Sunday, September 18, 2011

Bolte Vichar 16 - व्यक्ति-चयन और आलोचना का संसार

बोलते वि‍चार 16
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा


जिस प्रकार संसद और विधानसभा में पक्ष की अच्छी-से-अच्छी बातों का विपक्ष को  विरोध को विरोध करना ‘जरूरी’ होता है, (बुद्धि को तर्क हर बात के लिए मिल जाते हैं) उसी प्रकार किसी संस्था या टीम आदि के लिए जब सदस्य-चयन या पद-नामांकन किया जाता है तब उसमें कमियाँ निकालना ‘जरूरी’ होता है। यदि आप ऐसे निर्णय करने में दुनिया को सारी ईमानदारी लागा दें, तक भी आप पर पक्षपात के, गलत निर्णय के आरोप लगेंगे ही।
 


जब-जब भारत की क्रिकेट टीम के लिए खिलाड़ि‍यों का चयन होता है तब-तब अखबार ऐसे लांछनों से भर जाते हैं कि अमुक-अमुक को छोड़ दिया गया है। आलोचना करनेवाले व्यक्ति यह भूल जाते हैं कि टीम में स्थान पाने के हक़दार हमेशा खुली संख्या में और काफी ज्यादा होते हैं;जबकि चयन किए जानेवालों की संख्या एकदम नपी-नपाई और सीमित होती है। तदनुसार कितनों को ही छोड़ा जाना लाज़मी होता है। अब क्या करें? किन अनुभवी और पुराने खिलाड़ि‍यों को चांस दें अथवा न दें? हर क्रिकेट-प्रेमी की पसंद के हर अच्छे खिलाड़ी को कैसे रखें? संतोष करने के लिए जवाब है कि टीम का चयन करने के बाद भगवान् भी आलोचना से नहीं बच सकते।

किसी नौकरी के इंटरव्यू के बाद जब चयन सूची घोषित होती है तब हफ्तों तक गलत चयन होने की चर्चा चलती रहती है। कुछ लोग निर्णय के विरूद्ध कोर्ट तक चले जाते हैं। अधिकतार प्रत्याशी यह सोचते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है,वरना चयन के लिए वे ही सबसे उपयुक्त छात्र थे। चयन समिति के यथासंभव सही निर्णय पर भी पक्षपात के दाग़ जरूर लगते हैं, क्योंकि चुने इने-गिने प्रत्याशी ही जाते हैं, जबकि रिजेक्ट कई गुने प्रत्याशी होते हैं- पूरी तरह योग्य होने के बावजूद। कुछ लोग कहते हैं कि यदि चयन समिति के सदस्य दूसरे होते तो निर्णय दूसरा होता। बिलकुल संभव है। लेकिन इस कथन में शिकायत वाली बात कुछ नहीं होनी बिलकुल संभव है। लेकिन इस कथन में शिकायतवाली बात कुछ नहीं होनी चाहिए,क्योंकि भिन्न सदस्यों की रूचि और दृष्टि‍कोण प्रायः भिन्न होता है। कभी-कभी तो एक ही आदमी कभी कुछ और कभी कुछ निर्णय देता है। न्यायालयों तक के फैसले बदल जाते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि चपन के समय चयन करती है,पर बाद में वह व्यक्ति एकदम उलटा निकल या बन जाता है और चयन समिति कहती है कि हमने गलत चयन किया था। संसार ऐसी ही है। गलत होना तो गलत है ही;सही होना भी सही नहीं हैं।किसी निबंध प्रतियोगिता में या पुस्तक लेखन में पुरस्कार के लिए संबंधित जज लोग अपने निर्णय के लिए अकसर विवादों के घेरे में डाल दिए जाते हैं। मुश्किल यह है कि कई प्रतियोगी और भागीदार स्वयंभू जज बनकर खुद को ही श्रेष्ठतम घोषित करने के लिए पैदा हुआ करते हैं। बेईमानों की बात यहाँ नहीं हो रही है-यदि जज लोग ईमानदार निर्णय के लिए अपनी जान लगा दें, तब भी वे आरोपों से नहीं बच सकते। यही दुनिया है।

यद्यपि मनुष्यों की ‘एकमत’ होने की कोशिशें चलती रहती हैं और इस कार्य में सफलता भी मिलती रहती है,पर स्वाभाविकता इसमें हैं कि मनुष्यों में मतभेद हों,क्योंकि कोई भी दो व्यक्ति पूर्णतः समान परिवेश में नहीं पले होते और वे किसी भी तथ्य को पूर्णतः एक ही कोण से नहीं देखते। इस वास्तविकता से यह सीख ली जा सकती है कि यदि किसी निर्णय के विरूद्ध आवाजें उठती हैं तो इस घटना को यह समझते हुए सामान्य मानना चाहिए कि ऐसा तो होना ही है। संसार की यही रीति है।
इससे हममें अपने निर्णयों की आलोचना को झेलने की शक्ति आएगी।

Production - Libra Media Group, Bilaspur (C.G.) India

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