23 मार्च......शहीद दिवस....। आज के दिन शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने हँसते-हँसते भारत की आजादी के लिए 23 मार्च 1931 को 7:23 बजे सायंकाल फाँसी का फंदा चूमा था। आज का ये कार्यक्रम हम सर्मिपत करते हैं अपने देश को आजादी दिलाने वाले शहीदों को.......
मैं अमर शहीदों का चारण
उनके गुण गाया करता हूँ
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है,
मैं उसे चुकाया करता हूँ।
यह सच है, याद शहीदों की हम लोगों ने दफनाई है
यह सच है, उनकी लाशों पर चलकर आज़ादी आई है,
यह सच है, हिन्दुस्तान आज जिन्दा उनकी कुर्वानी से
यह सच अपना मस्तक ऊँचा उनकी बलिदान कहानी से।
पॉडकास्ट में शामिल गीत की फिल्में......शहीद नई व पुरानी, हकीकत, लीडर, प्रेमपुजारी आदि
एक बुलबुले-सा जीवन लिये वे आये और हज़ारों चिरागों से हमारे जीवन और देश को रौशन कर चुपचाप अनंत में लीन हो गये । उनमें से कुछ के नाम हम जानते हैं और बहुत-से नाम ऐसे भी हैं जो अतीत के अंधकार में खो गये । वे किसी धर्म के लिए नहीं लड़े थे । वे लड़े थे इस देश के लिए - एक अटूट, अखंड भारत के लिए क्योंकि उन्हें से देश से दीवानेपन मुहब्बत थी । यह प्यार है ही ऐसा आप अपने प्रेमी या प्रेमिका को सर्वस्व समर्पित कर देते हैं पर फिर भी मन में एक हूक-सी उठती है कि नहीं अभी कुछ कमी है और आत्मा कह उठती है -
मन समर्पित, तन समर्पित और यह जीवन समर्पित
पर चाहता हूँ देश की धरत तुझे कुछ और भी दूँ । (समर्पण, कवि: राम अवतार त्यागी)
और वे इसी कुछ और भी देने की उम्मीद लिये हमसे दूर हो गये । हममें से कई कहेंगे कि क्या हुआ, उन्होंने बहुत कुछ पाया भी तो - हमारा आदर, सम्मान...लेकिन हमें मिली है उनकी बदौलत ये बेशकीमती आजादी.....
भगत सिंह प्रायः यह शेर गुनगुनाते रहते थे- जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है
सर से कफन लपेटे कातिल को ढूँढ़ते हैं.
भगत सिंह मूलतः मार्क्स व समाजवाद के सिद्धांतो से प्रभावित थे. इस कारण से उन्हेअंग्रेजों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी. ऐसी नीतियों के
पारित होने के खिलाफ़ विरोध प्रकट करने लिए क्रांतिकारियों ने लाहौर की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची. भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा ना
हो तथा अंग्रेजो तक उनकी ‘आवाज़‘ पहुंचे. निर्धारित योजना के अनुसार भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंक दिया. वे चाहते तो भाग सकते थे पर भगत सिंह की सोच थी की गिरफ्तार होकर वेअपना सन्देश बेहतर ढंग से दुनिया के सामने रख पाएंगे. करीब २ साल जेल प्रवास के दौरान भगत सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से भी जुड़े रहे और लेखन व अध्ययन भी जारी रखा. इसी दौरान उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ. फांसी पर जाने से पहले तक भी वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे. जेल मे भगत सिंह और बाकि साथियो ने ६४ दिनो तक भूख हडताल की.२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई. फांसी पर जाते समय वे तीनों गा रहे थे -
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी .
फ़ासी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को लिखे पत्र में भगत सिह ने लिखा था -
उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा (अन्याय) क्या है
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है
दहर (दुनिया) से क्यों ख़फ़ा रहें,
चर्ख (आसमान) से क्यों ग़िला करें
सारा जहां अदु (दुश्मन) सही, आओ मुक़ाबला करें.
शहीद राजगुरु का पूरा नाम ‘शिवराम हरि राजगुरु‘ था. राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को पुणे ज़िले के खेड़ा गाँव में हुआ था, जिसका नाम अब ‘राजगुरु नगर‘ हो गया है. उनके पिता का नाम ‘श्री हरि नारायण‘ और माता का नाम ‘पार्वती बाई‘ था. बहुत छोटी उम्र में ही ये वाराणसी आ गए थे. यहाँ वे संस्कृत सीखने आए थे. इन्होंने धर्मग्रंथों तथा वेदो का अध्ययन किया तथा सिद्धांत कौमुदी इन्हें कंठस्थ हो गई थी. इन्हें कसरत का शौक था और ये शिवाजी तथा उनकी छापामार शैली के प्रशंसक थे. वाराणसी में इनका सम्पर्क क्रंतिकारियों से हुआ. ये हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए और पार्टी के अन्दर इन्हें ‘रघुनाथ‘ के छद्म नाम से जाना जाने लगा. चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और जतिन दास इनके मित्र थे. वे एक अच्छे निशानेबाज भी थे.
राजगुरु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे. 1919 में जलियांवाला बाग़ में जनरल डायर के नेतृत्व में किये गये भीषण नरसंहार ने राजगुरु को ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ बाग़ी और निर्भीक बना दिया तथा उन्होंने उसी समय भारत को विदेशियों के हाथों आज़ाद कराने की प्रतिज्ञा ली और प्रण किया कि चाहे इस कार्य में उनकी जान ही क्यों न चली जाये वह पीछे नहीं हटेंगे. जीवन के प्रारम्भिक दिनों से ही राजगुरु का रुझान क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ होने लगा था. अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक प्रदर्शन में पुलिस की बर्बर पिटाई से लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई थी. लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए राजगुरु ने 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज़ सहायक पुलिस अधीक्षक ‘जे. पी. सांडर्स‘ को गोली मार दी थी और ख़ुद ही गिरफ़्तार हो गए थे.
है अमर शहीदों की पूजा, हर एक राष्ट्र की परंपरा
उनसे है माँ की कोख धन्य, उनको पाकर है धन्य धरा,
गिरता है उनका रक्त जहाँ, वे ठौर तीर्थ कहलाते हैं,
वे रक्त—बीज, अपने जैसों की नई फसल दे जाते हैं।
मई, 1907 को पंजाब के लायलपुर, जो अब पाकिस्तान का फैसलाबाद है, में जन्मे सुखदेव भगत सिंह की तरह बचपन से ही आज़ादी का सपना पाले हुए थे। भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में पास-पास ही रहा करते थे. ये दोनों ‘लाहौर नेशनल कॉलेज‘ के छात्र थे. दोनों एक ही सन में लायलपुर में पैदा हुए और एक ही साथ शहीद हो गए. इन्होने भगत सिंह, कॉमरेड रामचन्द्र एवम् भगवती चरण बोहरा के साथ लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन किया था. सांडर्स हत्या कांड में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का साथ दिया था. १९२९ में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में व्यापक हड़ताल में भाग लिया था. भगत सिंह और सुखदेव दोनों के बीच गहरी दोस्ती थी. चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में ‘पब्लिक सेफ्टी‘ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल‘ के विरोध में ‘सेंट्रल असेंबली‘ में बम फेंकने के लिए जब ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी‘ (एचएसआरए) की पहली बैठक हुई तो उसमें सुखदेव शामिल नहीं थे. बैठक में भगतसिंह ने कहा कि बम वह फेंकेंगे, लेकिन आज़ाद ने उन्हें इज़ाज़त नहीं दी और कहा कि संगठन को उनकी बहुत ज़रूरत है. दूसरी बैठक में जब सुखदेव शामिल हुए तो उन्होंने भगत सिंह को ताना दिया कि शायद तुम्हारे भीतर जिंदगी जीने की ललक जाग उठी है, इसीलिए बम फेंकने नहीं जाना चाहते. इस पर भगतसिंह ने आज़ाद से कहा कि बम वह ही फेंकेंगे और अपनी गिरफ्तारी भी देंगे. अगले दिन जब सुखदेव बैठक में आए तो उनकी आंखें सूजी हुई थीं. वह भगत को ताना मारने की वजह से सारी रात सो नहीं पाए थे. उन्हें अहसास हो गया था कि गिरफ्तारी के बाद भगतसिंह की फांसी निश्चित है. इस पर भगतसिंह ने सुखदेव को सांत्वना दी और कहा कि देश को कुर्बानी की ज़रूरत है. सुखदेव ने अपने द्वारा कही गई बातों के लिए माफी मांगी और भगतसिंह इस पर मुस्करा दिए थे. जब-जब हम शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे शहीदों को याद करते हैं तो बरबस ये पंक्तियाँ याद आ ही जाती हैं
कभी वो दिन भी आयेगा, कि जब आजाद हम होंगे,
ये अपनी ही जमीं होगी, ये अपना आसमां होगा,
शहीदों कि चिताओं पर, लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का,यही नामों-निशां होगा.
क्या हमें पता भी है कि उन्हें कहाँ रात के अंधेरे में चुपके-से जलाया गया था ? क्या हमने उन्हें दिए वचनों का पालन किया? शुरुआत की तो उनकी कुर्बानियों पर अपने स्वार्थ को अधिक महत्त्व दे कर - हमने देश को बाँटा, उस देश को जो उनकी प्रेमिका थी, माँ थी । माँ या प्रेमिका बांटी नहीं जाती । अगर प्यार हो तो प्रेमिका पर सब न्यौच्छावर कर दिया जाता है, उसका कत्ल नहीं किया जाता । पर अपने नीहित स्वार्थ में हम भूल गए कि कोई रामप्रसाद बिस्मिल हो गए थे और भगतसिंह की ही तरह राजगुरू और अश्फ़ाक भी थे । इन प्रेमियों ने कहाँ चाहा था कि उनकी प्रेमिका की यह दुर्दशा की जाए। मगर हम सब भूल गये । बस याद है तो यही - मैं, मेरा... पर मैं और मेरा से ममत्व तक का सफ़र कठिन है... ममत्व से ममता आती है और माँ कहाँ बच्चे पर आँच आने देती है?
आइये आज उन शहीदों को याद करें और मन से उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करें। उनके रक्त से सींचे गए स्थानों को नवयुग के तीर्थ बनायें जहाँ धर्म, जाति के भेदभाव के बिना बस अमरप्रेमी बन पहुँचें।
आभार उन सभी का जिनकी पंक्ितयों या सामग्री का इस आलेख में प्रयोग किया गया