक भाव से स्नेहपूर्वक यह भी कह दिया कि ‘सुखी रहो, तुम्हें खूब अच्छा पति मिले।’
संयोग से कुछ अंतराल के बाद ऐसा भी हो गया। जब वह युवती उन बुजुर्ग से लगभग एक वर्ष बाद अचानक फिर मिली तब उनसे नमस्ते करते हुए बोली, ‘दादाजी, आपने मुझे आशीर्वाद दिया था। मैं बहुत सुखी हूँ। आपका आशीर्वाद मुझे खूब फला है।’ जाहिर है कि लड़की के संस्कार बहुत अच्छे थे।
उसके जाने के बाद बुजुर्ग महोदय स्वयं से प्रश्न करने लगे कि क्या सचमुच उनकी आशीर्वाद में इतनी ताकत है कि वे केवल दो-चार वाक्य कहकर किसी को सुखी बना सकें ? उन्होंने विचार किया कि लोग अकसर आशीर्वाद दिया करते हैं और उनमें से बहुत से फलते भी हैं; पर ऐसा क्यों होता है ?
उनके दिमाग में एक बात यह आई कि उनके मुँह से सबके लिए नहीं, केवल अच्छों के लिए ही खुले दिल का आशीर्वाद निकलता है। शक्कर वाली घटना के दिन साथ वाली दूसरी लड़की के लिए तो नहीं निकला था; यद्यपि वह भी पास ही खड़ी थी, पर शायद हेकड़ थी। इस प्रकार का भेदात्मक व्यवहार प्रायः सब लोगों के जीवन में निसर्गतः घटित होता है। यदि आप स्वयं परयह बात लागू करके देखें तो पाएँगे कि आप किसी चोर और चरित्रहीन को सच्चा आशीर्वाद कभी नहीं देंगे कि जाओ, फलो-फूलो।
निष्कर्ष यह निकलता है कि आशीर्वाद पाने वाले श्रद्धावान् व्यक्ति को सुख वस्तुतः आशीर्वाद के कारण नहीं मिला करता है, वह उसकी स्वयं की अर्जित कमाई होता है। संकेतित उदाहरण में सुख पाने वाली पड़की पहले से ही खूब गुणी थी। जब वह एक अनजान व्यक्ति की मदद के लिये अचानक दौड़ सकती थी तब अपने सुख-दुःख के स्थायी साथी पति तथा अपने सगे बुजुर्ग सास-ससुर आदि के मन को मोह लेने में सिद्धहस्त क्यों नहीं होगी।
एक अन्य उदाहरण लें। एक छात्र एम.ए. (प्रीवियस) की परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर चुका था। वह फानइल की परीक्षा के कुछ पहले अपने एक श्रद्धेय टीचर के पास आशीर्वाद लेने पहुँचा। जब टीचर ने उसके लिए ‘सामान्य ढ़ंग से खूब अच्छा’ कह दिया तो वह बोला, ‘नहीं सर ! मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझे आशीर्वाद दीजिये। ‘ठीक है, भाई। छात्र के मन में विश्वास था कि यदि गुरूजी वैसा करेंगे तो वह फाइनल में भी जरूर टाप करेगा। वैसा आशीर्वाद देने में गुरूजी शुरू में कुछ सकुचा रहे थे कि कहीं उनका आशीर्वाद फेल न हो जाए; पर छात्र ने परीक्षाफल के समय उनकी पूरी इज्जत रख ली।
इस उदाहरण में भी छात्र ने टाप वस्तुतः स्वयं की निष्ठा और परिश्रम के बल पर किया था, पर श्रेय गुरूजी के आशीर्वाद को मिल गया। सच्चाई यह है कि वह छात्र टाॅप अन्यथा भी करता। साफ बात है कि गुरूजी किसी थर्ड क्लास छात्र को ऐसा आशीर्वाद नहीं दे सकते थे। उन्होंने ‘अच्छे’ को ‘अच्छा’ कहा, बस।
दरअसल जिन शिष्यों का भविष्य उज्जवल होना पहले से निश्चित रहता है, गुरूजी लोग उनके बारे में इस सत्य का उद्घाटन मात्र कर देते हैं आशीर्वाद देकर। वे कोई नई या जादूवाली बात नहीं करते। चूँकि ऐसे शिष्यों के संस्कार पहले से ही अच्छे होते हैं, इसलिये वे अपने को अहंकार से दूर रखकर बड़ों के आशीर्वाद को अपना संबल मानते हुए और भी जी-जान से अध्ययन करते हैं तथा अच्छा फल पाने के बाद भी स्वयं को उसका श्रेय न देकर उसे नम्रतापूर्वक आशीर्वाद का ही प्रताप स्वीकार करते हैं। ऐसे छात्रों के लिए उनके बड़ों के आशीर्वाद हरदम बरसने को आतुर रहते हैं। उनका महत्व वहीं समझता है, जो उन्हें पाने के योग्य होता है। वे सदभावनाओं के इंजेक्शन होते हैं। वे अहंकार की नस काटने वाले होते हैं।
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बोलते विचार 30
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
एक बाजार से छिटपुट खरीदारी करके वापस आते हुए एक बुजुर्ग महोदय का शक्कर से भरा पॉलिथीन पैकेट गली में गिरकर किनारे से फट गया और उसमें से शक्कर निकलकर फैलने लगी। सड़क का फर्श पक्का और साफ था, इसलिये बुजुर्ग महोदय शक्कर को ऊपर-ऊपर से बटोरना चाहते थे। वे ऐसा करने ही वाले थे कि सामने से आती हुई दो अनजान लड़कियों में से एक ने तेजी से पास आकर इस काम में उनका हाथ बँटाना शुरू कर दिया। काम पूरा हो जाने पर बुजुर्ग ने ‘धन्यवाद बेटी’ कहते हुए उस विवाह योग्य लड़की को आशीर्वादात्मक भाव से स्नेहपूर्वक यह भी कह दिया कि ‘सुखी रहो, तुम्हें खूब अच्छा पति मिले।’
संयोग से कुछ अंतराल के बाद ऐसा भी हो गया। जब वह युवती उन बुजुर्ग से लगभग एक वर्ष बाद अचानक फिर मिली तब उनसे नमस्ते करते हुए बोली, ‘दादाजी, आपने मुझे आशीर्वाद दिया था। मैं बहुत सुखी हूँ। आपका आशीर्वाद मुझे खूब फला है।’ जाहिर है कि लड़की के संस्कार बहुत अच्छे थे।
उसके जाने के बाद बुजुर्ग महोदय स्वयं से प्रश्न करने लगे कि क्या सचमुच उनकी आशीर्वाद में इतनी ताकत है कि वे केवल दो-चार वाक्य कहकर किसी को सुखी बना सकें ? उन्होंने विचार किया कि लोग अकसर आशीर्वाद दिया करते हैं और उनमें से बहुत से फलते भी हैं; पर ऐसा क्यों होता है ?
उनके दिमाग में एक बात यह आई कि उनके मुँह से सबके लिए नहीं, केवल अच्छों के लिए ही खुले दिल का आशीर्वाद निकलता है। शक्कर वाली घटना के दिन साथ वाली दूसरी लड़की के लिए तो नहीं निकला था; यद्यपि वह भी पास ही खड़ी थी, पर शायद हेकड़ थी। इस प्रकार का भेदात्मक व्यवहार प्रायः सब लोगों के जीवन में निसर्गतः घटित होता है। यदि आप स्वयं परयह बात लागू करके देखें तो पाएँगे कि आप किसी चोर और चरित्रहीन को सच्चा आशीर्वाद कभी नहीं देंगे कि जाओ, फलो-फूलो।
निष्कर्ष यह निकलता है कि आशीर्वाद पाने वाले श्रद्धावान् व्यक्ति को सुख वस्तुतः आशीर्वाद के कारण नहीं मिला करता है, वह उसकी स्वयं की अर्जित कमाई होता है। संकेतित उदाहरण में सुख पाने वाली पड़की पहले से ही खूब गुणी थी। जब वह एक अनजान व्यक्ति की मदद के लिये अचानक दौड़ सकती थी तब अपने सुख-दुःख के स्थायी साथी पति तथा अपने सगे बुजुर्ग सास-ससुर आदि के मन को मोह लेने में सिद्धहस्त क्यों नहीं होगी।
एक अन्य उदाहरण लें। एक छात्र एम.ए. (प्रीवियस) की परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर चुका था। वह फानइल की परीक्षा के कुछ पहले अपने एक श्रद्धेय टीचर के पास आशीर्वाद लेने पहुँचा। जब टीचर ने उसके लिए ‘सामान्य ढ़ंग से खूब अच्छा’ कह दिया तो वह बोला, ‘नहीं सर ! मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझे आशीर्वाद दीजिये। ‘ठीक है, भाई। छात्र के मन में विश्वास था कि यदि गुरूजी वैसा करेंगे तो वह फाइनल में भी जरूर टाप करेगा। वैसा आशीर्वाद देने में गुरूजी शुरू में कुछ सकुचा रहे थे कि कहीं उनका आशीर्वाद फेल न हो जाए; पर छात्र ने परीक्षाफल के समय उनकी पूरी इज्जत रख ली।
इस उदाहरण में भी छात्र ने टाप वस्तुतः स्वयं की निष्ठा और परिश्रम के बल पर किया था, पर श्रेय गुरूजी के आशीर्वाद को मिल गया। सच्चाई यह है कि वह छात्र टाॅप अन्यथा भी करता। साफ बात है कि गुरूजी किसी थर्ड क्लास छात्र को ऐसा आशीर्वाद नहीं दे सकते थे। उन्होंने ‘अच्छे’ को ‘अच्छा’ कहा, बस।
दरअसल जिन शिष्यों का भविष्य उज्जवल होना पहले से निश्चित रहता है, गुरूजी लोग उनके बारे में इस सत्य का उद्घाटन मात्र कर देते हैं आशीर्वाद देकर। वे कोई नई या जादूवाली बात नहीं करते। चूँकि ऐसे शिष्यों के संस्कार पहले से ही अच्छे होते हैं, इसलिये वे अपने को अहंकार से दूर रखकर बड़ों के आशीर्वाद को अपना संबल मानते हुए और भी जी-जान से अध्ययन करते हैं तथा अच्छा फल पाने के बाद भी स्वयं को उसका श्रेय न देकर उसे नम्रतापूर्वक आशीर्वाद का ही प्रताप स्वीकार करते हैं। ऐसे छात्रों के लिए उनके बड़ों के आशीर्वाद हरदम बरसने को आतुर रहते हैं। उनका महत्व वहीं समझता है, जो उन्हें पाने के योग्य होता है। वे सदभावनाओं के इंजेक्शन होते हैं। वे अहंकार की नस काटने वाले होते हैं।
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Friday, November 4, 2011
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