Tuesday, January 24, 2012

बोलते वि‍चार 50 -संतोष और स्‍वास्थ्य




बोलते वि‍चार 50
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा


आप चाहे कितना भी अच्छा खाइए और चाहे कितनी भी कसरत कीजिए, यदि आपको दिन-रात असंतोष दौरे पड़ते हैं तो आपका स्वास्थ्य सुंदर नहीं हो सकता। असंतोष चिंताओं का जनक है और चिंताएँ शरीर को जलानेवाली अग्नि की अदृष्ट लपटें हैं।

हम असंतोष पर पूरी तरह विजय प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि उसके लिए इच्छाओं का पूरा दमन आवश्यक है; जबकि इच्छाओं के बिना आदमी जी नहीं सकता और तरक्की की चाह के लिए थोड़ा-बहुत असंतोष अनिवार्य भी है। पर हाँ, उसके आधिक्य और उसकी तीक्ष्णता को घटाने के लिए हमें इच्छाओं को कम जरूर करते रहना चाहिए।

संतोष से स्वास्थ्य का प्रगाढ़ संबंध है, इस तथ्य को पुष्ट करने के लिए दो-तीन उदाहरण देखें-
विवाह की उम्र निकल जाने तक किसी लड़की की शादी हो पाती है तो वह सामान्यतया सूखने लगती है; लेकिन शादी होने पर संतोष मिलने के कारण उसमें ‘स्‍वास्थ्य ही साँदर्य हैं ‘उक्ति को सार्थक करनेवाला निखार आ जाता है।

जब नौकरी के लिए भटकते हुए युवक को नौकरी मिल जाती है और वह उससे संतुष्ट रहने लगता है तब अन्य बातें समान होने पर उसका स्वास्थ्य निरंतर अच्छा होता जाता है।

परिवारों का रोजमर्रा का अनुभव है कि परि और पत्नी में से जो एक कुढ़ने में माहिर होता है, उसकी तुलना में दूसरा स्वस्थ रहता हैं; जब दोनों असंतोषी स्वभाव के होते हैं तब दोनों का हाल बुरा रहता है; और जब दोनों को एक-दूसरे को तारीफ करते रहने में संतोष मिलता है तब दोनों को डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ा करती।

Monday, January 23, 2012

बोलते शब्‍द 80





बोलते शब्‍द 80


आज के शब्‍द जोड़े हैं 'शाबाश'  व 'दुत' 
और  'श्रद्धा' व 'आस्‍था' 

            आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा         स्‍वर      - संज्ञा टंडन



159.  'शाबाश'  व 'दुत' 





160.  'श्रद्धा' व 'आस्‍था' 





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Saturday, January 21, 2012

बोलते वि‍चार 49- असफलता को अधिक महत्‍व न दें



बोलते वि‍चार 49
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

एक साहब को समाचार पत्रों में छपने वाली शब्द-वर्ग पहेली भरने का बहुत शौक है। हर दिन भरते हैं और ज्यादातर पूरे सही हल तक पहुँच जाते हैं। जिस दिन कहीं कुछ छूट जाता है उस दिन उनकी बेचैनी देखते ही बनती हैं। शब्द विशेष की खोज में बेहद परेशान रहते हैं; बहुत देर-देर तक-बल्‍ि‍क बार-बार दिन भर।

यों किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आदमी में उत्कट लगन का होना काफी अच्छी बात हैं; लेकिन लक्ष्य कितना महत्‍वपूर्ण हैं, इसका भी चयन कम महत्‍वपूर्ण नहीं है। किसी मामूली सी बात के लिए घंटों बरबाद कर डालना और कसमें खा लेना केवल अडि़यलपन है। किसी बड़े पेड़ के सारे पेड़ों को गिनने का प्रण करना कोई बुद्धिमानी नहीं है।

कई बार आदमी की किसी दिशा में कठिन-से-कठिन परिश्रम करने पर भी सफलता नहीं मिला करती। चिंता में घुलने की कोई बात नहीं है। सूक्ति है कि ‘जीवन का यह विधान है कि जब हमारे लिए एक रास्ता बंद हो जाता है तो दूसरा खुल जाता है।’ किसी जगह पर खड़े हुए आप जरा-जरा सा घूमकर चारों तरफ कदम बढ़ा सकते हैं।

जो लोग, उदाहरण के लिए, कई प्रयासों के बाद भी आई.ए.एस नहीं बन पाते, वे जान नहीं दे देते। वे दूसरा या तीसरा रास्ता चुन लेते हैं। स्थिति के अनुसार लोग अपनी नौकरी बदल लेते हैं और धंधा भी बदल लेते हैं। हमें यह मानने में झेंप नहीं लगनी चाहिए कि हम बहुत से कामों को करने में सक्षम नहीं होते हैं; लिए अनेक काम असंभव रहते हैं। सबके लिए रहते हैं। हम यह सदा याद रखें कि हम समुद्र नहीं लाँध सकते। साथ ही यह भी मानकर चलें कि कुछ कामों का पूरा होना और न होना योग और संयोग पर भी निर्भर करता है।

उपर्युक्त के परिप्रेक्ष्य में हम अपने विवेक से यह निर्णय लेने में पर्याप्त निश्‍ि‍चंत और सही हो सकते हैं कि हमें किस काम में किस हद तक सफलता मिल सकती है और किसमें नहीं।


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Friday, January 20, 2012

बोलते शब्‍द 79




बोलते शब्‍द 79


आज के शब्‍द जोड़े हैं 'वि‍षैला'  व 'वि‍षाक्‍त'
और  'व्‍यापार' व 'व्‍यवसाय' 

            आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा         स्‍वर      - संज्ञा टंडन



157.  'वि‍षैला'  व 'वि‍षाक्‍त' 





158. 'व्‍यापार' व 'व्‍यवसाय' 





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Wednesday, January 18, 2012

बोलते वि‍चार 48 - स्वयं से बाहर निकलें




बोलते वि‍चार 48
                            आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

भी-कभी आदमी के एक वाक्य से ही बहुत कुद पता चल जाता है कि वह कैसा है। छुट्टी का दिन नहीं था। एक परिचित अध्यापक महोदय सुबह घर आए। उनका एक छोटा सा काम था। बात शुरू करने के पहले वे बोले कि उन्हें कॉलेज जाना है, जरा जल्दी हैं। ठीक है। उनसे बैठने के लिए निवेदन नहीं किया गया। कमा की बात निबट गई। वे बढ़कर बैठते हुए अपनी पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी व्यर्थ की गाथाएँ गाने लगे-सो प्रतिशत अपनी रूचि की। पौन घंटे से ऊपर बिता दिया। उठते हुए फिर बोले, ‘चलूँ, मुझे कॉलेज जाना है। जरा जल्दी है। तैयार होना है।’ (यहाँ कृपया उनके ‘मुझे’ की गहराई पर ध्यान दीजिए।)


उन महोदय के दिमाग में यह बात एक बार भी नहीं आई कि वे जिसके यहाँ बिना पूर्व सूचना लिए गलत समय पर पहुँचकर इतनी देर से लदे हुए हैं, उसे भी कॉलेज जाना है, उसे भी तैयार होना हैं।

ऐसे लोग ‘अपने लिए’ बहुत अच्छे होते हैं, बस। और दूसरों के लिए? अरे, अगर आप किसी कों ‘गुड़’ नहीं दे सकते तो ‘गुड़ की-सी बात’ तो दे सकते हैं। यदि वे महांदय चलते समय इतना भी कह देते कि चलूँ, आपको भी कॉलेज के लिए तैयार होना है-तब भी उन्हें शिष्टाचार के नाम पर माफी मिल सकती थी। लेकिन नहीं, शिष्टाचार प्रत्येक के वश की बात नहीं हैं। उसके लिए  पहली जरूरत है आदमी का सिर्फ ‘प्राणी’ नहीं, ‘सामाजिक प्राणी’ होना। अगर आदमी समाज में रहकर भी भीतर से केवल ‘व्यक्ति’ तक सीमित है तो वह दूसरों को सिर्फ कष्ट देगा।

एक सामान्य या अच्छा सामाजिक ऐसे अवसरों पर सिर्फ अपने को महत्‍व देता हुआ नहीं, अपने सामनेवाले को भी, बल्कि उसे ही महत्‍व देता हुआ बोलता है। एक साहब जब भ किसीको चाय पिलाने की बात करते हैं तो उनके मुँह से यह कभी नहीं निकलता कि आइए, चाय पीजिए, वे हमेशा यह कहते हैं कि आइए, हम आपको चाय पिलाएँ। उनका सारा जोर ‘हम’ पर रहता है।


इस ‘मैं’ और ‘हम’ की बीमारी से कोई-कोई बड़ा लेखक और राजनीतिज्ञ भी ग्रस्त रहता है, जिसकी कलम और मुँह से निकली हुई कोई भी बात बिना इन शब्दों की घोर वैयक्तिक और पाठकों-श्रोताओं के लिए उबाऊ आवृत्‍ति‍ के पूरी नहीं हो पाती।

सामाजिक हित के लिए आदर्श स्थिति यह है कि अप दूसरों की बात को और दूसरे आपकी बात करें। आपकी करनी खुद जगह-जगह जाकर बोलने लगेगी।



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Wednesday, January 11, 2012

बोलते वि‍चार 47 - हमारे अच्छेपन का निर्णय



बोलते वि‍चार 47
                             आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

एक साहब अकसर कहा करते हैं कि उनका फोटो कभी अच्छा नहीं आता। उनके कुछ फोटो हमने देखे। अच्छे-खासे थे; बल्कि दो-चार बहुत अच्छे थे-उनकी शक्ल से काफी ज्यादा अच्छे। पर नहीं उन्हें उनसे भी ज्यादा खूबसूरत फोटो चाहिए, क्योंकि वे अपने को बेहद खूबसूरत समझते हैं। असलियत यह है कि उन्हें अपनी खूबसूरती के बारे में सही जानकारी नहीं है।



हमारे एक पड़ोसी अपने से हर दृष्टि से बड़े लोगों की भी मामूली-से-मामूली बात को इस प्रकार विस्तार से समझाना शुरू कर देते हैं मानो वे अपनी सात बरस की बच्ची को समझा रहे हों। वे अपने को बेहद अक्लमंद समझते हैं। उन्हें अपने ज्ञान के बारे में सही जानकारी नहीं है। वे दूसरों के ज्ञान को बिलकुल नहीं आँक पाते।

अपने आप पर फिदा एक और साहब हैं, जो कई बार आपके लिए इसलिए, मुसीबत बन जाते हैं कि वे आपसे आपकी रूचि की भी बात न करके सिर्फ अपने बारे में धुआँधार बात करते चले जाते हैं। उनकी बातों में कितने ही संदर्भ ऐसे आते हैं, जिनसे आपका इस जन्म में कभी साबिका नहीं पड़ने वाला है।   


 उक्त प्रकार के लोग स्वयं में इतने लिप्त रहते हैं कि उन्हें यह भी सोचने की फुरसत नहीं होती कि संसार में और भी प्राणी रहते हैं। वे यह नहीं सोच पाते हैं कि दूसरे लोग उन्हें काफी नापसंद करते हैं। ऐसे स्व-केंद्रित लोगों से हम यह सीख ले सकते हैं कि हम उनके जैसे स्व-केंद्रित न बनें। हम समाज का सही अंग बनें। अच्छा बनने के लिए हम दूसरों का भी ध्यान रखना सीखें। हम स्वयं को जरूरत से ज्यादा सुंदर या योग्य या महत्‍वपूर्ण या अच्छा न समझें, क्योंकि हमारे समझने से कुछ नहीं होता । हम अपने को चाहे कितना भी अच्छा समझें, हम तब तक अच्छे नहीं हैं जब तक हमें दूसरे लोग अच्छा न कहें।

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Monday, January 9, 2012

बोलते शब्‍द 78



बोलते शब्‍द 78


आज के शब्‍द जोड़े हैं 'लाला'  व 'ललि‍त'
और  'वि‍लवणीकरण' व 'नवीनीकरण' 

आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          
स्‍वर      - संज्ञा टंडन



155.  'लाला'  व 'ललि‍त' 







156. 'वि‍लवणीकरण' व 'नवीनीकरण'  

 




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Sunday, January 8, 2012

बोलते वि‍चार 46- अपना और दूसरों का मूल्यांकन




बोलते वि‍चार 46
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा


एक बहुत नए छुटभैए कवि ने अपने दोस्तों में अपनी तुकबंदियाँ सुनाने के बाद सीधे नीरज के पास वे ‘कविताएँ' यह लिखकर भेज दीं कि इन पर समीक्षा लिख दीजिए, मैं उसे यहाँ के समाचारपत्र ‘मोहल्ला जागरण’ में छपवाऊँगा। यह उस कवि की घोर नादानी थी।

अपने किसी छोटे स्तर के समय-खपाऊ काम के पूरा करने के लिए किसी बहुत बड़े आदमी को तंग मत कीजिए। इसमें कोई शक नहीं है कि यह काम आपके लिए महत्व का हो सकता है; लेकिन यह भी सही है कि बड़ा आदमी अपनी भारी जिम्मेदारि‍यों और बड़े स्तर के कामों में इतना ज्यादा घिरा रहता है कि उसके पास आपके उस काम के लिए दम मारने की भी फुरसत नहीं रहती है-विशेषकर ऐसे काम के लिए, जिसे आप अपेक्षाकृत बहुत छोटे आदमियों से भी करवा सकते हैं। अपना कोई बचकाना काम बड़े आदमी पर लादकर आप उसकी हैसियत को बहुत नीचा आंकते हुए उसकी बेइज्‍़ज़ती करते हैं और अपनी औकात को असलि‍यत से बहुत ऊँचा मानते हुए अपना हलकापन सिद्ध करते हैं।

आपका स्वार्थ अपनी जगह ठीक है; पर ऐसे अवसरों पर उस स्वार्थ की तुलना में आपका अज्ञान और आपकी कूपमंडूकता अधिक सिद्ध होती है, क्योंकि आप बड़ों के बड़ेपन की ऊँचाई को लेशमात्र भी नहीं नाप पाते।
    
बी.ए. प्रथम वर्ष की एक छात्रा ने विश्वविद्यालय के कुलपति के पास एक पत्र भेजकर यह पूछा कि मुझे इन-इन शब्दों के सही अर्थ और प्रयोग लिख भेजिए। ऐसी नासमझी पर कह दिया जाता है कि ‘मक्खी आखिर कितना ऊँचा उड़ेगी।’
    
कृपया मक्खी न बनिए। किसी काम को करवाने के लिए दूसरों को सौंपने के पहले अपनी भी मूल्यांकन कीजिए और सामने वाले का भी।


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