बोलते विचार 19
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
एक पत्नी महोदया बहुत सुखी हैं, पर उन्हें अपने पतिदेव से यह स्थायी शिकायत है कि वे उनकी कुछ बातें न मानकर उन्हें कभी-कभी काफी दुःखी कर देते हैं जरा इस बात को पति की ओर से लागू करके इस प्रकार सोचिए कि क्या पति को पत्नी की सौ में से सौ बातों को मानना जरूरी है? उत्तर यह है कि यदि ऐसा है तो पति को पति न कहकर ‘अलादीन के चिराग का जिन्न’ कहा जाना चाहिए।
इसी तरह एक पति महोदय बहुत हद् तक सुखी हैं, लेकिन उनका कहना है कि चूंकि वे अपनी श्रीमतीजी की कुछ बातें ऐसी भी स्वीकार कर लिया करते है जिन्हें वे बेहद नापसंद करते हैं, इसलिए श्रीमतीजी उन्हें कभी-कभी अत्यंत पीड़ा देनेवाली लगने लगती है। अब जरा पत्नी के हक में यह बात सोचिए कि क्या पति महोदय को इतना बड़ा तानाशाह होना चाहिए कि उन्हें अपनी इच्छा के प्रतिकूल पत्नी की कुछ इच्छाएँ पूरी करने में पीड़ा होनी चाहिए?क्या पत्नी को उनकी विविध-पक्षीय सेवा करने का इनाम सिर्फ दो रोटियाँ हैं?यदि ऐसा है तो पत्नी को पत्नी न कहकर बिना बोलनेवाली बँधुआ मजदूर कहा जाना चाहिए।
सुखी दांपत्य जीवन का यह मतलब नहीं है कि केवल पति यो केवल पत्नी की इच्छाएँ पूरी हों और सौ प्रतिशत पूरी हों। सौ प्रतिशत इच्छाएँ भगवान भी किसी की पूरी नहीं कर पाए। यदि पति-पत्नी की कुछ इच्छाएँ एक-दूसरे की विपरीत इच्छाओं और परिस्थितियों की वजह से पूरी नहीं हो पाती हैं तो दोनों को इतनी भारी शिकायत क्यों होनी चाहिए कि उसके कारण वे अन्यथा मिल रहे और उससे मिल सकनेवाले पर्याप्त सुख में आग लगाकर विकट रूप से दुःखी हो जाते हैं। वे इस दृष्टि से क्यों नहीं सोचते कि उनका जीवन-साथी उन्हें दुःखी कभी-कभी ही देता है (वह हर बात में चैबीसों घंटे, तीन सौ पैसठ दिन दुःख दे ही नहीं सकता-कोई भी किसीको नहीं दे सकता), जबकि सुख उससे कई गुना अधिक देता है-बहुत से क्षेत्रों में और जब भी कुछ देता है तक उसकी खुद की कोई इच्छा पूरी हो रही होती है अर्थात् उससे ‘उसे’ सुख मिल रहा होता है। अब इनसानियत की बात यह है कि जो व्यक्ति बहुत प्रकार से आपके निरंतर काम आता हुआ आपको अनेकानेक सुख देता है,उसके किसी (आपसे मतभेद वाले) निजी सुख की खातिर आपको कुछ दुःख झेलने में तकलीफ नहीं होनी चाहिए। उलटे, ऐसे दुःख सहन करने के लिए आपको हमेशा तैयार रहना चाहिए। यदि आप दोनों से इतनी सहनशीलता अर्जित कर ली तो समझ लीजिए कि आपका दांपत्य जीवन परम सुखी हो गया। तब तो आपमें परस्पर होड़ लग जाएगी कि कौन दूसरे को ज्यादा सुख देता है और कौन दूसरे की खातिर खुद अधिकाधिक सहन करने को तैयार रहता है।
दरअसल आदमी यह तो खूब याद रखता है कि उसने दूसरे के लिए क्या-क्या किया, पर यह भूल जाता है कि दूसरे ने उसके लिए क्या-क्या किया। वह यह भी दोहराना नहीं भूलता कि दूसरे ने उसके लिए क्या-क्या नहीं किया। पिता बच्चों के लिए कितना करता है,यह बच्चे नहीं सोच पाते। इसके विपरीत, जो कुछ पिता उनके लिए नहीं कर पाता, उसके लिए वे शिकायत करते रहते हैं। इसे जरा इस तरह भी सोचिए कि कितन करते हैं। (यहाँ यह बताने की जरूरत नहीं हैं कि जो पिता-बच्चे इस मामल में आदर्श होते हैं, उनपर परिवार और समाज को नाज होता है।)
बहुत ऊँचे स्तर पर तो यह भी सुनने को मिलता है कि यह कभी मत पूछो कि तुम्हारे देश ने तुम्हारे लिए क्या किया, होना खुद से पूछों कि तुमने देश के लिए क्या किया। वस्तुतः जो देशभक्त देश के लिए कुछ करते हैं, उन्हें देश सिर-आँखों पर बैठाता है। वह उन्हें अमर कर देता है।
अब फिर अपने घर वापस आइए-कि इसी प्रकार यदि आप सामान्य व्यक्ति हैं तो सापेक्षतावाद के अनुसार जितना अधिक आप आपने जीवन-साथी के लिए करते हैं उतना ही अधिक आपको प्रतिदान में मिलता है, देर-सबरे, चाहे किसी भी रूप में-प्रेम के रूम में, सेवा के रूप में, समर्पण के रूप में, धन-संपत्ति के रूप में, सहयोग के रूप में, संतोष के रूप में, कुल मिलाकर सुख के रूप में। (यदि आप घुणा करते हैं तो घृणा के रूप में भी।)
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