Monday, November 2, 2015

संवेदना ९ - त्योहारों में अपनों को याद करने का सिलसिला

4 अक्टूबर
                             
एक बार फिर आया महीने का पहला रविवार
 समय - 3 अक्टूबर, दोपहर : 1.30 मिनट
* हैलो!
* हैलो...कौन...
* मैं वृद्धाश्रम से बोल रहा हूं...अरुण बोल रहे हैं?
* जी, नमस्ते...बतायें....
* जी, मैं ये पूछना चाहता था कि कल पहला रविवार है, आप लोग आ रहे हैं ना?
* बिल्कुल, हम जरूर आ रहे हैं.
* आइये....आइये....आपका इंतजार है.
प्रमिला दीदी जो सारे बुजुर्गों का ख्याल रखती हैं 
समय - 3 अक्टूबर, दोपहर 1.45 मिनट
* हैलो, रुनझुन बिटिया...
* नमस्ते बाबाजी, कैसे हैं आप?
* मैं बढि़या, तुमसे ये पछना था कि कल का प्रोग्राम फाइनल है कि * नहीं, कोई खबर नहीं आई अब तक।
* जी बाबाजी, बिल्कुल फाइनल है....शाम 4 बजे हम सब आ रहे हैं      ना आप लोगों से मिलने।
* बढि़या, कल का चाय नाश्ता हमारी तरफ से।
* चलिये ठीक है, कल प्रमिला दीदी के हाथ की चाय पियेंगे हम सब।
* जरूर...जरूर बेटा।
महीने के पहले रविवार को वृद्धाश्रम जाते ये नवां महीना है हमारा और हमारी उपलब्धि ये कि हम उनके दिल में धीरे धीरे बसने लगे हैं....वो हमें अब अपना मानने लगे हैं.....उन्हें हमारा भी उतना ही इंतजार रहता है जितना कि हमें। जैसा कि हमने उनसे वादा किया था, हम पहुँच गये ठीक 4 बजे। कल्याण कुंज में पहले से दरियां बिछी हुई थीं....अंदर से प्रमिला दीदी की आवाज आ रही थी...जल्दी तैयारी करो, सब आने वाले होंगे.....हम सब मुस्कुरा पड़े।

खैर हमें आते देख सभी की आंखें हमसे पूछ रही थीं, इस बार क्या? हमने भी ज्यादा देर तक सरप्राइज़ नहीं बनाया....और उनसे कहा, ‘‘बाबा-दादी, त्योहारों का समय चल रहा है....एक के बाद एक त्योहार...ऐसे में हर किसी को अपनों की याद तो आती है....इच्छा होती है कि अपने घर में, दोस्तों से, रिश्तेदारों से बात करें...तो आज माध्यम होंगे हम....हम सबने अपने अपने मोबाइल निकाल कर रख दिये।


उसके बाद जो सभी बाबा दादियों की प्रतिक्रियाएं थीं, वो हैरान करने वाली थीं। कुछ तो बहुत खुश हुए और भागते हुए अपने बिस्ता से फोन डायरियां या कागज़ की पर्चियां जिन पर नंबर लिखे थे...और लग गये फोन लगवाने में हमसे....और काफी बातें भी कीं। कुछ ने कहा हमारा तो कोई है ही नहीं...हम तो अकेले हैं...तो कुछ ने कहा हमारे पास नंबर ही नहीं हैं...कुछ गुस्सा हुए और कहने लगे, जिन्होंने हमें घर से निकाल दिया, उन्हें त्योहार की बधाई क्यों दें...बात करनी ही होती, तो हमें यहां क्यों छोड़ते? एक दादाजी बोलते हैं, तुम बच्चों को देखता हूं तो नाती-पोतों की याद नहीं आती, अब तो तुम्हीं सब हमारा परिवार हो......


उस दिन कई आंखें नम हुईं, कुछ की खुशी से-जिनकी घरों में बात हुई, कुछ की दुख में-जिनको अपनों की याद तो आई, पर बात करने की हिम्मत नहीं हुई, कुछ उनकी-जिनके अपने कोई थे ही नहीं और कुछ हमारी-उनकी आपबीती सुनकर। बहुत मिला जुला सा माहौल था। आपस में भी बातें उनकी अपनों और न रहे अपनों को लेकर ही हो रही थी।

माहौल को ठीक करने की जिम्मेदारी उठाई हमारे साकेत ने....माइक उठाया और शुरू हो गया...एक से बढ़कर एक बेहतरीन नगमें गाए उसने और  माहौल को खुशनुमा कर दिया। हमारे दादा दादी जो कुछ पल पहले तक अपने आंयू छुपा रहे थे...वहीं अब खुद माइक लेकर गाने लगे थे।



सच ही कहते हैं...संगीत में जादू होता है, जो हर गम को खत्म कर देता है। इतने में एंट्री ली हमारी आभा दीदी ने....बहुत बड़े बड़े कपड़े के थैले लेकर...देख तो उसमें थे  बड़े-कचैड़ी-समोसे और मिठाई....प्रमिला दीदी की चाय भी बन गई थी....और शुरू हो गई हल्की सी बारिश ...

बस बारिश ....नग़मे....गाने...समोसे, बड़े और साथ में चाय.....और  क्या चाहिये एक शानदार शाम के लिये....गप्पें! जी वो तो करने में हम एक्सपर्ट हैं ही.....

आलेख: रचिता टंडन

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