बोलते विचार 12
बोलते विचार श्रृंखला प्रति बुधवार व रविवार को प्रकाशित की जाती है
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
एक साहब ने जब अपने दोस्तों के बीच यह कहा कि गुप्तदान केवल वे लोग करते हैं,जिन्हें दो नंबर की कमाई छिपानी होती है या फिर बहुत ही कम राशि दान में देनी होती है,जैसे- दो-तीन रूपये,तो उनके एक पंडित दोस्त ने प्रतिवाद करते हुए उनसे पूछा,‘लेकिन पुराने जमाने में जब आय कर नहीं लगता था, तब भी गुप्तदान को महादान, क्यों कहा जाता था?’
साहब ने जवाब दिया-‘उसका कारण यह है कि जो लोग उस समय दान नहीं दिया करते थे,वे ईर्ष्यावश यह नहीं चाहते थे कि दान देनेवालों का समाज में नाम हो और यश फैले। दानदाता बेचारा अपने सीधेपन में खुद को ‘महादानी’मानने के चक्कर में गुप्तदान दे दिया करता था। जबकि असलियत यह है कि उसके ‘महादानी’ क्या, ‘दानी’ मात्र होने के बारे में भी कोई नहीं जान पाता था। उधर,दान लेनेवाला चालाक आदमी भी विविध कारणों से यह छिपाना चाहता था कि उसपर किस-किसने कृपा की है। वह दान की राशि आदि तो डकार लेता था,लेकिन दानी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित नहीं करना चाहना था। यह दान पानेवाले का ओछापन था।’
लेखक का मानना है कि दान देनेवाले आदमी को अपना नाम जरूर आउट करना चाहिए और जितना क्रेडिट उसका ड्यू हो उतना ईमानदारी से मिलना चाहिए। कम भी नहीं और ज्यादा भी नहीं। यह उसके अच्छे काम के पुरस्कार का तकाज़ा है। यह भी हो सकता है कि उसका नाम फैलने के कारण कुछ अन्य लोग उसके साथ कार्य विर्शष के लिए दान देने को प्रेरित हो जाएँ।
ढोंग करने की जरूरत नहीं हैं, सही अर्थों में हर प्रबुद्ध व्यक्ति नाम और यश के लिए जीता है। उसे उसके लिए जीना भी चाहिए,क्योंकि किसीको नाम और यश तभी मिलता है जब वह समाज के लिए कुछ करता है। सिर्फ अपने लिए करनेवाले लोग घोर असामाजिक और सबसे निम्न श्रेणी के प्राणी होते हैं। वे ही यश के बारे में नहीं सोच पाते, क्योंकि यह उनके कद से बहुत ज्यादा ऊँचाई पर होता है। उनके जीवन का लक्ष्य खा-पीकर पर माने के अलावा कुछ नहीं होता।
दूसरी बात यह है कि आदमी अपने साथ संसार से यश को छोड़कर कुछ भी नहीं ले जाता। न धन-संपत्ति,न शरीर का कोई अंश। इसके विपरीत,यश उसका साथ उसके मरने के सैकड़ों साल बाद तक देता है। हमारे लिए सबसे अधिक पूज्य विभूतियाँ भगवान् गौतम बुद्ध,संत कबीर,स्वामी विवेकांनद और महात्मा गांधी आदि अपने नाम और यश के कारण ही सदा के लिए अमर हैं। उन्होंने यह नाम और यश अपने जीवनकाल में समाज को सभी प्रकार के दान दे-देकर अर्जित किया था। उनके द्वारा मानव को दिए गए संपूर्ण देय को दुनिया जानती है। कुछ भी गुप्त नहीं हैं। यदि वे अपना दान गुप्त रूप से करते तो न तो उनका नाम-पता कोई जानता और न उनके असीम अवदान से कोई प्रेरणा ले पता। तब वे हमारे आदर्श न बन पाते (क्योंकि तक वे गुप्त और लुप्त होते)। स्वयं गांधीजी ने बिना नाम-यशवालों से नहीं, नाम-यश वाले ‘सत्यवादी हरिश्चंद्र’ नाटक के नायक के चरित्र से सत्य की तथा आर्नल्ड के ‘बुद्ध चरित्र’से गौतम बुद्ध के त्याग की प्रेरणा ली। उन पर ईसा के ‘गिरि-प्रवचन’ का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा और उन्होंने तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ को भक्तिमार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ स्वीकार किया।
अंत में,यदि संसार में हज़ारों बड़े-बड़े लोगों की करनी को गुप्त रखना और उन्हें यश से वंचित किया जाना सही होता तो आत्मकथाएँ न लिखी जातीं और न पढ़ी जातीं, न अभिनंदन समारोह आयोजित किए जाते, पुण्यतिथियाँ और जन्मशताब्दियाँ न मनाई जातीं। यश के बारे में तिरूवल्लुवर की सूक्ति है कि उसके अतिरिक्त अन्य कोई स्थायी संपत्ति संसार में नहीं है।
Production - Libra Media Group, Bilaspur, India
अच्छी प्रस्तुति
ReplyDelete।
दान और गुप्तदान....
यश और कीर्ति को समझाने के लिए आभार....