एक उच्च पदस्थ अधिकारी के मकान के सामने जानेवाली नाली में जगह-जगह इतना कचरा फँस गया था कि कीचड़ और अन्य गंदगी ऊपर की ओर फैलने से रास्ते में आगे-पीछे खूब सड़ाँध फैल रही थी। उन्होंने खुद नाली को सफाई करनी शुरू कर दी, जिसे देखकर अड़ोस-पड़ोस के कुछ लोगों ने उन्हें इज्ज़त देते हुए उनसे कहा, ‘अरे, आप यह सब क्यों कर रहे हैं? यह काम जमादार का है। आपके हाथ गंदे हो जाएँगे।’ इसपर अधिकारी महोदय ने जवाब दिया- ’मेरे हाथ इतने निरीह नहीं हैं कि कीचड़ आदि इन्हें बरबाद कर सके। ये साबुन से एक मिनट में जैसे-के-तैसे साफ हो जाएँगे।’ बात जँची।
सचमुच,यह क्या फालूत का नियम बना रखा है कुछ अविवेकी लोगों ने कि गंदगी की सफाई का काम सिर्फ जमादार लोग करेंगे। मानो जमादारों के हाथ किसी और मिट्टी के बने हों,जबकि सच्चाई यह है कि पैद सब लोग बिलकुल जमादारों और उनके बच्चों के समान ही होते हैं-सबके सब बिलकुल नंगे।
यदि सफाई करनेवाले व्यक्ति किसी कारण से कुछ दिन हड़ताली तौर पर नहीं आते हैं और आप खुद सफाई करने के काम को इतना हलका मानते हैं कि उससे आपका स्तर एकदम ढह जाता है तो आपके सामने यही विकल्प बचता है कि आप सड़ाँध को सूँघते रहिए, क्योंकि आप अपना मकान तो उठाकर किसी और जगह ले नहीं जा सकते।
यहाँ ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नहीं’ को व्यापक संदर्भ में सोचा जा सकता हैं, जिसका भावार्थ निकलता है कि सुखी रहने के लिए स्वाधीनता अनिवार्य है। लेकिन आदमी का हर मामले में स्वाधीन और आत्मनिर्भर रहना संभव है क्या? नहीं। तो फिर? तो फिर यह कि जहाँ-जहाँ भी वह पराधीनता की बोडि़यों को तोड़ सकता है वहाँ-वहाँ उन्हें तोड़कर अपने को परवशता अर्थात् गुलामी से मुक्त रखना सीखे... जबकि उपर्युक्त प्रकरण में वह ऐसे लोगों का गुलाम बन जाता है- उनपर पूर्णतः निर्भर होकर-जिन्हें वह अपने से बहुत छोटा मानने का भ्रम और दंभ पाले रहता है।
स्थिति यह है कि नगरों की आधी बस्तियाँ गंदी रहा करती है,जिसके लिए जिसके लिए जिम्मेदार प्रायः सभी नागरिक हुआ करते हैं। अब जरा यह सोचिए कि क्या यह बात अनैतिक नहीं है कि गंदगी हम लोग करें और सफाई दूसरे लोग करें-इसी प्रकार गंदगी सब लोग करें और सफाई कुछ लोग करें। सफाई करना किसी भी पूर्वाग्राहमुक्त दृष्टि से गंदी बात नहीं हो सकती। माँ बच्चों की और नर्सें मरीजों की परिचर्या में क्या कुछ नहीं करतीं। हम भी अपने शरीर की हर गंदगी को खुद साफ करते ही हैं। इसलिए यदि हम झूठी शान और भोंडी परंपरा को छोड़कर आवश्यकतानुसार आसपास की भी थोड़ी-बहुत सफाई करने की हिम्मत जुटा लें तो हमें उससे तत्काल मिल सकने वाला सुख ढूँढ़ने के लिए किसी और के पास नहीं दौड़ना पड़ेगा। यदि आपको लगे कि आपके पास समय नहीं हैं तो सबके लिए गांधीजी को याद कर लीजिए, जिनके पास आपकी तुलना में निश्िचत रूप से बहुत कम समय था।
Agar hum log sirf 5% bhee Gandhiji ka anusaran apni zindgi mein kare to hamari,samaj aur desh ki tasveer hee badal jayegi!
ReplyDeleteअच्छा लेख।
ReplyDeletebahut achha .
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