Friday, September 30, 2011

Bolte Shabd 53

बोलते शब्‍द 53
हि‍न्‍दी भाषा के दो जोड़े शब्‍दों के सूक्ष्‍म अंतरों की ये श्रृंखला प्रति‍ सोमवार व शुक्रवार को प्रकाशि‍त होती है......
 
आज के शब्‍द जोड़े  हैं -
      
'कुत्‍ता काटना' और 'कुत्‍ते का काटना'केन्‍द्रीय' और 'केन्‍द्रीकृत'




आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          

स्‍वर      - संज्ञा टंडन


105. 'कुत्‍ता काटना' और 'कुत्‍ते का काटना





106. 'केन्‍द्रीय' और 'केन्‍द्रीकृत'



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                    Sangya, Kapila

Wednesday, September 28, 2011

Bolte Vichar 19 - दांपत्य सुख

बोलते वि‍चार 19

आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

एक पत्नी महोदया बहुत सुखी हैं, पर उन्हें अपने पतिदेव से यह स्थायी शिकायत है कि वे उनकी कुछ बातें न मानकर उन्हें कभी-कभी काफी दुःखी कर देते हैं जरा इस बात को पति की ओर से लागू करके इस प्रकार सोचिए कि क्या पति को पत्नी की सौ में से सौ बातों को मानना जरूरी है? उत्‍तर यह है कि यदि ऐसा है तो पति को पति न कहकर ‘अलादीन के चिराग का जिन्न’ कहा जाना चाहिए।

 इसी तरह एक पति महोदय बहुत हद् तक सुखी हैं, लेकिन उनका कहना है कि चूंकि वे अपनी श्रीमतीजी की कुछ बातें ऐसी भी स्वीकार कर लिया करते है जिन्हें वे बेहद नापसंद करते हैं, इसलिए श्रीमतीजी उन्हें कभी-कभी अत्यंत पीड़ा देनेवाली लगने लगती है। अब जरा पत्नी के हक में यह बात सोचिए कि क्या पति महोदय को इतना बड़ा तानाशाह होना चाहिए कि उन्हें अपनी इच्छा के प्रतिकूल पत्नी की कुछ इच्छाएँ पूरी करने में पीड़ा होनी चाहिए?क्या पत्नी को उनकी    विविध-पक्षीय सेवा करने का इनाम सिर्फ दो रोटियाँ हैं?यदि ऐसा है तो पत्नी को पत्नी न कहकर बिना बोलनेवाली बँधुआ मजदूर कहा जाना चाहिए।


सुखी दांपत्य जीवन का यह मतलब नहीं है कि केवल पति यो केवल पत्नी की इच्छाएँ पूरी हों और सौ प्रतिशत पूरी हों। सौ प्रतिशत इच्छाएँ भगवान भी किसी की पूरी नहीं कर पाए। यदि पति-पत्नी की कुछ इच्छाएँ एक-दूसरे की विपरीत इच्छाओं और परिस्थितियों की वजह से पूरी नहीं हो पाती हैं तो दोनों को इतनी भारी शिकायत क्यों होनी चाहिए कि उसके कारण वे अन्यथा मिल रहे और उससे मिल सकनेवाले पर्याप्त सुख में आग लगाकर विकट रूप से दुःखी हो जाते हैं। वे इस दृष्टि से क्यों नहीं सोचते कि उनका जीवन-साथी उन्हें दुःखी कभी-कभी ही देता है (वह हर बात में चैबीसों घंटे, तीन सौ पैसठ दिन दुःख दे ही नहीं सकता-कोई भी किसीको नहीं दे सकता), जबकि सुख उससे कई गुना अधिक देता है-बहुत से क्षेत्रों में और जब भी कुछ देता है तक उसकी खुद की कोई इच्छा पूरी हो रही होती है अर्थात् उससे ‘उसे’ सुख मिल रहा होता है। अब इनसानियत की बात यह है कि जो व्यक्ति बहुत प्रकार से आपके निरंतर काम आता हुआ आपको अनेकानेक सुख देता है,उसके किसी (आपसे मतभेद वाले) निजी सुख की खातिर आपको कुछ दुःख झेलने में तकलीफ नहीं होनी चाहिए। उलटे, ऐसे दुःख सहन करने के लिए आपको हमेशा तैयार रहना चाहिए। यदि आप दोनों से इतनी सहनशीलता अर्जित कर ली तो समझ लीजिए कि आपका दांपत्य जीवन परम सुखी हो गया। तब तो आपमें परस्पर होड़ लग जाएगी कि कौन दूसरे को ज्यादा सुख देता है और कौन दूसरे की खातिर खुद अधिकाधिक सहन करने को तैयार रहता है।

 दरअसल आदमी यह तो खूब याद रखता है कि उसने दूसरे के लिए क्या-क्या किया, पर यह भूल जाता है कि दूसरे ने उसके लिए क्या-क्या किया। वह यह भी दोहराना नहीं भूलता कि दूसरे ने उसके लिए क्या-क्या नहीं किया। पिता बच्चों के लिए कितना करता है,यह बच्चे नहीं सोच पाते। इसके विपरीत, जो कुछ पिता उनके लिए नहीं कर पाता, उसके लिए वे शिकायत करते रहते हैं। इसे जरा इस तरह भी सोचिए कि कितन करते हैं। (यहाँ यह बताने की जरूरत नहीं हैं कि जो पिता-बच्चे इस मामल में आदर्श होते हैं, उनपर परिवार और समाज को नाज होता है।)

 बहुत ऊँचे स्तर पर तो यह भी सुनने को मिलता है कि यह कभी मत पूछो कि तुम्हारे देश ने तुम्हारे लिए क्या किया, होना खुद से पूछों कि तुमने देश के लिए क्या किया। वस्तुतः जो देशभक्त देश के लिए कुछ करते हैं, उन्हें देश सिर-आँखों पर बैठाता है। वह उन्हें अमर कर देता है।

 अब फिर अपने घर वापस आइए-कि इसी प्रकार यदि आप सामान्य व्यक्ति हैं तो सापेक्षतावाद के अनुसार जितना अधिक आप आपने जीवन-साथी के लिए करते हैं उतना ही अधिक आपको प्रतिदान में मिलता है, देर-सबरे, चाहे किसी भी रूप में-प्रेम के रूम में, सेवा के रूप में, समर्पण के रूप में, धन-संपत्‍ति‍ के रूप में, सहयोग के रूप में, संतोष के रूप में, कुल मिलाकर सुख के रूप में। (यदि आप घुणा करते हैं तो घृणा के रूप में भी।)

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Tuesday, September 27, 2011

Bolte shabd 52

बोलते शब्‍द 52
हि‍न्‍दी भाषा के दो जोड़े शब्‍दों के सूक्ष्‍म अंतरों की ये श्रृंखला प्रति‍ सोमवार व शुक्रवार को प्रकाशि‍त होती है......
 
आज के शब्‍द जोड़े  हैं -
      
'कब्‍ज़' और 'कब्‍ज़ा'कि‍नारा' और 'पुलि‍न'




आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          

स्‍वर      - संज्ञा टंडन


103. 'कब्‍ज़' और 'कब्‍ज़ा
 

104. 'कि‍नारा' और 'पुलि‍न'


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Sunday, September 25, 2011

Bolte Vichar 18 - व्यस्तता या प्राथमिकता?

बोलते वि‍चार 18

आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

जब आपका कोई मित्र या संबंधी आदि आपसे बार-बार अपनी व्यस्तता की दुहाई देता हुआ यह कहने लगता है कि उसे बिलकुल समय नहीं मिल पा रहा है, वह कामों से बहुत घिरा है तो समझ लीजिए कि अब वह आपये दूर ‘खुद में और अन्यों में’इतना अधिक लीन हो चुका है कि आपको थोड़ा भी समय देने में तकलीफ महसूस करने लगा है। उसकी बहानेबाजी को भाँपिए और जान लीजिए कि अपने को महीनों तक हर वक्त व्‍यस्त खुद को जरूरत से ज्यादा महत्‍व देना और सामनेवाले के अस्तित्व की बिलकुल परवाह न करना है।


संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हो सकता,जिसे साँस लेने की फुरसत न मिलती हो (मुहावरे के मज़ाक को छोडि़ए)देश के प्रधानमंत्री तक के पास निकट के और दूर के लाखों के लिए समय होता है। वे अपने इच्छा के (और अनिच्छा के भी) कामों में किसी भी सामान्य आदमी से कम व्यस्त नहीं होते,बल्कि शायद यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि वे ही नहीं,अपने-अपने हिसाब से प्रत्येक व्यक्ति होता है-कोई मजदूरी-नौकरी में, कोई घर-गृहस्थी में, कोई रेडियो-टी.वी. में, कोई खाने-सोने में।
व्यस्तताएँ सिर्फ दूसरों को बताने के लिए होती हैं, जबकि मूल में ‘सिर्फ अपनी प्राथमिकताएँ’ होती हैं। प्रत्येक सामान्य आदमी दिन भर में दर्जनों छोर्ट-बड़े काम करता है और दर्जनों स्थगित कर देता है-अपने भी,दूसरों के भी। उन सबमें वह अपनी प्राथमिकताएँ ढूँढता है। व्यस्तताओं का  आधार प्राथमिकताओं के अलावा कुछ नहीं है। वह बात आगमी तथ्य से भी पुष्ट हो जाती है कि कभी-कभी अन्य प्राथमिकता के कारण भारी-भरकम समारोह तक आखिरी मौके पर रद्द कर दिए जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति ‘व्यस्त’ रहता है तो वह किसी पर अहसान नहीं करता है; क्योंकि वह जो कुछ भी करता है, ‘सिर्फ अपने लिए’ करता है-स्वेच्छा से या मजबूरी में। ‘मजबूरी में’ भी ‘सिर्फ अपने लिए’ इसलिए कि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसका अपेक्षाकृत अधिक नुकसान होने की स्थिति बन जाएगी। इसी तरह जब वह ‘दूसरों के लिए’व्यस्त रहता है तब भी वह ‘अपने लिए’ ही जीता है-अपने कर्तव्य के लिए’ व्यस्त रहता है तब भी वह ‘अपने लिए’ ही जीता है-अपने कर्तव्य के लिए व्यस्त रहकर, अपने संतोष के लिए व्यस्त रहकर, अपने नाम और यश के लिए व्यस्त रहकर।
असल बात यह है कि कर्म को जीवन की अनिवार्यता माननेवाले व्यक्ति ‘व्यस्तता’ और ‘रिक्तता’ में से सदा ‘व्यस्तता’ को चुनते हैं।’ आराम हराम है’ उक्ति के पीछे भी यही उद्देश्य है कि आदमी खाली न रहे,वह अपने और समाज के उत्‍तरोत्‍‍तर विकास के लिए निरंतर कार्यरत रहे। हाथ पर हाथ रखकर बैठनेवाले व्यक्ति को भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। ‘कर्महीन’ शब्द इसीलिए गाली बन गया है।
यदि निठल्लों की बात छोड़ दी जाए तो सामान्यतया हर आदमी अपने आगामी दिनों में    अधिकाधिक व्यस्त होता जाता है,क्योंकि उसके संबंध और दायित्व बढ़ते जाते है। आज आपके जितने परिचित हैं। कल उससे अधिक संख्या में हो जाएँगे। नए-नए संबंधों के नित्य बढ़ते जाने के कारण आपके लिए यह संभव नहीं रह जाता कि आप पिछले सारे संबंधों को उसी घनिष्ठता और तीव्रता के साथ बनाए रख सकें। माँ-बेटी तक के संबंधों के बारे में यह सच्चाई है कि बेटी की शादी के बाद जैसे-जैसे समय का अंतराल बढ़ता जाता है तब पीछे की चीजें छूटना जरूरी हैं। हम आगे के दिनों में अपने संबंधों के मामले में ही नहीं,यदि किसी भी मामले में आगे नहीं बढ़े तो जहाँ-के-तहाँ रूके रह जाएँगे। हर प्रवाह का यह वैशिष्ट्य रहता है कि पुरानी चीजें जाती रहती हैं और नई चीजें आती रहती हैं;नए-नए विचार मन में आते जाते हैं और विचार दबते चले जाते है; ‘पुराना’ मरता जाता है, ‘नया’ पैदा होता जाता है। यदि केवल पुरानों से हमने सारी जगह घेरे रखी तो नयों के लिए जगह नहीं बचेगी।

एक घटनाक्रम इस प्रकार है। पहले साल गुरूजी के शिष्यों में से दस ने उन्हें पत्र लिखें। उन दसों को गुरूजी के उत्‍तर मिले। अगले साल ऐसे दस शिष्य और बढ़ गए। अब गुरूजी बीस उत्‍तरों के लिए बँध गए। यह सिलसिला आगे बढ़ने पर गुरूजी अपने सबके सब पुराने और नए शिष्यों को पत्रोत्‍तर देने में कमजोर पड़ने लगे। नयों से संपर्क बढ़ने की कीमत पर पिछले कितने ही शिष्यों से पत्राचार बनाए रखने की क्षमता गुरूजी में नहीं बची। कुछ समय बाद उन्हें अपने अनेक शिष्यों से संबंध कम करने ही पड़े। यदि वे ऐसा न करते तो पढ़ाना-लिखाना आदि छोड़कर दिन-रात चिट्ठियाँ ही लिखते रहते। श्रीकृष्ण जी भी जब द्वारिका गए तब व्रजवासियों से अपना संबंध बनाए नहीं रख सके।
इस सब चर्चा के संदर्भ में चिंतन के लिए आधार वाक्य यह बनता है कि अपनी चाहत के सामने दूसरों की व्यस्तताओं और दायित्वों के बारे में ने सोच पाना हमारा अज्ञान भी ही और हमारी स्वार्थपरता भी।

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Friday, September 23, 2011

Bolte Shabd 51

बोलते शब्‍द 51
हि‍न्‍दी भाषा के दो जोड़े शब्‍दों के सूक्ष्‍म अंतरों की ये श्रृंखला प्रति‍ सोमवार व शुक्रवार को प्रकाशि‍त होती है......
 
आज के शब्‍द जोड़े  हैं -
      
'उल्‍लू' और 'गधा'कम्‍बख्‍़त' और 'अभागा'




आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          

स्‍वर      - संज्ञा टंडन


101. 'उल्‍लू' और 'गधा


102. 'कम्‍बख्‍़त' और 'अभागा'


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Wednesday, September 21, 2011

Bolte Vichar 17 - दान जरूर दें, पर किसे?

बोलते वि‍चार 17
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
दान करना बहुत अच्छी बता है,क्योंकि उससे त्याग करने की क्षमता बढ़ती है;और ‘सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणाम वैराग्यं एवाभवम्’ के अनुसार संसार में त्याग ही एकमात्र ऐसी वस्तु है,जो अभय प्रदान करती हैं,वरना प्रत्येक वस्तु भय उत्पन्न करनेवाली होती है। गांधीजी के राजनीतिक गुरू गोपाल कृष्ण गोखले ने भारतीय परंपरा के अनुसार सार्वजनिक जीवन में त्याग करने पर विशेष बल दिया था। उनका कहना था -‘त्याग नेक जीवन का सिद्धांत है और लोग जो कुछ प्राप्त करते हैं,उससे महान नहीं बनते;बल्कि वे जो कुछ त्यागते हैं, उससे महान बनते हैं।’


 उपर्युक्त के आधार पर त्याग और दान उपयोगिता और महत्‍ता की दृष्टि से जुड़वाँ भाई हैं। लेकिन त्याग विवेकपूर्ण होना चाहिए और दान सुपात्र को दो दिया जाना चाहिए। आगे की पंक्तियों में किसी भारी दान की बात न करके केवल भिक्षा या भीख जैसे रोजमर्रा के दान की बात की गई है।

 भिक्षा या भीख माँगनेवाले हट्टे-कट्टे भिक्षार्थी कभी सुपात्र नहीं हो सकते, क्योकि वे हाथ फैलाने के अलावा कुछ नहीं करते। यदि आप अंध धार्मिक या अति भावुक बनकर उनके भोजन-पानी आदि की व्यवस्था में सहयोग देते हैं तो आप उन्हें और भी नाकारा बनाते हैं। वे अपना पेट पालने के लिए अंधविश्वासी भक्तों और विवेकहीन दानियों को बेवकूफ बनाने का धंधा करते हैं। कई बार तो वे भिखमंगे लोग ठग ही नहीं,चोर-उचक्के भी होते हैं।वे आपसे कुछ माँगने तक तो आपके हितैषी बनकर कहते हैं कि वे आपके नाम का दिया जलाएँगे, आपके लिए दुआ माँगेंगे; पर यदि आपने उन्हें कुछ नहीं दिया, तक वे तत्काल आपका बुरा सोचते हुए आपके विरूद्ध बड़बड़ाते हुए निकल जाते हैं। उनका यह कहना कि उनकी दुआओं से आप संपन्न हो जाएँगे,निहायत मूर्खता की बात होती हैं; क्योंकि यदि उनकी दुआओं में थोड़ा भी दम होता तो वे अपने लिए भी दुआ माँगकर स्वयं संपन्न हुए बिना नहीं रह सकते थे।

कभी-कभी वे मंगते आपको डराकर-यदि आपने उन्हें दान नहीं दिया तो आपका अमुक नुकसान हो जाएगा,आपको झुकाना चाहते हैं; पर यह उनका सिर्फ चालूपन होता है। ऐसे दान-भुक्खड़ों से सावधान रहिए।

यदि आपको दान देना ही तो होनहार गरीब बच्चों को छात्रवृत्‍ति‍ दीजिए, अनाथों की जिंदगी बनाइए, अपाहिजों की मदद कीजिए, बेसहारा बीमारों का इलाज करवाइए, अभागी और संकटग्रस्त विधवाओं का विवाह करवाइए।

यदि आपका पेट अच्छी तरह से भर रहा है तो ओवर-ईटिंग की बिलकुल जरूरत नहीं हैं। अपनी समृद्धि में से थोड़ा अभाववालों के लिए भी कुछ करके देखिए, आपकी आत्मा खिल उठेगी। अपनी संपत्‍ति‍ का सही उपयोग कीजिए। आप अपने साथ उसमें से कुछ भी लेकर जानेवाले नहीं हैं।

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Monday, September 19, 2011

Bolte Shabd 50

बोलते शब्‍द 50
हि‍न्‍दी भाषा के दो जोड़े शब्‍दों के सूक्ष्‍म अंतरों की ये श्रृंखला प्रति‍ सोमवार व शुक्रवार को प्रकाशि‍त होती है......
 
आज के शब्‍द जोड़े  हैं -
      
'एवं' और 'तथा'एव' और 'आशु'


आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          

स्‍वर      - संज्ञा टंडन


99. 'एवं' और 'तथा





100. 'एव' और 'आशु' 








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Sunday, September 18, 2011

Bolte Vichar 16 - व्यक्ति-चयन और आलोचना का संसार

बोलते वि‍चार 16
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा


जिस प्रकार संसद और विधानसभा में पक्ष की अच्छी-से-अच्छी बातों का विपक्ष को  विरोध को विरोध करना ‘जरूरी’ होता है, (बुद्धि को तर्क हर बात के लिए मिल जाते हैं) उसी प्रकार किसी संस्था या टीम आदि के लिए जब सदस्य-चयन या पद-नामांकन किया जाता है तब उसमें कमियाँ निकालना ‘जरूरी’ होता है। यदि आप ऐसे निर्णय करने में दुनिया को सारी ईमानदारी लागा दें, तक भी आप पर पक्षपात के, गलत निर्णय के आरोप लगेंगे ही।
 


जब-जब भारत की क्रिकेट टीम के लिए खिलाड़ि‍यों का चयन होता है तब-तब अखबार ऐसे लांछनों से भर जाते हैं कि अमुक-अमुक को छोड़ दिया गया है। आलोचना करनेवाले व्यक्ति यह भूल जाते हैं कि टीम में स्थान पाने के हक़दार हमेशा खुली संख्या में और काफी ज्यादा होते हैं;जबकि चयन किए जानेवालों की संख्या एकदम नपी-नपाई और सीमित होती है। तदनुसार कितनों को ही छोड़ा जाना लाज़मी होता है। अब क्या करें? किन अनुभवी और पुराने खिलाड़ि‍यों को चांस दें अथवा न दें? हर क्रिकेट-प्रेमी की पसंद के हर अच्छे खिलाड़ी को कैसे रखें? संतोष करने के लिए जवाब है कि टीम का चयन करने के बाद भगवान् भी आलोचना से नहीं बच सकते।

किसी नौकरी के इंटरव्यू के बाद जब चयन सूची घोषित होती है तब हफ्तों तक गलत चयन होने की चर्चा चलती रहती है। कुछ लोग निर्णय के विरूद्ध कोर्ट तक चले जाते हैं। अधिकतार प्रत्याशी यह सोचते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है,वरना चयन के लिए वे ही सबसे उपयुक्त छात्र थे। चयन समिति के यथासंभव सही निर्णय पर भी पक्षपात के दाग़ जरूर लगते हैं, क्योंकि चुने इने-गिने प्रत्याशी ही जाते हैं, जबकि रिजेक्ट कई गुने प्रत्याशी होते हैं- पूरी तरह योग्य होने के बावजूद। कुछ लोग कहते हैं कि यदि चयन समिति के सदस्य दूसरे होते तो निर्णय दूसरा होता। बिलकुल संभव है। लेकिन इस कथन में शिकायत वाली बात कुछ नहीं होनी बिलकुल संभव है। लेकिन इस कथन में शिकायतवाली बात कुछ नहीं होनी चाहिए,क्योंकि भिन्न सदस्यों की रूचि और दृष्टि‍कोण प्रायः भिन्न होता है। कभी-कभी तो एक ही आदमी कभी कुछ और कभी कुछ निर्णय देता है। न्यायालयों तक के फैसले बदल जाते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि चपन के समय चयन करती है,पर बाद में वह व्यक्ति एकदम उलटा निकल या बन जाता है और चयन समिति कहती है कि हमने गलत चयन किया था। संसार ऐसी ही है। गलत होना तो गलत है ही;सही होना भी सही नहीं हैं।किसी निबंध प्रतियोगिता में या पुस्तक लेखन में पुरस्कार के लिए संबंधित जज लोग अपने निर्णय के लिए अकसर विवादों के घेरे में डाल दिए जाते हैं। मुश्किल यह है कि कई प्रतियोगी और भागीदार स्वयंभू जज बनकर खुद को ही श्रेष्ठतम घोषित करने के लिए पैदा हुआ करते हैं। बेईमानों की बात यहाँ नहीं हो रही है-यदि जज लोग ईमानदार निर्णय के लिए अपनी जान लगा दें, तब भी वे आरोपों से नहीं बच सकते। यही दुनिया है।

यद्यपि मनुष्यों की ‘एकमत’ होने की कोशिशें चलती रहती हैं और इस कार्य में सफलता भी मिलती रहती है,पर स्वाभाविकता इसमें हैं कि मनुष्यों में मतभेद हों,क्योंकि कोई भी दो व्यक्ति पूर्णतः समान परिवेश में नहीं पले होते और वे किसी भी तथ्य को पूर्णतः एक ही कोण से नहीं देखते। इस वास्तविकता से यह सीख ली जा सकती है कि यदि किसी निर्णय के विरूद्ध आवाजें उठती हैं तो इस घटना को यह समझते हुए सामान्य मानना चाहिए कि ऐसा तो होना ही है। संसार की यही रीति है।
इससे हममें अपने निर्णयों की आलोचना को झेलने की शक्ति आएगी।

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Friday, September 16, 2011

बोलते शब्‍द 49

बोलते शब्‍द 49
हि‍न्‍दी भाषा के दो जोड़े शब्‍दों के सूक्ष्‍म अंतरों की ये श्रृंखला प्रति‍ सोमवार व शुक्रवार को प्रकाशि‍त होती है......
 
आज के शब्‍द जोड़े  हैं -
      
'उद्देश्‍य' और 'ध्‍येय'ए मुन्‍ना' और 'ए मुन्‍ने'


आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          

स्‍वर      - संज्ञा टंडन


97. 'उद्देश्‍य' और 'ध्‍येय' 




98. 'ए मुन्‍ना' और 'ए मुन्‍ने'


Wednesday, September 14, 2011

हि‍न्‍दी दि‍वस - शुद्ध हि‍न्‍दी शब्‍दों वाले गीतों के साथ कुछ बातें




हि‍न्‍दी दि‍वस पर हि‍न्‍दी फि‍ल्‍मों के कुछ ऐसे गीत जि‍समें शुद्ध हि‍न्‍दी शब्‍दों का प्रयोग हुआ है, कुछ अंशों के साथ......कुछ बातें हमारी भी....



आकाशवाणी बि‍लासपुर से रजनीगंधा कार्यक्रम में प्रसारि‍त


भाषा अपनायें, हि‍न्‍दुस्‍तान को वि‍कास के पथ पर बढ़ायें.......



Bolte Vichar 15 - पैर छुआने का मर्म

बोलते वि‍चार 15 
बोलते ‍वि‍चार श्रृंखला प्रति‍ बुधवार व रवि‍वार को प्रकाशि‍त की जाती है


बच्चों से माता-पिता आदि के,बहुओं से सास-समुर आदि के और शिष्यों एवं अन्य छोटों से गुरू आदि के पैर क्यों छुआए जाते हैं? वे इसलिए छुआए जाते हैं कि पैर छूने वाले व्यक्‍ति‍ के मन में नम्रता और श्रद्वा के गुण विकसित हों। वह बड़ों को बड़ा मानना सीखे।

बड़ों को बड़ा मानना अच्छे संस्कारों की बात है और स्वयं में एक चारित्रिक गुण है, भले ही हम स्वविवेक से उनकी कुछ या बहुत सी मान्यताओं और स्थापनाओं से सहमत न हों। दूसरों को इज्ज़त देने से अपनी बेइज्ज़ती कभी नहीं होती, उलटे अहंकार का नाश होता है।



हमारे बड़े हमसे अपेक्षित इज्ज़त पाकर हमारे प्रति केवल सद्भाव बनाए रखते हैं, तब भी हम फायदे में ही रहते हैं। ‘श्रद्धावाँल्लभते’ के अनुसार हमें किसी पर श्रद्धा रखने से कुछ-न-कुछ   लब्ध ही होता है।

यों तो नमित होने की चरम स्थिति के द्योतन के लिए ‘सिर, हाथ, पैर, हदय, आँखों, जौंधे, वचन, मन’ आठों से एक साथ जमीन पर लेटकर किया जानेवाला साष्टांग प्रणाम सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण प्रणति प्रकार है,पर सिर्फ खुशामद दिखाने के लिए किसीके पैरों पर धड़ से गिर जाना उसे रिश्वत देने के समान है। यदि ऊपरी तौर पर आप किसीके पैर पूजें,पर मन के भीतर उसे उस वक्त गालियाँ देते रहें तो ऐसा नाटक आपको सही आदमी नहीं बनने देगा।

कई बार आधुनिकता का तकाजा पैर छूने-छुआने को पसंद नहीं करता। इसमें कोई परेशानी की बात नहीं है। यदि आपके मन में किसी के प्रति श्रद्धा है और आपका वह बड़ा भी आपसे पैर छुआने में विश्वास नहीं करता है तो जरा सा भी झुकने की ज़हमत मत लीजिए,बस मन के भीतर ईमानदार रहते हुए ऊपर से ‘दुआ-सलाम’ मात्र को अच्छे-से-अच्छे आदर भाव के लिए पर्याप्त समझिए।

कोई अन्य व्यक्ति किसके, कब, कहाँ पैर छू रहा है, इसका हिसाब रखना आपके लिए जरूरी नहीं हैं; आप तो बस पैर छूने-छुआने के मर्म को केवल ‘अपने’और ‘अपने बड़ों’के आपसी संदर्भ तक सीमित रखें। वही आपके लिए उपयोगी है। वही आपके जीवन की गाड़ी को अच्छेपन की दिशा में दूर-दूर तक ले जाएगा।

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Tuesday, September 13, 2011

बोलते शब्‍द 48

बोलते शब्‍द 48
हि‍न्‍दी भाषा के दो जोड़े शब्‍दों के सूक्ष्‍म अंतरों की ये श्रृंखला प्रति‍ सोमवार व शुक्रवार को प्रकाशि‍त होती है......
 
आज के शब्‍द जोड़े  हैं -
      
'आवेदन' और 'नि‍वेदन'ऑफि‍स‍' और 'हॉकी'


आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          
स्‍वर      - संज्ञा टंडन


95. 'आवेदन' और 'नि‍वेदन




95. 'ऑफि‍स‍' और 'हॉकी'





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Sunday, September 11, 2011

Bolte Vichar 14 - गंदगी और सफाई


 एक उच्च पदस्थ अधिकारी के मकान के सामने जानेवाली नाली में जगह-जगह इतना कचरा फँस गया था कि कीचड़ और अन्य गंदगी ऊपर की ओर फैलने से रास्ते में आगे-पीछे खूब   सड़ाँध फैल रही थी। उन्होंने खुद नाली को सफाई करनी शुरू कर दी, जिसे देखकर अड़ोस-पड़ोस के कुछ लोगों ने उन्हें इज्ज़त देते हुए उनसे कहा, ‘अरे, आप यह सब क्यों कर रहे हैं? यह काम जमादार का है। आपके हाथ गंदे हो जाएँगे।’ इसपर अधिकारी महोदय ने जवाब दिया- ’मेरे हाथ इतने निरीह नहीं हैं कि कीचड़ आदि इन्हें बरबाद कर सके। ये साबुन से एक मिनट में जैसे-के-तैसे साफ हो जाएँगे।’ बात जँची।


सचमुच,यह क्या फालूत का नियम बना रखा है कुछ अविवेकी लोगों ने कि गंदगी की सफाई का काम सिर्फ जमादार लोग करेंगे। मानो जमादारों के हाथ किसी और मिट्टी के बने हों,जबकि सच्चाई यह है कि पैद सब लोग बिलकुल जमादारों और उनके बच्चों के समान ही होते हैं-सबके सब बिलकुल नंगे।

यदि सफाई करनेवाले व्यक्ति किसी कारण से कुछ दिन हड़ताली तौर पर नहीं आते हैं और आप खुद सफाई करने के काम को इतना हलका मानते हैं कि उससे आपका स्तर एकदम ढह जाता है तो आपके सामने यही विकल्प बचता है कि आप सड़ाँध को सूँघते रहिए, क्योंकि आप अपना मकान तो उठाकर किसी और जगह ले नहीं जा सकते।

 यहाँ ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नहीं’ को व्यापक संदर्भ में सोचा जा सकता हैं, जिसका भावार्थ निकलता है कि सुखी रहने के लिए स्वाधीनता अनिवार्य है। लेकिन आदमी का हर मामले में   स्वाधीन और आत्मनिर्भर रहना संभव है क्या? नहीं। तो फिर? तो फिर यह कि जहाँ-जहाँ भी वह पराधीनता की बोडि़यों को तोड़ सकता है वहाँ-वहाँ उन्हें तोड़कर अपने को परवशता अर्थात् गुलामी से मुक्त रखना सीखे... जबकि उपर्युक्त प्रकरण में वह ऐसे लोगों का गुलाम बन जाता है- उनपर पूर्णतः निर्भर होकर-जिन्हें वह अपने से बहुत छोटा मानने का भ्रम और दंभ पाले रहता है।

स्थिति यह है कि नगरों की आधी बस्तियाँ गंदी रहा करती है,जिसके लिए जिसके लिए जिम्मेदार प्रायः सभी नागरिक हुआ करते हैं। अब जरा यह सोचिए कि क्या यह बात अनैतिक नहीं है कि गंदगी हम लोग करें और सफाई दूसरे लोग करें-इसी प्रकार गंदगी सब लोग करें और सफाई कुछ लोग करें। सफाई करना किसी भी पूर्वाग्राहमुक्त दृष्टि से गंदी बात नहीं हो सकती। माँ बच्चों की और नर्सें मरीजों की परिचर्या में क्या कुछ नहीं करतीं। हम भी अपने शरीर की हर गंदगी को खुद साफ करते ही हैं। इसलिए यदि हम झूठी शान और भोंडी परंपरा को छोड़कर आवश्यकतानुसार आसपास की भी थोड़ी-बहुत सफाई करने की हिम्मत जुटा लें तो हमें उससे तत्काल मिल सकने वाला सुख ढूँढ़ने के लिए किसी और के पास नहीं दौड़ना पड़ेगा। यदि आपको लगे कि आपके पास समय नहीं हैं तो सबके लिए गांधीजी को याद कर लीजि‍ए, जिनके पास आपकी तुलना में निश्‍ि‍चत रूप से बहुत कम समय था।

Friday, September 9, 2011

bolte shabd 47

बोलते शब्‍द 47 
हि‍न्‍दी भाषा के दो जोड़े शब्‍दों के सूक्ष्‍म अंतरों की ये श्रृंखला प्रति‍ सोमवार व शुक्रवार को प्रकाशि‍त होती है......
 
आज के शब्‍द जोड़े  हैं -
      
'आपातकाल' और 'आपत्‍काल'आबरू‍' और 'रुआब'


आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          
स्‍वर      - संज्ञा टंडन


93. 'आपातकाल' और 'आपत्‍काल

94. 'आबरू‍' और 'रुआब'




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