Sunday, October 9, 2011

बोलते वि‍चार 22 - कुढ़न का इलाज

बोलते वि‍चार 22
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा


एक साहब को पत्नी अपनी नौकरानी पर बरस रही थीं कि उसने ऐसा नहीं किया,वैसा नहीं किया। नौकरानी द्वारा की जानेवाली बातें बहुत साधारण थीं (जैसे कुछ धुते हुए बरतनों को ठीक जगह पर न रखना),जिनके कारण पत्नी को अपना खून जलाना व्यर्थ की बात थी। पत्नी की ऊँची-ऊँची आवाजें सुनकर पति ने उनसे गंभीरतापूर्वक केवल इतना कहा कि नौकरानी में यदि तुम्हारे बराबर बुद्धि होती तो उसकी हैसियत भी तुम्हारे बराबर हो सकती थी। बस, पत्नी सामान्य हो गईं (और उन्होंने वे बरतन शांतभाव से स्वयं ठीक जगह पर रख दिए)।


 सच बात है। कभी-कभी हम बहुत सड़ी सी बात पर अपना मानसिक संतुलन बिगाड़ लेते हैं। कई बार हमारी झुँझलाहट घटना के तत्काल बाद समाप्त ने होकर हमारा मूड लंबे समय के लिए खराब कर देती है। हम उसके कारण काफी लंबे समय तक कुढ़ते रहते हैं। ऐसे में स्वस्थ मानसिकता वाले व्यवहार-निपुण लोग अपने मन के भीतर ही यह कहकर सारे तनाव से मुक्ति पा जाते हैं कि ‘दूसरा आदमी’ उनकी बुद्धि के अनुसार चल पाने में अक्षम है या वह भी अपनी मरजी का मालिक है। इस प्रकार यदि हमने क्रोध और कुढ़न पर विजय प्राप्त कर ली तो समझिए कि हमने आधी दुनिया जीत ली। लेकिन इसके लिए हमें ‘स्‍वयं को बड़ा’ मानना पड़ेगा। ‘अहं ब्रम्‍हास्मि’(मैं ही ब्रम्‍ह हूँ)      की फिलॉसफी को हलके-फुलके ढंग से रोजमर्रा की बार्तों पर भी लागू करना पड़ेगा। दूसरों को आवश्यकतानुसार नादान मानकर चुपचाप माफ करना पड़ेगा। अनेक बार घर के बच्चे हमारा नुकसान करते रहते हैं और हम उन्हें झेल-झेलकर उनके द्वारा बिगाड़ी गई बातों को बनाते-सुधारते चलते हैं।

श्रीराम शर्मा आचार्य ने प्रचारित किया है-‘विश्वास करो कि तुम सबसे महत्‍वपूर्ण व्यक्ति हो।’ अब यदि आपको एक नौकरानी या बच्चा या दोस्त या सहकर्मी छोटी सी गलत बात पर विचलित कर देता है तो आप अपने को महत्‍वपूर्ण व्यक्ति कैसे बना पाएँगे? आप बड़े तभी बन सकेंगे जब आप दूसरों की नादानियों से खुद नादान नहीं बन जाएँगे और अपने मानसिक हानि नहीं होने देंगे।

हमारे चारों ओर हर क्षण कुछ-न-कुछ ऐसा होता रहता है,जो हमारी इच्छा के अनुकूल नहीं होता। हम सब सहते हैं। हममें सब कुछ सहने की शक्ति हैं। आदमी में यदि यह शक्ति न हो ता उसे कुढ़ने और चिड़चिड़ाने के लिए दिन में चौबीस घंटे कम पड़ा करें। हर आदमी को अपने चारों ओर के अधूरेपन के बीच ही जीने की आदत डालनी पड़ती है। पूर्णता की चाह ‘चाह’ भर होती है, उसकी ‘प्राप्ति’ कभी नहीं होती। इसलिए दुनिया के हर व्यक्ति के साथ अपने संबंधों के मामले में, उसकी अपेक्षाओं के मामले में काफी बड़ा मारजिन रखना जरूरी है। केवल हम ही स्वाधीन रहना पसंद नहीं करते, सभी लोग स्वाधीनता चाहते हैं-ज्यादा बुद्धिवाले भी और कम बुद्धिवाले भी। यदि दूसरों के लिए, खसकर अपने से छोटों के लिए,हमने अपने मन में अपेक्षित उदारता रख ली है तो जितना सुख दूसरों को हमसे मिलेगा, उससे कम हमें नहीं मिलेगा; क्योंकि यह उदारता आदमी के मन में कुढ़न और चिड़चिड़ाहट क बीजों को उगने की छूट नहीं देती।

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