Monday, October 31, 2011
बोलते विचार 28 - प्रत्येक व्यक्ति से सीखना
प्रत्येक व्यक्ति से सीखना
बोलते विचार 28
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
कोई भी दो व्यक्ति बिलकुल एक जैसे नहीं हो सकते, जिसका मतलब है कि हर दूसरे व्यक्ति में कोई-न-कोई बात अन्यों से भिन्न होती है - उसका वातावरण और स्वभाव भिन्न होता है, उसके संपर्क और अनुभव अलग होते हैं। बस यहीं इस तथ्य का आधार छिपा हुआ है कि हम प्रत्येक व्यक्ति से उसके अनुभवों के ऐसे अंश ग्रहण कर सकते हैं, जिन्हें हमने अभी तक प्राप्त नहीं किया है। सीखने की सीढि़यों का कभी अंत नहीं हो सकता, क्योंकि पूर्णता तक पहुँचना आसमान की ऊँचाई तक पहुंचने के समान है।
एक उदाहरण लें। किसी युवक से कोई वयोवृद्ध भी वे सारी बातें सीख सकता है, जो युवक के भिन्न व्यवसाय या सेवा से संबंधित हो, जो युवक के भिन्न अध्ययन से संबंधित हों, जो युवक के जमाने से संबंधित हों और वे युवक की अपनी दुनिया से संबंधित हों।
यों तो हर आदमी में कुछ अच्छाईयाँ होती हैं, क्योंकि कोई भी आदमी सौ प्रतिशत बुरा नहीं हो सकता; लेकिन हम अधिक बुराईयों वाले से भी बहुत कुछ लें सकते हैं। हमें कितनी ही शिक्षाएँ बुरे लोगों के द्वारा किए गए कामों के दंडस्वरूप उन्हें मिली सजाओं से मिलती है। यह बात कि बुरा काम नहीं करना है, बुरों को बुरी हालत में देखकर आसानी से समझी जा सकती है।
अच्छा आदमी हर तरफ अच्छाई ढूँढ़ता है। वह बुरों की बुराईयों को अनदेखा करके उनकी भी सिर्फ अच्छाईयाँ देखता है। इसके विपरीत, जिसे दूसरों की सिर्फ बुराईयाँ दीखती हैं, वह अपने को बुराईप्रिय और बुराईपुंज प्रमाणित करता है। उसके भीतर की बुराईयों का परदा उसकी आँखों पर बनकर इस प्रकार छा जाता है कि वह दूसरों की अच्छाईयों को भीतर नहीं घुसने देता।
आदमी में बुराईयों का होना बिलकुल अस्वाभाविक नहीं है; लेकिन उन्हें दूर करने के लिये कोई प्रयास न करना बहुत बुरा है। यदि कहीं की सफाई न करो तो गंदगी की परत के ऊपर परत चढ़ती चली जाती है और कालांतर में वहाँ सड़न पैदा होने लगती है। विविध धर्मग्रन्थों में, जगह-जगह होने वाले प्रचवचनों में, चिंतन संबंधी प्रसारणों में, संत-महात्माओं की जीविनियों में, सुविचारों और अनमोल वचनों से संबंधित लेखों तथा सूक्तियों में यही संदेश निहित रहता है कि आदमी को स्वयं और समाज के लिये अधिकाधिक अच्छा बनने की आवश्यकता है।
अच्छा बनने की राह में जिस व्यक्ति से कुछ सीखा जाता है, उसका बड़ा-छोटा होना महत्वपूर्ण नहीं है;महत्वपूर्ण है उससे सीखी जाने वाली बात। यदि किसी बहुत बड़ी हस्ती में कोई ऐब है तो वह त्याज्य है और यदि किसी बहुत छोटे आदमी में कोई सद्गगुण है तो वह ग्राह्य है। मानव का लक्ष्य मानवता की प्राप्ति है, व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व की प्राप्ति नहीं। उसका आदर्श सार्वभौम अच्छाई है, सीमित अच्छाई नहीं। उसे ब्रम्ह का अंश कहा जाता है। उसके अंदर भगवान् का निवास माना जाता है। इससे सिद्ध है कि उसमें प्रच्छन्न रूप से इतनी अधिक शक्ति मौजूद रहती है कि वह अपने भीतर से सत् तत्व का सहारा लेकर अपनी सारी राक्षसी वृत्तियों का दमन कर सकता है और कितना भी अच्छा और कितना भी बड़ा बन सकता है। अपना निर्माता वह स्वयं है, जिसके लिये वह प्रेरणा और संबल कहीं से भी, किसी से भी ले सकता है। यदि वह हर व्यक्ति से कुछ लेने और सीखने का रास्ता खुला रखे तो उसकी उपलब्धियों की कोई सीमा नहीं रहेगी।
Production - LIbra Media Group, Bilaspur (C.G.) India
Sunday, October 30, 2011
Friday, October 28, 2011
बोलते विचार 27 - क्या पढ़ें, क्या नहीं
बोलते विचार 27
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
यों तो पढ़ने के लिए लाइब्रेरियाँ भरी पड़ी हैं,पर चूँकि हमारी जिन्दगी सब कुछ पढ़ डालने के नाम पर बहुत छोटी है, इसलिये ‘क्या पढ़ना है, क्या नहीं’, इसका चयन करना बहुत जरूरी है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि यहजानने की तुलना में कि हमें क्या-क्या पड़ना चाहिये,यह जानना बहुत जरूरी है कि हमें क्या-क्या नहीं पढ़ना चाहिये।
एक छात्र बुद्धि से बहुत अच्छा था और पढ़ता भी बहुत था;लेकिन परीक्षाओं में अपेक्षा से काफी कम अंक पाता था। कारण सिर्फ यह था कि वह अपने पाठ्यक्रम के हिसाब से अगर बीस पूर्णांकों के लिये एक किताब पढ़ता था तो पाँच पूर्णांकों के लिये चार-पाँच किताबें पढ़ता था। अपनी रूचियों की दृष्टि से उसमें पर्याप्त ज्ञान था,पर उपाधियों की दृष्टि से उसका ज्ञान उसके काम नहीं आया। उसे अच्छी नौकरी नहीं मिल पाई।
एक साहब के सामने समय काटने की समस्या है। वे दिन-रात जासूसी उपन्यास पढ़ते रहते हैं। उनके लिए अन्य सम्पूर्ण साहित्य बेकार है। दूसरे साहब जासूरी क्या,ऊँचे-से-ऊँचे साहित्यिक उपन्यास को भी हाथ नहीं लगाते। उनका कहना है कि जितने समय में एक उपन्यास पढ़ा जाता है उतने समय में वे अपने काम के तीन-चार दर्जन लेख पढ़ लेते हैं।
दरअसल, आपको अपनी आवश्यकता और लक्ष्य को देखते हुए ही यह निर्धारित करना होता है कि आपके लिए क्या पढ़ना उपयोगी है और आपके पास उसके लिए कितना समय है। जो लोग पढ़ने-लिखने के प्रति गंभीर होते हैं, वे सिर्फ अखबार के समाचारों तक ही सीमित नहीं रहते।
आप अपने विवेक से, निश्चित रूप से, यह निर्णय ले सकतें हैं कि आपको क्या-क्या पढ़ने से आपका समय बरबाद होता है। एक स्थापित साहित्यकार है,जो किसी पत्रिका के मिलते ही उसकी विषय-सूची को पढ़ते हुए उन-उन शीर्षकों को टिक कर देते हैं, जिनसे उन्हें आगे मतलब होता है; पत्रिका के शेष सारे शीर्षकों के पृष्ठ उनके लिए बेकार होते हैं।
यहाँ तक तो समझ में आता है कि दैनिक समाचार पत्रों में कुछ लोग स्पोर्टस वाला पृष्ठ छोउ़ देते हैं, कुछ शेयर बाजार वाला छोड़ देते हैं,कुछ फिल्मों के विज्ञापन वाला छोड़ देते हैं और कुछ कविता और कहानी छोड़ देते हैं; पर जो लोग अत्यंत महत्वपूर्ण स्थल पर छापा जाने वाला आधी लाईन का नीति वाक्य छोड़ देते हैं, उनसे भगवान बजाए।
पते की एक बात और कि जैसे आवारा और बदचलन दोस्तों की सोहबत में रहने वाले बच्चे अकसर बिगड़ जाया करते हैं वैसे ही घटिया लेखन को पढ़ने वालों के विचार भी घटिया होने लगते हैं। आप क्या पढ़ते हैं और क्या छोड़ देते हैं,इसके लेखे-जोखे से आपकी जन्म-कुंडली बनाई जा सकती है - सामान्य भी और मंगली भी।
Production & Libra Media Group, Bilaspur (C.G.) India
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Monday, October 24, 2011
Sunday, October 23, 2011
बोलते विचार 26 -अकर्मण्यता से बचिए
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
मुरगों ने अपने पंखों का इस्तेमाल करना बंद कर दिया, वे उड़ान भरने के लायक नहीं रह गए। यदि हम अपने दिमाग का इस्तेमाल करना बंद कर दें तो उसका भी यही हाल होगा। दिमाग को चलाते रहिए-एक अच्छी मशीन की तरह। मशीन चलने पर ही उत्पादन करती है। दिमाग को खाली मत रखिए,वरना उसमें शैतान रहने लगेगा। खाली पड़े मकानों में अंधविश्वासियों के लिए भूत और दूसरों के लिए भाँय-भाँय और गंदगी इकट्ठी होती रहती है। खाली शरीर निर्जीव होता है।आदमी का मन हो या शरीर,उसका व्यस्त रहना अति आवश्यक है। व्यस्तता शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य के लिये हितकर है। शरीरांगों का या किसी गाड़ी का या किसी दुकान का गतिशील रहना ही उसमें जीवन का द्योतक है। यदि शरीरांग नहीं चलते हैं तो गठिया नामक रोग हो जाता है। यदि गाड़ी नहीं चलती है तो उसका नाम ही ‘गाड़ी’ नहीं रह जाता, क्योंकि ‘चलती का नाम गाड़ी’ होता है। यदि दुकान नहीं चलती है तो वह ठप्प हो जाती है।
लोग कसरत क्यों करते हैं? क्योंकि उससे शरीर पुष्ट होता है। दिमागी कसरत से दिमाग पुष्ट होता है। रिहर्सल से ड्रामा सफल होता है और रियाज से गाने का स्तर ऊँचा होता है। जिन व्यक्तियों का पढ़ने-लिखने का अभ्यास शून्य होता है वे कोई उपाधि प्राप्त नहीं कर सकते।
आदमी जितना अधिक सोचने का अभ्यास करेगा,जितना अधिक विचारों में डूबेगा वह उतनी ही गहराई में पहुँचेगा। मस्तिष्क को उर्वर बनाने के लिए,उसका उत्थान करने के लिये उसकी घिसाई जरूरी है। चाकू की धार घिसाई के बाद ही तेज होती है। प्रतियोगिताओं को जीतकर उन्नति के शिखर पर पहुंचने वाले लोग दिमाग की घिसाई करके ही वहाँ पहुँचते हैं;वे खाली बैठने वाले नहीं हुआ करते। निठल्ले लोगों को किसी भी समाज में इज्जत नहीं मिला करती। ‘ठलुआ’ इसीलिए एक गाली है।
बेकार पड़े हुए लोहे में जंग लग जाती है; बेकार पड़ी हुई लकड़ी में दीमक लग जाती है; खाली यानी खोखली और हलकी चीजों को पानी अपने तल के ऊपर की ओर फेंक देता है; भरी हुई चीजें ही भारी होने के कारण तह में पहुँचकर बैठती है।
रिटायरमेंट के बाद कुछ लोग सिर्फ इसलिये जल्दी मर जाते हैं कि उनका समय काटे नहीं कटता। उनके सामने समस्या आर्थिक कम, दिन-रात खाली रहने की अधिक होती है। जो लोग सदा काम में लगे रहते हैं, उनकी उम्र अधिक होती है। उनके पास मरने की भी फुरसत नहीं होती।
आदमी संसार में ‘दिमाग’ लेकर आया है। वह ‘हाथ-पैर’ लेकर आया है, खाली बैठने के लिये नहीं आया है। यदि वह अपने को गतिमान उपक्रमों के साथ संपृक्त रख पाता है,तभी उसका संसार में आना सार्थक है,वरना सिर्फ समय काटने का काम क्षुद्र-से-क्षुद्र भी कर लेते हैं। यदि आदमी को खुद को सही ढंग से व्यस्त रखना नहीं आता है तो समझिए कि वह व्यक्तिगत तौर पर खुराफाती है और सामाजिक तौर पर नाकारा है। ऐसा आदमी विकास के किसी भी पहलू में योगदान न करने के कारण राष्ट्र पर एक बोझ रहता है।
उपर्युक्त तथ्यों से निष्कर्ष रूप में यह सीख मिलती है कि हम अपने को खालीपन का शिकार न होने दें और खाली दिमागवालों से बचकर रहें।
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Friday, October 21, 2011
Wednesday, October 19, 2011
बोलते विचार 25 - त्याग और समाज-हित
बोलते विचार 25
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
कुछ लोग त्याग और दान की बात तो खूब करते हैं, पर अपने सुख-साधनों में कटौती बाल भर भी करने को तैयार नहीं होते। वे अपने और अपनों के ऊपर हमेशा इतना अधिक आवश्यकता से अधिक-खर्च करते हैं कि उनके पास दान करने के लिए कुछ बचने की नौबत ही नहीं रह जाती। दूसरी ओर, जिन लोगों की आमदनी बहुत ज्यादा होती है और जिनके सामने उनके सारे जरूरी-गैर जरूरी खर्च करने के बाद भी बचत की स्थिति अनिवार्य रूप से बनी रहती है, वे कई बार त्याग और दान का अभिमान जताते हुए कहते हैं कि वे मरते समय अपना सब कुछ दान कर जाएँगे। अरे, यदि उन्हें सिर्फ मरते समय अपनी सम्पत्ति दूसरों को देनी हैं,तब उसमें उनका त्याग और स्वार्थहीनता कहाँ रहीं। उन्होंने जीवन भर तो ऐश किए समाज के लिये कुछ नहीं किया, लेकिन अंत में जब वे अपने ऊपर एक कौड़ी भी खर्च कर सकने की हालत में नहीं रह गए-मरते समय,तब उन्हें दान-पुण्य की सूझी। वह भी शायद अपना परलोक सुधारने के लालच में।
मुहम्मद साहब ने कहा था -‘जि़न्दगी में एक सिक्का खैरात करना मौत के समय सौ सिक्के खैरात करने में कहीं बेहतर है।’
कुछ लोग तर्क करते हैं कि दान के पूर्व हमें अपने सही खर्च पूर कर लेने चाहिये। ठीक है; जब हम खुद ही नहीं जियेंगे तो दूसरों के लिये कुछ कैसे कर पायेंगे। लेकिन प्रश्न है कि ‘सही’ खर्च क्या होते हैं ? क्या ऐसे खर्चों की कोई सूची और सीमा है ?
पहले रोटी।
खाना कौन सा ‘सही’ होता है ? उसके लिये प्रति व्यक्ति कितने रूपए जरूरी है ? न्यूनतम और अधिकतम क्या है ?
फिर कपड़ा।
यों हमारा काम गिने-चुने कपड़ों से चल सकता है, पर नहीं। क्या ‘सही’ खर्च के नाम पर हमें कम-से-कम एक दर्जन सूट और डेढ़ दर्जन साडि़याँ जरूर चाहिये ?
अब मकान।
हमारे पास भारी सुविधाओं से युक्त एक मकान होना चाहिये। लेकिन कितना बड़ा ?और ‘सारी सुविधाओं’ का अंतिम बिन्दु कहाँ है ?
दरअसल, ‘त्याग वृत्ति’ का अर्थ बहुत व्यापक है। यदि हम कोई चीज खरीदने की नीयत रखते हैं और उसे खरीद सकने की स्थिति में भी नहीं होते है- साथ ही कंजूस भी नहीं होते, लेकिन फिर भी उसे नहीं खरीदते- तभी ‘त्याग वृत्ति’ होती है। ऐसे सुप्त त्याग से अप्रत्यक्ष दान स्वतः हो जाता है। वह कैसे? वह ऐसे कि खूब खरीदी-खरूदी करके चीजों के दाम बढ़वाने में हमारा बहुत हाथ रहता है। जब खरीदारियाँ बढ़ती हैं तब उत्पादन भी बढ़ाना पड़ता है। जब हम चीजों को खरीद-खरीदकर बाजार में उनका अभाव कर डालते हैं तब उनके दाम बढ़े बिना नहीं रहते। इसके विपरीत, यदि हम सारे खर्चों में कटौती कर दें -अर्थात् त्याग का व्रत ले लें-तब चीजें बाजार में बची रहने के कारण उनके मूल्य नहीं बढ़ेंगे और इस दिशा में समाज का हित खुद-ब-खुद हो जाएगा।
कुछ लोग घर की टूटी -फूट और बिलकुल बेकार की चीजों को फेंकने के बजाय किस को जबरदस्ती देकर अपने दान और त्याग की महिमा प्रचारित करते हैं। ऐसे दान का महत्व ‘नहीं’ के बराबर होता है,क्योंकि इसमें त्याग न होकर अपने यहाँ की गंदगी साफ करने के साथ-साथ उसी से दूसरों पर अहसान करने की वृत्ति रहती है। यदि, उदाहरणार्थ अपने घर बचा हुआ खाना ज्यादा बासी हो जाने के कारण आपने इस डर से खुद नहीं खाया कि आपकी तबीयत खराब हो जाएगी और उसे किसी बाह्य व्यक्ति को दान या भिक्षास्वरूप खिला दिया तो अपना मूल्यांकन कीजिए कि क्या अपने ‘समाज-हित’ किया ?
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Monday, October 17, 2011
Sunday, October 16, 2011
बोलते विचार 24 - अपमान और सम्मान
एक महाशय अपनी कार चलाते समय उसमें किसी दूसरे अकेले व्यक्ति को कभी पीछे की सीट पर न बैठने देकर आगे की सीट पर अपने साथ ही बैठने का आग्रह केवल इसलिए करते हैं कि यदि वह व्यक्ति पीछे बैठ गया तो लोग उन महाशय को ड्राइवर समझ बैंठेंगे। वे इस कुंठा के शिकार है कि यदि उन्होंने कार में अन्य के रहते हुए आग की सीट पर अकेले बैठकर ड्राइविंग की तो उनका अपमान हो जाएगा।
एक साहब अपने समवयस्क सहकर्मी से सदैव अपेक्षा करते हैं कि पहले ‘वही’ उनसे नमस्ते किया करे। यदि संयोगवश कभी वह ऐसा नहीं कर पाता है तो उनसे साहब को लगता है कि उसने उनका अपमान कर दिया।
एक आदेश-मास्टर हैं,जो अपने चारों ओर के हर प्राणी को अपनी एक-एक इच्छा के अनुसार चलाना चाहते हैं। यदि उनके इर्दगिर्द का कोई व्यक्ति उनकी किसी इच्छा को पूरी नहीं कर पाता है तो वे उसे अपनी बेइज्जती मानते हुए भड़क उठते हैं।
इन उदाहरणों को बताने का मकसद यह है कि लोगों का अपमान के बारे में काफी ग़लतफहमी रहती है। अपमान वस्तुतः बहुत हद तक हीनता की भावग्रंथिवाले व्यक्तियों को अधिक सताता है। जिन आदमियों के जीवन में उनकी महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप सच्चा सम्मान नहीं मिल पाता है, अर्थात् जो वास्तविक सम्मान पाने की दृष्टि से भूखे रह जाते हैं, उन्हें हर छोटी-छोटर बात में अपना अपमान होता हुआ दीखता है। चूँकि नेताओं को अन्यक्षा काफी सम्मान मिलता रहता है, इसलिए वे अपमान की बिलकुल परवाह नहीं करते।
एक बार अपनी संस्था के सबसे बड़े पदाधिकारी एक बहुत बड़े नेता की अगवानी करने की नीयत से बिना बुलाए हवाई अड्डे पर जा पहुँचे। जब उन्हें वहाँ नेताजी से मिलने का मौका नहीं दिया गया तो वे बौखला गए और जगह-जगह अपने उस तथाकथित अपमान का रोना रोने लगे। अखबारों में भी निकलवा मारा कि ‘वे खदेड़ दिए गए।’ तथ्यात्मकता के नाम पर यह ‘अपमान’ नहीं था, यह सम्मान को भूख में अपमान को जबरदस्ती गले लगा लेना था।
अपमान ‘करने’के पीछे भी प्रायः विशेष भावग्रंथि काम करती है। दूसरों का अपमान ऐसा व्यक्ति ज्यादा किया करता है,जिसका खुद का अपमान होता रहता है। उसका मन इसका बदला लेता है। एक पति महोदय घर में डाँट खाकर कार्यलय पहुँचते ही दूसरों का डाँटने लगते हैं।
यदि आपका कोई अपमान करता है तो आपके भी मन में उसके लिए अपमान की भावना घर करने लगती है। इसलिए यदि आपको अन्यों से सम्मान पाना है तो उनका सम्मान ही कीजिए, अपमान नहीं। सम्मान बड़ों मात्र की नहीं, छोटों को भी दिया जाना जरूरी होता है। उसे हम स्नेह के साथ दे सकते हैं। दूसरी ओर, किसी बड़े का सम्मान देने के लिए झुकना या पैर छूना जरूरी नहीं है। यद्यपि सांस्कृतिक परंपराओं और शिष्टाचार का कम महत्व नहीं होता;पर यह मानकर मत चलिए कि आपके पैर छूने वाला व्यक्ति उस समय आपको अपने मन में गाली नहीं दे सकता। किसी के प्रति सम्मान या अपमान अपने सच्चे रूप में बाहर की तुलना में मन के भीतर अधिक रहता है।
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Friday, October 14, 2011
Wednesday, October 12, 2011
बोलते विचार 23 - सीखने की कोई उम्र नहीं होती
बोलते विचार 18
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
यदि आदमी अपनी उम्र के किसी मुकाम पर सोचता है कि अब वह बहुत सीख चुका है,तो समझ लीलिए कि उसकी प्रगति पर विराम लग गया। सच्चाई यह है कि हर व्यक्ति के सामने हर तरफ कुछ-न-कुछ नया सीखने के लिए मौजूद रहता है; लेकिन यदि वह इस बात को नकारता है तो उसे या तो अज्ञान की या अहंकार की बीमारी हो चुकी होती है।
एक उदाहरण लें..... कुछ साहित्यकार व्याकरण और शब्दकोश जैसी कोई भी किताब कभी नहीं छूते। उन्होंने जो भाषा संबंधी ज्ञान अपने स्कूली जीवन में, स्कूली स्तर पर पाया था,जीवन भर उसीमें सिमटे रहते हैं। वे यह जानते हुए भी नहीं जानते कि हर प्रकार के अध्ययन के आयाम निरंतर बढ़ते और पुनरीक्षित होते रहते है,इसलिए उनकी भाषा विषयक जड़ मान्यताओं में कंभी सुधार और तरक्की नहीं हो पाती। वे ‘जरूरत से ज्यादा बड़े’बन चुके होते हैं। उन्हें कुछ सीखने के प्रति एलर्जी हो जाती है। वे सिर्फ दूसरों को सिखाने वाले सर्वज्ञ और उपदेशक बनकर रह जाते हैं।
यदि आदमी में बढ़ने की चाह होती है तो वह अपने ज्ञान को सदा अधूरा मानते हुए उसमें वृद्धि करता चलता है। सीखने की कभी सीमा नहीं हा सकती। उसके स्रोत असंख्या होते हैं। गांधीजी ने कहा था कि दुनिया में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होता, जिससे हम कुछ सीख न सकें। कुछ लोगों को गलतफाहमी होती है कि सीखने की उम्र सिर्फ बच्चों की होती है। उन्हें बच्चे ही समझा-सिखा देंगे कि,उदाहरण के लिए यदि गणित और नीति बच्चों के लिए होती है तो वह बड़े-से-बड़े गणितज्ञों और योगी-तपस्वियों के लिए भी होती है।
नई बातों को सीखने की शुरूआत करने की भी कोई उम्र नहीं होती। बहुत जाने-पहचाने और बार-बार दिए जानेवाले उदाहरण हैं कि वाल्मीकि शुरू में डाकू थे,कालिदास शुरू में मूर्ख थे और तुलसीदास शुरू में भोगी थे। इन कालजयी साहित्यकारों ने साहित्य की सीख-साधना अपेक्षाकृत काफी बाद में शुरू की, फिर भी ये अनंत काल के लिए स्थापित हो गए।
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Monday, October 10, 2011
Sunday, October 9, 2011
बोलते विचार 22 - कुढ़न का इलाज
बोलते विचार 22
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
एक साहब को पत्नी अपनी नौकरानी पर बरस रही थीं कि उसने ऐसा नहीं किया,वैसा नहीं किया। नौकरानी द्वारा की जानेवाली बातें बहुत साधारण थीं (जैसे कुछ धुते हुए बरतनों को ठीक जगह पर न रखना),जिनके कारण पत्नी को अपना खून जलाना व्यर्थ की बात थी। पत्नी की ऊँची-ऊँची आवाजें सुनकर पति ने उनसे गंभीरतापूर्वक केवल इतना कहा कि नौकरानी में यदि तुम्हारे बराबर बुद्धि होती तो उसकी हैसियत भी तुम्हारे बराबर हो सकती थी। बस, पत्नी सामान्य हो गईं (और उन्होंने वे बरतन शांतभाव से स्वयं ठीक जगह पर रख दिए)।
सच बात है। कभी-कभी हम बहुत सड़ी सी बात पर अपना मानसिक संतुलन बिगाड़ लेते हैं। कई बार हमारी झुँझलाहट घटना के तत्काल बाद समाप्त ने होकर हमारा मूड लंबे समय के लिए खराब कर देती है। हम उसके कारण काफी लंबे समय तक कुढ़ते रहते हैं। ऐसे में स्वस्थ मानसिकता वाले व्यवहार-निपुण लोग अपने मन के भीतर ही यह कहकर सारे तनाव से मुक्ति पा जाते हैं कि ‘दूसरा आदमी’ उनकी बुद्धि के अनुसार चल पाने में अक्षम है या वह भी अपनी मरजी का मालिक है। इस प्रकार यदि हमने क्रोध और कुढ़न पर विजय प्राप्त कर ली तो समझिए कि हमने आधी दुनिया जीत ली। लेकिन इसके लिए हमें ‘स्वयं को बड़ा’ मानना पड़ेगा। ‘अहं ब्रम्हास्मि’(मैं ही ब्रम्ह हूँ) की फिलॉसफी को हलके-फुलके ढंग से रोजमर्रा की बार्तों पर भी लागू करना पड़ेगा। दूसरों को आवश्यकतानुसार नादान मानकर चुपचाप माफ करना पड़ेगा। अनेक बार घर के बच्चे हमारा नुकसान करते रहते हैं और हम उन्हें झेल-झेलकर उनके द्वारा बिगाड़ी गई बातों को बनाते-सुधारते चलते हैं।
श्रीराम शर्मा आचार्य ने प्रचारित किया है-‘विश्वास करो कि तुम सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हो।’ अब यदि आपको एक नौकरानी या बच्चा या दोस्त या सहकर्मी छोटी सी गलत बात पर विचलित कर देता है तो आप अपने को महत्वपूर्ण व्यक्ति कैसे बना पाएँगे? आप बड़े तभी बन सकेंगे जब आप दूसरों की नादानियों से खुद नादान नहीं बन जाएँगे और अपने मानसिक हानि नहीं होने देंगे।
हमारे चारों ओर हर क्षण कुछ-न-कुछ ऐसा होता रहता है,जो हमारी इच्छा के अनुकूल नहीं होता। हम सब सहते हैं। हममें सब कुछ सहने की शक्ति हैं। आदमी में यदि यह शक्ति न हो ता उसे कुढ़ने और चिड़चिड़ाने के लिए दिन में चौबीस घंटे कम पड़ा करें। हर आदमी को अपने चारों ओर के अधूरेपन के बीच ही जीने की आदत डालनी पड़ती है। पूर्णता की चाह ‘चाह’ भर होती है, उसकी ‘प्राप्ति’ कभी नहीं होती। इसलिए दुनिया के हर व्यक्ति के साथ अपने संबंधों के मामले में, उसकी अपेक्षाओं के मामले में काफी बड़ा मारजिन रखना जरूरी है। केवल हम ही स्वाधीन रहना पसंद नहीं करते, सभी लोग स्वाधीनता चाहते हैं-ज्यादा बुद्धिवाले भी और कम बुद्धिवाले भी। यदि दूसरों के लिए, खसकर अपने से छोटों के लिए,हमने अपने मन में अपेक्षित उदारता रख ली है तो जितना सुख दूसरों को हमसे मिलेगा, उससे कम हमें नहीं मिलेगा; क्योंकि यह उदारता आदमी के मन में कुढ़न और चिड़चिड़ाहट क बीजों को उगने की छूट नहीं देती।
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