एक महाशय अपनी कार चलाते समय उसमें किसी दूसरे अकेले व्यक्ति को कभी पीछे की सीट पर न बैठने देकर आगे की सीट पर अपने साथ ही बैठने का आग्रह केवल इसलिए करते हैं कि यदि वह व्यक्ति पीछे बैठ गया तो लोग उन महाशय को ड्राइवर समझ बैंठेंगे। वे इस कुंठा के शिकार है कि यदि उन्होंने कार में अन्य के रहते हुए आग की सीट पर अकेले बैठकर ड्राइविंग की तो उनका अपमान हो जाएगा।
एक साहब अपने समवयस्क सहकर्मी से सदैव अपेक्षा करते हैं कि पहले ‘वही’ उनसे नमस्ते किया करे। यदि संयोगवश कभी वह ऐसा नहीं कर पाता है तो उनसे साहब को लगता है कि उसने उनका अपमान कर दिया।
एक आदेश-मास्टर हैं,जो अपने चारों ओर के हर प्राणी को अपनी एक-एक इच्छा के अनुसार चलाना चाहते हैं। यदि उनके इर्दगिर्द का कोई व्यक्ति उनकी किसी इच्छा को पूरी नहीं कर पाता है तो वे उसे अपनी बेइज्जती मानते हुए भड़क उठते हैं।
इन उदाहरणों को बताने का मकसद यह है कि लोगों का अपमान के बारे में काफी ग़लतफहमी रहती है। अपमान वस्तुतः बहुत हद तक हीनता की भावग्रंथिवाले व्यक्तियों को अधिक सताता है। जिन आदमियों के जीवन में उनकी महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप सच्चा सम्मान नहीं मिल पाता है, अर्थात् जो वास्तविक सम्मान पाने की दृष्टि से भूखे रह जाते हैं, उन्हें हर छोटी-छोटर बात में अपना अपमान होता हुआ दीखता है। चूँकि नेताओं को अन्यक्षा काफी सम्मान मिलता रहता है, इसलिए वे अपमान की बिलकुल परवाह नहीं करते।
एक बार अपनी संस्था के सबसे बड़े पदाधिकारी एक बहुत बड़े नेता की अगवानी करने की नीयत से बिना बुलाए हवाई अड्डे पर जा पहुँचे। जब उन्हें वहाँ नेताजी से मिलने का मौका नहीं दिया गया तो वे बौखला गए और जगह-जगह अपने उस तथाकथित अपमान का रोना रोने लगे। अखबारों में भी निकलवा मारा कि ‘वे खदेड़ दिए गए।’ तथ्यात्मकता के नाम पर यह ‘अपमान’ नहीं था, यह सम्मान को भूख में अपमान को जबरदस्ती गले लगा लेना था।
अपमान ‘करने’के पीछे भी प्रायः विशेष भावग्रंथि काम करती है। दूसरों का अपमान ऐसा व्यक्ति ज्यादा किया करता है,जिसका खुद का अपमान होता रहता है। उसका मन इसका बदला लेता है। एक पति महोदय घर में डाँट खाकर कार्यलय पहुँचते ही दूसरों का डाँटने लगते हैं।
यदि आपका कोई अपमान करता है तो आपके भी मन में उसके लिए अपमान की भावना घर करने लगती है। इसलिए यदि आपको अन्यों से सम्मान पाना है तो उनका सम्मान ही कीजिए, अपमान नहीं। सम्मान बड़ों मात्र की नहीं, छोटों को भी दिया जाना जरूरी होता है। उसे हम स्नेह के साथ दे सकते हैं। दूसरी ओर, किसी बड़े का सम्मान देने के लिए झुकना या पैर छूना जरूरी नहीं है। यद्यपि सांस्कृतिक परंपराओं और शिष्टाचार का कम महत्व नहीं होता;पर यह मानकर मत चलिए कि आपके पैर छूने वाला व्यक्ति उस समय आपको अपने मन में गाली नहीं दे सकता। किसी के प्रति सम्मान या अपमान अपने सच्चे रूप में बाहर की तुलना में मन के भीतर अधिक रहता है।
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अच्छी और सीख देती पोस्ट।
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