बोलते विचार 18
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
यदि आदमी अपनी उम्र के किसी मुकाम पर सोचता है कि अब वह बहुत सीख चुका है,तो समझ लीलिए कि उसकी प्रगति पर विराम लग गया। सच्चाई यह है कि हर व्यक्ति के सामने हर तरफ कुछ-न-कुछ नया सीखने के लिए मौजूद रहता है; लेकिन यदि वह इस बात को नकारता है तो उसे या तो अज्ञान की या अहंकार की बीमारी हो चुकी होती है।
एक उदाहरण लें..... कुछ साहित्यकार व्याकरण और शब्दकोश जैसी कोई भी किताब कभी नहीं छूते। उन्होंने जो भाषा संबंधी ज्ञान अपने स्कूली जीवन में, स्कूली स्तर पर पाया था,जीवन भर उसीमें सिमटे रहते हैं। वे यह जानते हुए भी नहीं जानते कि हर प्रकार के अध्ययन के आयाम निरंतर बढ़ते और पुनरीक्षित होते रहते है,इसलिए उनकी भाषा विषयक जड़ मान्यताओं में कंभी सुधार और तरक्की नहीं हो पाती। वे ‘जरूरत से ज्यादा बड़े’बन चुके होते हैं। उन्हें कुछ सीखने के प्रति एलर्जी हो जाती है। वे सिर्फ दूसरों को सिखाने वाले सर्वज्ञ और उपदेशक बनकर रह जाते हैं।
यदि आदमी में बढ़ने की चाह होती है तो वह अपने ज्ञान को सदा अधूरा मानते हुए उसमें वृद्धि करता चलता है। सीखने की कभी सीमा नहीं हा सकती। उसके स्रोत असंख्या होते हैं। गांधीजी ने कहा था कि दुनिया में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होता, जिससे हम कुछ सीख न सकें। कुछ लोगों को गलतफाहमी होती है कि सीखने की उम्र सिर्फ बच्चों की होती है। उन्हें बच्चे ही समझा-सिखा देंगे कि,उदाहरण के लिए यदि गणित और नीति बच्चों के लिए होती है तो वह बड़े-से-बड़े गणितज्ञों और योगी-तपस्वियों के लिए भी होती है।
नई बातों को सीखने की शुरूआत करने की भी कोई उम्र नहीं होती। बहुत जाने-पहचाने और बार-बार दिए जानेवाले उदाहरण हैं कि वाल्मीकि शुरू में डाकू थे,कालिदास शुरू में मूर्ख थे और तुलसीदास शुरू में भोगी थे। इन कालजयी साहित्यकारों ने साहित्य की सीख-साधना अपेक्षाकृत काफी बाद में शुरू की, फिर भी ये अनंत काल के लिए स्थापित हो गए।
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सत्य वचन।
ReplyDeleteआभार............