माटी कहे कुम्हार से .......... कबीरदास जी की ये पंक्तियाँ जहाँ नश्वरता को उल्लेखित करती है वहीं मिट्टी के मिट्टी में मिल जाने के शाश्वत सत्य को भी प्रतिपादित करती हैं।जी हाँ पचभूत तत्वों से निर्मित ये काया जीवन पर्यंत भी इस माटी के मोल से उऋण नहीं हो पाती। आज इसी सोधी और बहुमूल्य मिट्टी से बनी वस्तुओं को विषय बनाकर आप के लिए कुछ रोचक तथ्य लेकर आए हैं।
गर्मी का मौसम और सिर्फ एक गिलास ठंडे पानी का तलबगार प्रत्येक व्यक्ति। गर्मियों में रोज़ाना की बात है। पर गर्म मौसम में 40 से 46 डिग्री से.ग्रे. तापमान और कभी-कभी उससे भी ज़्यादा तापमान पर साधारणतया बिना किसी यांत्रिक सहायता के पानी ठंडा नहीं होता। शहरों में तो चलिए वाटर कूलर, चिलर और फ्रिज आदि मौजूद हैं, वो भी ख़ास वर्ग के लिए, पर आम आदमी ख़ासतौर पर दूरदराज के गाँव देहातों के वासी उन सुविधाओं से वंचित रहते हैं, पर गर्मियों में ठंडे पानी का आनंद वे भी लेते हैं - मिट्टी के मटकों, घड़े अथवा सुराहियों के माध्यम से। प्राचीन समय से ही मटके, सुराहियों का चलन कला ओर संस्कृति का माध्यम बनकर अपने यहाँ चला आ रहा है। आज भी विद्युत आपूर्ति ठप्प पड़ जाने पर हाथ के पंखों और सुराहियाँ ही आसरा बाँधते है। कच्ची मिट्टी सुन्दर-सुघड़ आकार पाकर गर्मियों में सूखते होठों, तालू और गले को तरावट देती है। मटके अथवा सुराही के रूप में - और मिट्टी को यह रूप प्रदान करने वाले कलाकार होते हैं कुम्हार या कुंभकार। जिनके लिए कवि की लेखनी बरबस कह उठी -
इनकी कृति ये घड़े ठंडे पानी के माध्यम से तो हमें शीतलता प्रदान करते ही हैं, संगीत में भी घटम् वाद्यम् के माध्यम से रस घेालते आए हैं।
शहरों में कुम्हार परिवार की पहचान हो या ना हो करीब-करीब हर गाँव में तीन चार कुम्हार परिवार ज़रुर मिल जाते है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी इससे अपने को अलग नहीं कर पाए हैं। लेकिन आज करीब देश भर के 6 करोड़ कुम्हार बदतर ज़िदगी बसर करने पर मजबूर हैं। पुश्तैनी धंधे से जुड़े कुम्हारों को दो वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा हैं। रेलगाड़ी में सफर करते वक्त भी ठंडा पानी रखने वाली बोतलों ने चंदिया की सुराहियों का महत्व कम कर दिया हैं। मिट्टी से बने मटकों की कीमत भले ही कम हो, लेकिन इसका महत्व ज़्यादा है। ट्रेन में चाय पीते वक्त कई लोग आज भी कुल्हड़ों या सकोरों में चाय पीना पसंद करते हैं। दही जमाने का काम भी ज़्यादातर मिट्टी के बर्तनों में किया जाता है। बढ़ते प्रदूषण से बचने के लिए प्राकृतिक वस्तुओं का इस्तेमाल करना चाहिए ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं और डॉक्टरों की राय है कि फ्रिज की जगह मटके और सुराहियों का इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि इनमें पानी पूरी तरह शुद्ध रहता है। जबकि फ्रिज का पानी पीने से गले के रोग होने की पूरी संभावना होती है।
वैसे भी शहर में भले ही मिट्टी के बर्तनों की माँग कम हो, गाँवों में आज भी इनकी माँग हैं। शादी के मौकों पर तो इनकी इतनी कद्र होती है कि ऑर्डर देकर मिट्टी के बर्तन बनवाए जाते हैं और तो और लोगों के घरों को मिट्टी के कलाकारों के बनाए हुए खपरैल छत एवं शीतलता प्रदान करते हैं। आजकल तो शीतरोधी घरों का ज़माना है जिनमें भी मिट्टी का ही उपयोग किया जाता है। लेकिन बात हो रही है मटकों की ओर ज़िक्र न हो पनघट का - क्या ये संभव है?
सोहनी महिवाल - लता - पनघट पे मोहे
मिट्टी का बना मटका गर्मियों में जब पानी से भरा जाता है, तो इसमें रखा पानी कुछ ही देर में ठंडा हो जाता है, लेकिन बरसात के दिनों में यही मटका पानी ठंडा करने के मामले में बेअसर साबित होता है। ऐसा क्यों जानते हैं आप? वाष्पीकरण का एक सिद्धांत है - जब भी कोई तरल पदार्थ वाष्पित होता है तो इसका तापमान गिर जाता है, क्योंकि वाष्पीकरण के लिए आवश्यक ऊष्मा स्वयं तरल पदार्थ से ही प्राप्त होती है। मिट्टी के घड़े में असंख्य छिद्र हाते हैं। भरे घड़े में से पानी इन छिद्रों में से बाहर आ जाता है और घड़े की बाहरी सतह से गर्मी के कारण इसमें तेज़ी से वाष्पन की क्रिया होती है, फलस्वरूप अंदर के पानी का तापमान गिरता जाता है। बरसात में वाष्पीकरण की क्रिया बहुत मंद गति से होती है, सो घड़ा बेकार सा हो जाता है। ख्ैर हम बरसात की नहीं, गर्मियों की बात कर रहे हैं और गर्मियों में मटके के ठंडे पानी की वजह वाष्पीकरण के कुछ और भी उदाहरण हैं - त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों से निकलने वाला पसीना पंखे की हवा में वाष्पित होता है और हमे ठंडक महसूस होती है। गर्मियों घर के बाहर या सड़कों पर पानी का छिड़काव किया जाता है, पानी वाष्पित होता है और हमे ठंडक महसूस होती है।अैार गर्मियों में ठंडे पानी से नहाने से तो ठंडक और तरावट दिन भर हमारे साथ रहती है।
पति, पत्नी ओर वो - ठंडे ठंडे पानी से नहाना चाहिए
एक जानकारी दें आपको, अपने नगर बिलासपुर में कई वर्षेंा पूर्व बस स्टैंड, करबला रोड और तेलीपारा का कुछ इलाका कुम्हारपारा के नाम से जाना जाता था जहाँ कई कुम्हार परिवार कई पीढ़ियों से चाक पर अपनी कलाएँ हमें परोसा करते थे। बहुत नाज़ुक होते है चाक पर बने ये मिट्टी के पात्र, ज़रा सा झटका लगता है और गिरकर चकनाचूर हो जाते हैं। लकिन साधारण मिट्टी को इस रूप तक लाने में कुम्हारों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है आप जानते हैं, पहले मिट्टी को एक गड्ढे में पानी से भरा जाता है। दूसरे दिन मिट्टी का गारा बनाया जाता है, इसमें से कंकड़-पत्थर आदि निकाले जाते हैं। गारे को गूँथकर मुलायम बनाया जाता है अंत में चाक पर मटका आदि बनाया जाता है। सुराही के लिए फर्मे का इस्तेमाल किया जाता है। जब मटका, सुराहिया कोई भी अन्य मिट्टी का बर्तन धूप में सूख जाता है, तब इन कच्चे बर्तनों को भट्टी में पकाया जाता है। पकने के बाद इनमें रंगाई की जाती है। तरह-तरह से इनको सजाया जाता है तब जाकर बनती है मिट्टी में जान फूँकने वाले इंजीनियरों की कृति, जिनमें ठेलों पर कहीं आम का पन्ना बिकता दीखता है, कहीं मटका कुल्फी का आनंद लेने वालों की भीड़। कुल मिलाकर सबको तरावट की चाह होती है।
अपना देश - लता - ओ बाबू पी लो नारियल पानी
आकार तुम्हारा साध्य रहा,
रूप ही सदा प्रतिपाद्य रहा,
मिट्टी के होकर तुमने ही,
मिट्टी की सुनी पुकार।
ओ कलाकार, ओ सृजनहार, ओ कुंभकार।
कुम्हार बाहर से ट्रकों में चिकनी मिट्टी मंगवाते हैं। प्रति ट्रक इन्हें 400 से 500 रु.देने पड़ते हैं । इनसे मटके सुराहियाँ बनाकर ये अन्य व्यापारियों को बेच देते हैं। इन व्यापारियों से हमें पता चला कि इनकी गम्रियों के समय 500-600 रु. तक की बिक्री प्रतिदिन हो जाती है ओर बरसात में मात्र 100-150 रु.की। प्रतिवर्ष इनकी बिक्री में कमी होती जा रही है ओर इनका कहना है कि ये गिराव इतनी तेज़ी से हो रहा है कि कुछ वर्षों बाद हमे ये पात्र शायद देखने को भी नसीब न हों। लेकिन हरछट पर छोटे-छोटे मटके, दीवाली के दिये, करवाचौथ के करवा ओर जन्माष्टमी की मटकी परंपराओं के साथ हमेशा जुड़ी रहेंगी हमारे साथ।
मैं एक सुराही हाला की,
इस मंदिर में पूजन मेरा,
निज भाग्य सराहा करते सब,
पाकर मादक दर्शन मेरा
मैं मिट्टी की थी, लाल हुई
मैं सुराही एक सुराही हाला की।
ये सुराही वो सुराही नहीं है जिसकी आज हम बात कर रहे हैं। बच्चन जी ने और कई कवियो ने अपनी कविताओं को अलंकृत करने के लिए इस शब्द का उपयोग किया है। ‘सुराहीदार गर्दन’ शब्द का उपयोग भी गद्यों-पद्यों में ख़ूबसूरती के वर्णन में किया जाना आम बात है। और अब घरों को ख़्ूाबसूरत बनाने के लिए मिट्टी के कुछ पात्रों का उपयोग आम बात हो गई है। सिरेमिक - इस शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के केरामोस शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है ‘कुम्हार की मिट्टी। आजकल इस शब्द का उपयोग सभी प्रकार की पॉटरी के लिए किया जाने लगा है। विभिन्न प्रकार के सिरेमिक भिन्न-भिन्न प्रकार कर मिट्टियों से बनाए जाते हैं, जिनमें फ्लिण्ट, फैल्सपार और चायना स्टोन जैसे पदार्थ मिलाए जाते हैं। मिट्टी और रेत के इस प्रकार के मिक्शचर को जिससे पात्र बनाए जाते हैं टेराकोटा कहा जाता है। आधुनिक यंत्रों, उपकरणों से बनाए जाने वाले इन मिट्टी के पात्रों की भी विधि वही है जो सामान्य मटके और सुराही बनाने की होती है, लेकिन ये ख़ूबसूरत पात्र शरीर को ठंडक और तरावट देने की जगह घर में सजकर आँखों को तरावट देते हैं। लेकिन घर से बाहर निकल कर जब मई जून की गर्मी पसीना पसीना कर देती है, तो दिल को तसल्ली देने के लिए कोई ऐसा गीत भी कम राहत नहीं देता।
उजाला - झूमता मौसम मस्त महीना
तो ये तो थीं कुछ बातें मिट्टी ओर मिट्टी से बने पात्रों की। और बस विदा की इस बेला में इतना ज़रूर कहेंगे -
इत्र मिट्टी का लगाना याहिए, पोशाक में,
ख़ाक से रक़बत रहे, मिलना है इक दिन ख़ाक में।