Sunday, November 6, 2011

बोलते वि‍चार 30 - आशीर्वाद की वास्तविकता

                                                           आशीर्वाद की वास्तविकता
                                                     
बोलते वि‍चार 30
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
 



एक बाजार से छिटपुट खरीदारी करके वापस आते हुए एक बुजुर्ग महोदय का शक्कर से भरा पॉलिथीन पैकेट गली में गिरकर किनारे से फट गया और उसमें से शक्कर निकलकर फैलने लगी। सड़क का फर्श पक्का और साफ था, इसलिये बुजुर्ग महोदय शक्कर को ऊपर-ऊपर से बटोरना चाहते थे। वे ऐसा करने ही वाले थे कि सामने से आती हुई दो अनजान लड़कियों में से एक ने तेजी से पास आकर इस काम में उनका हाथ बँटाना शुरू कर दिया। काम पूरा हो जाने पर बुजुर्ग ने  ‘धन्यवाद बेटी’ कहते हुए उस विवाह योग्य लड़की को आशीर्वादात्मक भाव से स्नेहपूर्वक यह भी कह दिया कि ‘सुखी रहो, तुम्हें खूब अच्छा पति मिले।’
    संयोग से कुछ अंतराल के बाद ऐसा भी हो गया। जब वह युवती उन बुजुर्ग से लगभग एक वर्ष बाद अचानक फिर मिली तब उनसे नमस्ते करते हुए बोली, ‘दादाजी, आपने मुझे आशीर्वाद दिया था। मैं बहुत सुखी हूँ। आपका आशीर्वाद मुझे खूब फला है।’ जाहिर है कि लड़की के संस्कार बहुत अच्छे थे।



उसके जाने के बाद बुजुर्ग महोदय स्वयं से प्रश्न करने लगे कि क्या सचमुच उनकी आशीर्वाद में इतनी ताकत है कि वे केवल दो-चार वाक्य कहकर किसी को सुखी बना सकें ? उन्होंने विचार किया कि लोग अकसर आशीर्वाद दिया करते हैं और उनमें से बहुत से फलते भी हैं; पर ऐसा क्यों होता है ?

उनके दिमाग में एक बात यह आई कि उनके मुँह से सबके लिए नहीं, केवल अच्छों के लिए ही खुले दिल का आशीर्वाद निकलता है। शक्कर वाली घटना के दिन साथ वाली दूसरी लड़की के लिए तो नहीं निकला था; यद्यपि वह भी पास ही खड़ी थी, पर शायद हेकड़ थी। इस प्रकार का भेदात्मक व्यवहार प्रायः सब लोगों के जीवन में निसर्गतः घटित होता है। यदि आप स्वयं परयह बात लागू करके देखें तो पाएँगे कि आप किसी चोर और चरित्रहीन को सच्चा आशीर्वाद कभी नहीं देंगे कि जाओ, फलो-फूलो।

निष्कर्ष यह निकलता है कि आशीर्वाद पाने वाले श्रद्धावान् व्यक्ति को सुख वस्तुतः आशीर्वाद के कारण नहीं मिला करता है, वह उसकी स्वयं की अर्जित कमाई होता है। संकेतित उदाहरण में सुख पाने वाली पड़की पहले से ही खूब गुणी थी। जब वह एक अनजान व्यक्ति की मदद के लिये अचानक दौड़ सकती थी तब अपने सुख-दुःख के स्थायी साथी पति तथा अपने सगे बुजुर्ग सास-ससुर आदि के मन को मोह लेने में सिद्धहस्त क्यों नहीं होगी।

एक अन्य उदाहरण लें। एक छात्र एम.ए. (प्रीवियस) की परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर चुका था। वह फानइल की परीक्षा के कुछ पहले अपने एक श्रद्धेय टीचर के पास आशीर्वाद लेने पहुँचा। जब टीचर ने उसके लिए ‘सामान्य ढ़ंग से खूब अच्छा’ कह दिया तो वह बोला, ‘नहीं सर ! मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझे आशीर्वाद दीजिये। ‘ठीक है, भाई। छात्र के मन में विश्वास था कि यदि गुरूजी वैसा करेंगे तो वह फाइनल में भी जरूर टाप करेगा। वैसा आशीर्वाद देने में गुरूजी शुरू में कुछ सकुचा रहे थे कि कहीं उनका आशीर्वाद फेल न हो जाए; पर छात्र ने परीक्षाफल के समय उनकी पूरी इज्जत रख ली।

इस उदाहरण में भी छात्र ने टाप वस्तुतः स्वयं की निष्ठा और परिश्रम के बल पर किया था, पर श्रेय गुरूजी के आशीर्वाद को मिल गया। सच्चाई यह है कि वह छात्र टाॅप अन्यथा भी करता। साफ बात है कि गुरूजी किसी थर्ड क्लास छात्र को ऐसा आशीर्वाद नहीं दे सकते थे। उन्होंने ‘अच्छे’ को ‘अच्छा’ कहा, बस।

दरअसल जिन शिष्यों का भविष्य उज्जवल होना पहले से निश्चित रहता है, गुरूजी लोग उनके बारे में इस सत्य का उद्घाटन मात्र कर देते हैं आशीर्वाद देकर। वे कोई नई या जादूवाली बात नहीं करते। चूँकि ऐसे शिष्यों के संस्कार पहले से ही अच्छे होते हैं, इसलिये वे अपने को अहंकार से दूर रखकर बड़ों के आशीर्वाद को अपना संबल मानते हुए और भी जी-जान से अध्ययन करते हैं तथा अच्छा फल पाने के बाद भी स्वयं को उसका श्रेय न देकर उसे नम्रतापूर्वक आशीर्वाद का ही प्रताप स्वीकार करते हैं। ऐसे छात्रों के लिए उनके बड़ों के आशीर्वाद हरदम बरसने को आतुर रहते हैं। उनका महत्व वहीं समझता है, जो उन्हें पाने के योग्य होता है। वे सदभावनाओं के इंजेक्शन होते हैं। वे अहंकार की नस काटने वाले होते हैं।

Production - Libra Media Group, Bilaspur (C.G.) India

1 comment: