बोलते विचार 34
आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
प्रार्थना का स्वरूप चाहे कोई भी हो, उसका मतलब सिर्फ अपने को बहुत छोटा और अपने आराध्य को बहुत बड़ा मानने से रहता है। प्रार्थना के माध्यम से आदमी अपनी साकार या निराकार अर्चनीय सत्ता को प्राप्त करने और असफलता को झेलने की ताकत इकट्ठी करता है। वह प्रार्थना करते समय महसूस करता है कि सर्वशक्तिमान का साया उसकी रक्षा कर रहा है।प्रार्थना एक ओर दुःखों की त्राण-स्थली है और दूसरी तरफ सुखों की चिरंतन आशा है। गरीब लोग अपनी गरीबी के लिये सहारा प्रार्थना में ढ़ूँढ़ते है। और रईस लोग अपनी रईसी बचाने और उसे बढ़ाने का रास्ता प्रार्थना में ढ़ूँढ़ते हैं। वे रईसीजन्म व्याधियों से मुक्ति के लिए भी प्रार्थना का सहारा लेते हैं। प्रार्थना हर आस्थावान् को संजीवनी देती है।
प्रार्थना से अहंकार का क्षय होता है और स्वभाव में नम्रता पनपती है। उससे मन स्थिर होता है और मनोबल बढ़ता है, जिससे आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। प्रार्थना उस विश्वास की अति को नियंत्रण में रखती है और आदमी को उसकी सीमाओं का आभास कराती है। कुछ बड़े-बड़े डाक्टर भी आपरेशन करने के पूर्व परमपिता का स्मरण कर लेते हैं। उस समय उनके द्वारा की गई नमन-प्रार्थना का उद्देश्य और लाभ होता है कि वे स्वयं को कर्ता-धर्ता समझने की भूल नहीं करते, भले ही भौतिक रूप से वही सब कुछ करते हैं।
कई खिलाड़ी खेल के मैदान में प्रवेश करते समय भूमि का स्पर्श करके हाथ को अपने माथे से लगाते हैं। उनका हृदय अप्रत्यक्ष रूप से विजय की याचना करता है। उन्हें विजय वस्तुतः वह भूमि अपने हाथों से नहीं सौंपती, वे स्वयं ही उसे अपने सत्प्रयत्न से पाते हैं; लेकिन उस क्षण भर की प्रार्थना जैसी चीज से वे इच्छाशक्ति, निष्ठा, आत्मबल एवं गलती के प्रति भय और सावधानी आदि बहुत कुछ संचित कर लेते हैं।
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