Saturday, March 26, 2011

बोलते शब्‍द 19

यदि‍ आपके मन में कोई और शब्‍द जोडा हो जि‍सका अंतर आप जानना चाहें तो हमें लि‍ख भेजें....भाषावि‍द् डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा आपकी भाषा संबंधी परेशानी का समाधान करेंगे.......

आज के शब्‍द हैं - 'पति‍ ' व 'पत्‍नी‍' और 'पका' व 'पक्‍का'......
आमतौर पर हम एक समान अर्थों वाले या समान दीखने वाले शब्‍दों को समझने में कठि‍नाई महसूस करते हैं। भाषावैज्ञानि‍क दष्‍ि‍ट से उनके सूक्ष्‍म अंतरों का वि‍श्‍लेषण शब्‍दों के जोडों के रूप 'बोलते शब्‍द' (लेबल) के अंतर्गत पॉडकास्‍ट के रूप क्रमश: प्रस्‍तुत कि‍ये जा रहे हैं.........

आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
वाचक -संज्ञा


37. 'पति‍ ' व 'पत्‍नी‍'




38. 'पका' व 'पक्‍का'......



Friday, March 25, 2011

बोलते शब्‍द 18

आज के शब्‍द हैं - 'नि‍लंबन ' व 'पदच्‍युति‍' और 'नेता' व 'मंत्री'......

आमतौर पर हम एक समान अर्थों वाले या समान दीखने वाले शब्‍दों को समझने में कठि‍नाई महसूस करते हैं। भाषावैज्ञानि‍क दष्‍ि‍ट से उनके सूक्ष्‍म अंतरों का वि‍श्‍लेषण शब्‍दों के जोडों के रूप 'बोलते शब्‍द' (लेबल) के अंतर्गत पॉडकास्‍ट के रूप क्रमश: प्रस्‍तुत कि‍ये जा रहे हैं.........

आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
वाचक -संज्ञा

35. 'नि‍लंबन ' व 'पदच्‍युति‍'


36. 'नेता' व 'मंत्री'


Thursday, March 24, 2011

शहीद दिवस


23 मार्च......शहीद दिवस....। आज के दिन शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने हँसते-हँसते भारत की आजादी के लिए 23 मार्च 1931 को 7:23 बजे सायंकाल फाँसी का फंदा चूमा था। आज का ये कार्यक्रम हम सर्मि‍पत करते हैं अपने देश को आजादी दि‍लाने वाले शहीदों को.......
मैं अमर शहीदों का चारण
उनके गुण गाया करता हूँ
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है,
मैं उसे चुकाया करता हूँ।
 
यह सच है, याद शहीदों की हम लोगों ने दफनाई है
यह सच है, उनकी लाशों पर चलकर आज़ादी आई है,
यह सच है, हिन्दुस्तान आज जिन्दा उनकी कुर्वानी से
यह सच अपना मस्तक ऊँचा उनकी बलिदान कहानी से।
पॉडकास्‍ट में शामि‍ल गीत की फि‍ल्‍में......शहीद नई व पुरानी, हकीकत, लीडर, प्रेमपुजारी आदि

एक बुलबुले-सा जीवन लिये वे आये और हज़ारों चिरागों से हमारे जीवन और देश को रौशन कर चुपचाप अनंत में लीन हो गये । उनमें से कुछ के नाम हम जानते हैं और बहुत-से नाम ऐसे भी हैं जो अतीत के अंधकार में खो गये । वे किसी धर्म के लिए नहीं लड़े थे । वे लड़े थे इस देश के लिए - एक अटूट, अखंड भारत के लिए  क्योंकि उन्हें से देश से दीवानेपन मुहब्बत थी । यह प्यार है ही ऐसा आप अपने प्रेमी या प्रेमिका को सर्वस्व समर्पित कर देते हैं पर फिर भी मन में एक हूक-सी उठती है कि नहीं अभी कुछ कमी है और आत्मा कह उठती है -
मन समर्पित, तन समर्पित और यह जीवन समर्पित
पर चाहता हूँ देश की धरत तुझे कुछ और भी दूँ ।      (समर्पण, कवि: राम अवतार त्यागी)
और वे इसी कुछ और भी देने की उम्मीद लिये हमसे दूर हो गये । हममें से कई कहेंगे कि क्या हुआ, उन्होंने बहुत कुछ पाया भी तो - हमारा आदर, सम्मान...लेकि‍न हमें मि‍ली है उनकी बदौलत ये बेशकीमती आजादी.....

 भगत सिंह प्रायः यह शेर गुनगुनाते रहते थे-
 जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है
 सर से कफन लपेटे कातिल को ढूँढ़ते हैं.
 भगत सिंह मूलतः मार्क्स व समाजवाद के सिद्धांतो से प्रभावित थे. इस कारण से उन्हेअंग्रेजों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी. ऐसी नीतियों के  
 पारित होने के खिलाफ़ विरोध प्रकट करने लिए क्रांतिकारियों ने लाहौर की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची. भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा ना 
हो तथा अंग्रेजो तक उनकी ‘आवाज़‘ पहुंचे. निर्धारित योजना के अनुसार भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंक दिया. वे चाहते तो भाग सकते थे पर भगत सिंह की सोच थी की गिरफ्तार होकर वेअपना सन्देश बेहतर ढंग से दुनिया के सामने रख पाएंगे. करीब २ साल जेल प्रवास के दौरान भगत सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से भी जुड़े रहे और लेखन व अध्ययन भी जारी रखा. इसी दौरान उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ. फांसी पर जाने से पहले तक भी वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे. जेल मे भगत सिंह और बाकि साथियो ने ६४ दिनो तक भूख हडताल की.२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई. फांसी पर जाते समय वे तीनों गा रहे थे -
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी .

फ़ासी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को लिखे पत्र में भगत सिह ने लिखा था -
उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा (अन्याय) क्या है
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है
दहर (दुनिया) से क्यों ख़फ़ा रहें,
चर्ख (आसमान) से क्यों ग़िला करें
सारा जहां अदु (दुश्मन) सही, आओ मुक़ाबला करें.

शहीद राजगुरु का पूरा नाम ‘शिवराम हरि राजगुरु‘ था. राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को पुणे ज़िले के खेड़ा गाँव में हुआ था, जिसका नाम अब ‘राजगुरु नगर‘ हो गया है. उनके पिता का नाम ‘श्री हरि नारायण‘ और माता का नाम ‘पार्वती बाई‘ था. बहुत छोटी उम्र में ही ये वाराणसी आ गए थे. यहाँ वे संस्कृत सीखने आए थे. इन्होंने धर्मग्रंथों तथा वेदो का अध्ययन किया तथा सिद्धांत कौमुदी इन्हें कंठस्थ हो गई थी. इन्हें कसरत का शौक था और ये शिवाजी तथा उनकी छापामार शैली के प्रशंसक थे. वाराणसी में इनका सम्पर्क क्रंतिकारियों से हुआ. ये हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए और पार्टी के अन्दर इन्हें ‘रघुनाथ‘ के छद्म नाम से जाना जाने लगा. चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और जतिन दास इनके मित्र थे. वे एक अच्छे निशानेबाज भी थे.
राजगुरु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे. 1919 में जलियांवाला बाग़ में जनरल डायर के नेतृत्व में किये गये भीषण नरसंहार ने राजगुरु को ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ बाग़ी और निर्भीक बना दिया तथा उन्होंने उसी समय भारत को विदेशियों के हाथों आज़ाद कराने की प्रतिज्ञा ली और प्रण किया कि चाहे इस कार्य में उनकी जान ही क्यों न चली जाये वह पीछे नहीं हटेंगे. जीवन के प्रारम्भिक दिनों से ही राजगुरु का रुझान क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ होने लगा था. अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक प्रदर्शन में पुलिस की बर्बर पिटाई से लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई थी. लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए राजगुरु ने 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज़ सहायक पुलिस अधीक्षक ‘जे. पी. सांडर्स‘ को गोली मार दी थी और ख़ुद ही गिरफ़्तार हो गए थे.


है अमर शहीदों की पूजा, हर एक राष्ट्र की परंपरा
उनसे है माँ की कोख धन्य, उनको पाकर है धन्य धरा,
गिरता है उनका रक्त जहाँ, वे ठौर तीर्थ कहलाते हैं,
वे रक्त—बीज, अपने जैसों की नई फसल दे जाते हैं।


मई, 1907 को पंजाब के लायलपुर, जो अब पाकिस्तान का फैसलाबाद है, में जन्मे सुखदेव भगत सिंह की तरह बचपन से ही आज़ादी का सपना पाले हुए थे। भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में पास-पास ही रहा करते थे.  ये दोनों ‘लाहौर नेशनल कॉलेज‘ के छात्र थे. दोनों एक ही सन में लायलपुर में पैदा हुए और एक ही साथ शहीद हो गए. इन्होने भगत सिंह, कॉमरेड रामचन्द्र एवम् भगवती चरण बोहरा के साथ लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन किया था. सांडर्स हत्या कांड में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का साथ दिया था. १९२९ में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में व्यापक हड़ताल में भाग लिया था. भगत सिंह और सुखदेव दोनों के बीच गहरी दोस्ती थी. चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में ‘पब्लिक सेफ्टी‘ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल‘ के विरोध में ‘सेंट्रल असेंबली‘ में बम फेंकने के लिए जब ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी‘ (एचएसआरए) की पहली बैठक हुई तो उसमें सुखदेव शामिल नहीं थे. बैठक में भगतसिंह ने कहा कि बम वह फेंकेंगे, लेकिन आज़ाद ने उन्हें इज़ाज़त नहीं दी और कहा कि संगठन को उनकी बहुत ज़रूरत है. दूसरी बैठक में जब सुखदेव शामिल हुए तो उन्होंने भगत सिंह को ताना दिया कि शायद तुम्हारे भीतर जिंदगी जीने की ललक जाग उठी है, इसीलिए बम फेंकने नहीं जाना चाहते. इस पर भगतसिंह ने आज़ाद से कहा कि बम वह ही फेंकेंगे और अपनी गिरफ्तारी भी देंगे. अगले दिन जब सुखदेव बैठक में आए तो उनकी आंखें सूजी हुई थीं. वह भगत को ताना मारने की वजह से सारी रात सो नहीं पाए थे. उन्हें अहसास हो गया था कि गिरफ्तारी के बाद भगतसिंह की फांसी निश्चित है. इस पर भगतसिंह ने सुखदेव को सांत्वना दी और कहा कि देश को कुर्बानी की ज़रूरत है. सुखदेव ने अपने द्वारा कही गई बातों के लिए माफी मांगी और भगतसिंह इस पर मुस्करा दिए थे.
जब-जब हम शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे शहीदों को याद करते हैं तो बरबस ये पंक्तियाँ याद आ ही जाती हैं
कभी वो दिन भी आयेगा, कि जब आजाद हम होंगे,
ये अपनी ही जमीं होगी, ये अपना आसमां होगा,
शहीदों कि चिताओं पर, लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का,यही नामों-निशां होगा.


क्या हमें पता भी है कि उन्हें कहाँ रात के अंधेरे में चुपके-से जलाया गया था ? क्या हमने उन्हें दिए वचनों का पालन किया? शुरुआत की तो उनकी कुर्बानियों पर अपने स्वार्थ को अधिक महत्त्व दे कर - हमने देश को बाँटा, उस देश को जो उनकी प्रेमिका थी, माँ थी । माँ या प्रेमिका बांटी नहीं जाती । अगर प्यार हो तो प्रेमिका पर सब न्यौच्छावर कर दिया जाता है, उसका कत्ल नहीं किया जाता । पर अपने नीहित स्वार्थ में हम भूल गए कि कोई रामप्रसाद बिस्मिल हो गए थे और भगतसिंह की ही तरह राजगुरू और अश्फ़ाक भी थे । इन प्रेमियों ने कहाँ चाहा था कि उनकी प्रेमिका की यह दुर्दशा की जाए। मगर हम सब भूल गये । बस याद है तो यही - मैं, मेरा... पर मैं और मेरा से ममत्व तक का सफ़र कठिन है... ममत्व से ममता आती है और माँ कहाँ बच्चे पर आँच आने देती है?

आइये आज उन शहीदों को याद करें और मन से उन्हें श्रद्धांजलि‍ अर्पित करें। उनके रक्त से सींचे गए स्थानों को नवयुग के तीर्थ बनायें जहाँ धर्म, जाति के भेदभाव के बिना बस अमरप्रेमी बन पहुँचें।

आभार उन सभी का जि‍नकी पंक्‍ि‍तयों या सामग्री का इस आलेख में प्रयोग कि‍या गया











Tuesday, March 22, 2011

काव्‍यभारती और 2000 गीतों के प्रणेता मनीष दत्‍त

 
काव्यभारती एक कला संस्थान जहां से सीखे बच्चे अपने आप में एक संस्थान बन कर पूरी तरह परिपक्व होकर निकले हैं। आपको ये जानकर आश्‍चर्य होगा कि‍ .......
1983 में निराला, मुकुटधर पांडेय आदि कवियों की रचनाओं पर सुपर 8 मिमी चलचित्र का निर्माण काव्य भारती ने किया।
1987 1987 में काव्य भारती का ‘अमर बेला‘ ग्रामोफोन रिकार्ड तैयार हुआ। यह रिकार्ड आज भी आकाशवाणी के सभी केन्द्रों से प्रसारित किया जाता है।
अब तक लगभग हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के 2000 गीत स्वरबद्ध किये हैं।

1960 में नाट्य भारती नाम से इस संस्था की स्थापना हुई थी जिसमें नाटक के साथ साहित्यिक गीतों के कार्यक्रम शुरू किये गए, धीरे-धीरे देखने, सुनने वालों की संख्या भी बढ़ती गई। इस बीच उन्होंने महाप्राण निराला के अपरा, नये पत्ते, अणिमा, बेला आदि पर नृत्य संगीत रूपक प्रस्तुत किये गए, निरंतर हिन्दी के साहित्यिक गीतों को स्वरबद्ध और नृत्यबद्ध कर प्रस्तुत किये गए। यहां के कलाकारों ने प्रसाद, पंत, जायसी, महादेवी, निराला, नीरज, बच्चन आदि की अनेक रचनाओं को प्रस्तुत किया। गायन, नृत्य, नृत्य नाट्य, काव्य पाठ तथा काव्य चित्रण आदि अलग-अलग विधाओं पर अखिल भारतीय स्तर की प्रतियोगिताएं काव्य भारती द्वारा प्रतिवर्ष की जाने लगी और इनमें लगभग 1500 प्रतियोगी विभिन्न स्थानों से आकर भाग लेने लगे। महादेवी वर्माजी के निर्देश और इच्छानुसार 3 जनवरी 1978 को ‘काव्य भारती कला संगीत मंडल‘ की विधिवत स्थापना की। काव्य भारती संस्थागत रूप में आगे बढ़ती रही तथा 1979 में खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय से संबद्ध होकर शास्त्रीय संगीत नृत्य का विद्यालय- कला संगीत वीथिका की स्थापना की और छात्र-छात्राओं को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देकर गायन-वादन और नृत्य की परीक्षा में उन्हें सम्मिलित कराने लगे। इससे एक फायदा काव्य भारती को हुआ, शास्त्रीय संगीत की परीक्षा में भाग लेने वाले इन्हीं छात्रों के सहयोग से काव्य भारती निरंतर कवियों की रचनाओं पर नये-नये कार्यक्रम देने लगी, इसमें कालीदास से लेकर वर्तमान तक के कवियों का कालजयी काव्य शामिल था।

काव्‍यभारती संस्‍था के संस्‍थापक मनीष दत्‍त, जि‍न्‍होंने सैकडों बच्‍चों को कलाकार बनाया, हजारों कलाप्रेमि‍यों को राह दि‍खाई, पूरा जीवन कला को सर्मि‍पत करने वाले गुरू मनीष दत्‍त जी आज 70 वर्ष के होकर भी सक्रि‍यता के साथ कलासाधना में जुटे हैं, अनके बारे में एक जानकारी.....  ‍
एक मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार में 10 मई 1940 को मनीष दत्त का जन्म छत्तीसगढ़ (भारत)  के बिलासपुर जैसे छोटे से शहर में हुआ। पिता स्व. सलिल कुमार दत्त लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर थे। वे भी पिता की तरह इंजीनियर बनना चाहते थे।किन्तु 12 वर्ष की उम्र में जयदेव नाटक में मंचावतरण के बाद उनकी रूचियां बदल गई और वे नाटकों के दीवाने हो गये। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण पढ़ाई में तो कोई व्यवधान नहीं पड़ा किन्तु उन्होंने कला और नाटकों के दीवानगी में अपने भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं सोचा। यहां तक कि अपने परिवारिक दायित्वों से विमुख ही रहे। कला संगीत और नाटकों में रूचि लेने वाले बालक मनीष दत्त जिनका वास्तविक नाम सुनील दत्त है, ने 16 वर्ष की अल्पायु में संकल्प लिया कि वे हिन्दी साहित्यिक गीतों को सरल और गेय बनाकर हिन्दी समाज में प्रचारित करेंगे। बंगाली परिवार में जन्म लेने के कारण उनके सामने गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का उदाहरण था। बांग्ला भाषी लोग रवीन्द्रनाथ, काजी नजरूल इस्लाम, डी.एल. राय आदि कवियों की रचनाओं को बड़े गर्व के साथ गाते थे जबकि हिन्दी कवियों की रचनाएं पोथियों और कक्षा की चारदीवारी तक ही सीमित थी। यह विरोधाभास बालक मनीष को सालता था इसीलिये उन्होंने संकल्पित होकर अपनी कल्पना को मूर्त रूप देना शुरू किया।

हिन्दी भाषी समाज के लिये काव्य भारती और मनीष दत्त द्वारा किया गया यह कार्य मौलिक तथा मूल्यवान है। लेकि‍न विगत 56 वर्षों में मनीष दत्त द्वारा किये गये कार्य आज देख-भाल के अभाव में नष्ट होने के कगार पर है। इनके गीतों, नृत्यों नाटकों तथा नृत्य नाटिकाओं में हमारे देश की उच्चतम और भव्य संस्कृति का निरूपण है। अतएव यह आवश्यक है कि हम अपनी आज की इस उपलब्धि को कल की पीढ़ी के लिए सहेज कर और संरक्षित करके रखे ताकि समय आने वाली भावी पीढ़ी तथा दूर-दूर में फैले हुए रूचि सम्पन्न लोग इसका उपयोग कर सकें।
तात्कालिक आवश्यकता
1. 2000 गीतों को पुनः गीत और नृत्य के रूप में व्यवस्थित और स्तरीय रिकार्डिंग करना। ताकि ऐसे लोगों तक, जिन्हें इसकी आवश्यकता है, इसे पहुंचाया जा सके तथा इनका संग्रह भी तैयार हो सके।

2. मनीष दत्त की उम्र हो चुकी है और वे ही अकेले व्यक्ति है जिनका यह संपूर्ण सृजन है, अतएव यह आवश्यक है कि उनके जीवन काल में ही उन्हीं के निर्देशन में सारे गीतों, नृत्यों और नाटिकाओं की पुनः प्रस्तुति की जाए, ताकि इसके स्वरूप और मंतव्य में किसी प्रकार का कमी न हो या विकृति न हो।

इसीलिए हम-आप तक पहुंचे है  कि आप स्वविवेक से अपना यथासाध्य सहयोग इस पुनीत कार्य में स्वयं हाथ बंटाने तथा लोगों को प्रेरित करने आगे आवें। यह हिन्द और हिन्दी के लिए अत्यंत आवश्यक है। बूंद-बूंद से सागर भरता है। आपका छोटा आर्थिक अनुदान या सहयोग चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो संस्कृति का महासागर बनकर लहरायेगा इसे आप सच माने।  
                                                                                                                             काव्‍यभारती वेबसाइट से साभार
काव्‍यभारती की वेबसाइट का लिंक  http://kavyabharti.org/activities.html


और अब काव्‍यभारती पर आधारि‍त आकाशवाणी बि‍लासपुर में नि‍र्मि‍त व म;प्र; व छ;ग; के सभी केन्‍द्रों से प्रसारि‍त समि‍न्‍वत रूवक  'भारत में है वि‍श्‍वास'  की ऑफलाइन रि‍कार्डिग का पॉडकास्‍ट आपके लि‍ये.....प्रस्‍तुति‍, आलेख व वाचक स्‍वर सुप्रि‍या भारतीयन का है 


Monday, March 21, 2011

बोलते शब्‍द 17

आज के शब्‍द हैं - 'धमकी ' व 'चेतावनी' और 'नमस्‍ते' व 'प्रणाम'......

आमतौर पर हम एक समान अर्थों वाले या समान दीखने वाले शब्‍दों को समझने में कठि‍नाई महसूस करते हैं। भाषावैज्ञानि‍क दष्‍ि‍ट से उनके सूक्ष्‍म अंतरों का वि‍श्‍लेषण शब्‍दों के जोडों के रूप 'बोलते शब्‍द' (लेबल) के अंतर्गत पॉडकास्‍ट के रूप क्रमश: प्रस्‍तुत कि‍ये जा रहे हैं.........


आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
वाचक -संज्ञा

33. 'धमकी ' व 'चेतावनी'



34. 'नमस्‍ते' व 'प्रणाम'






बांस गीत संरक्षण व बीबीसी हि‍न्‍दी पर रि‍पोर्ट

           छत्‍तीसगढ में लोकगीतों और गाथाओं का समृद्ध इति‍हास रहा है। ले‍कन अब अनेक लोक कलाएं लुप्‍त होने की कगार पर हैं। इनके संरक्षण के प्रयास भी हो रहे हैं, परन्‍तु इतने प्रयास शायद नाकाफी हैं, गम्‍मत को जीवि‍त करने के लि‍ये संस्‍कृति‍ वि‍भाग द्वारा आयोजि‍त कार्यशाला व लगातार प्रदर्शन इस कला में कुछ जान फूंकने में मददगार साबि‍त हुए हैं। भरथरी लोककला के सीमि‍त कलाकार अपने प्रदर्शनों से वाहवाही लूटने में समर्थ हैं परन्‍तु इसके संरक्षण के लि‍ये अपने को अक्षम पाते हैं कमोबेश यही स्‍ि‍थति‍ बांसगीत की है। यदुवंशि‍यों में प्रचलित बांस लोकवाद्य को फूंककर विशेष ध्वनि के साथ गीत एवं गाथा की प्रस्तुति बांस गीत की अद्भुत कला विलुप्तता के कगार पर पहुंच चुकी है । बावजूद इसके कहीं-कहीं अब भी इस कला की अभिव्यक्ति करते लोग नजर भी आ जाते हैं । वहीं कुछ कला मर्म ऐसी विधाओं को संरक्षित करने में जुटे हुए हैं ।
            बांसगीत के बारे में कहा जाता है कि यह बांसुरी का ही एक रूप है । कभी वनों में पोले बांस से हवा गुजरने से उत्पन्न प्राकृतिक ध्वनि ही बंशी अथवा बांसुरी की प्रेरक बनी। तृण जाति की प्रसिद्ध वनस्पति विशेष बांस की ढाई से तीन हाथों तक लंबी इस बांस की पोली नली में बांसुरी की भांति छिद्र बना लेते हैं । चार की संख्या वाले छिद्रों में से एक आर.पार होता है और शेष तीन फलक तक सीमित होते हैं । इन्हीं छिद्रों से मुंह से फूंक कर स्वर लहरी प्राप्त की जाती है। वादक इसके छिद्रों को अपनी अंगुलियों से आवृत-अनावृत कर आरोह-अवरोह के जरिए स्वर संचालन करते हैं ।  गीत कहार अपने कानों में हाथ लगाकर लहराते हुए विविध भाव. भंगिमाओं से अपनी तान छेडता है । गीतों का आरंभ में ये विभिन्न देवी.देवताओं को जोहार.प्रणाम.करते हैं जिसे स्थानीय बोली में ‘जोहारनीन’ कहते हैं । गीतों में अन्तर्निहीत भावों के अनुरूप गीतकहार स्वयं को नायक के स्थान पर प्रतिस्थापित कर प्रसंगानुकूल मुद्राओं का संयोजन भी करने लगता है ।
            बांसकहार अपने बांस से ध्वनि निकालकर स्वरों में ढालते हुए प्रचंड स्वरघोष उच्चारित करता है मानो शुभ कार्य के आरंभ से पूर्व शंखघोष कर मंगल ध्वनि से आपूरित कर देना चाहता हो । इस घोष को छत्तीसगढी में घोर कहा जाता है। बांसगीत गायकों की टोली में कम से कम तीन सदस्य होते हैं । एक बांस गीतों का गायन करने गीतकहार, दूसरा बांस वादन करने वाला बांसकहार तथा तीसरा गीतकहार के राग में राग मिलाने वाला रागी कहलाता है। गीतकहार अपने हाथों को कानों से लगाकर ही गाता है जिससे वह हाथों को संचालित करके गाने का अवसर नहीं जुटा पाता । फिर भी वह पूरी देह को लहराने, मुख पर विभिन्न भावों को व्यक्त करने तथा उठने बैठने का संयोजन कर ही लेता है । भाव भंगिमाओं के अतिरिक्त इनमें स्वरालाप एवं स्वर परिवर्तन की अद्भुत क्षमता होती है । गीतकहार बीच-बीच में अर्थ भी स्पष्ट करना नहीं भूलता ताकि सुनने वालों को कथानक को समझने में आसानी हो सके ।
                छत्तीसगढ में बांस गीत को संरक्षित करने की दिशा में  डा. सोमनाथ यादव ने काफी काम कि‍या है। इनको पिछले वर्ष राष्ट्रीय संगीत अकादमी ने बनारस में बांसगीत पर किए गए शोध पठन के लिए आमंत्नित किया गया था । इसी तरह दक्षिण मध्य क्षेत्नीय सांस्कृतिक केंद्र नागपुर द्वारा बांस गीत के संदर्भ में एक शोध ग्रंथ का प्रकाशन तथा डाक्यूमेंटरी फिल्म का निर्माण भी किया गया है । बांस गीत गायकों के लिए गांव की किसी गली का चबूतरा ही उनका मंच बन जाता है । बांस गीतों की टोली में शामिल रागी की भूमिका महत्वपूर्ण भले नहीं होती हो फिर भी वह टोली का सक्रिय सदस्य होता है । लोक कथाओं में हुंकृति भरते हुए वह गीतकहार के काम को सरल बनाता है। जब कभी गायक पंक्ति को शुरू करके छोड देता है उसे वही पूरा करता है ।

               'झुरमुट में गुम बांस गीत की मिठास' व 'आज भी भाव-विभोर कर देता है बाँस गीत' शीर्षकों से डॉ;महेश परि‍मल के बलॉग संवेदनाओं के पंख पर बांस गीत की अच्‍छी जानकारी प्राप्‍त है

http://dr-mahesh-parimal.blogspot.com/2008/07/blog-post_21.html

http://dr-mahesh-parimal.blogspot.com/2010/05/blog-post_21.html 

वि‍गत 19 मार्च को बीबसी हि‍न्‍दी पर बांस संरक्षण को लेकर रायपुर के सलमान रावी की एक रि‍पोर्ट का प्रसारण कि‍या गया जि‍सकी ऑफलाइन रि‍कॉर्डिग करके आपके लि‍ये हमने पॉडकास्‍ट बनाया है ....सुनकर प्रति‍क्रि‍या देना न भूलें......