Monday, February 13, 2012

बोलते वि‍चार 51- नियम-पालन और अपवाद

 
नियम-पालन और अपवाद

बोलते वि‍चार 51
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा


नियम जीवन में व्यवस्था लाने और समाज में अनुशासन बनाए रखने के लिए होते हैं। उनका पालन-और सख्ती से पालन बहुत अच्छी बात है; लेकिन पागलपन की हद तक नहीं। कभी-कभी ऐसी स्थिति निर्मित हो जाती है कि नियम विशेष को तोड़ देना ही विवेकपूर्ण रहता है। उदाहरण के लिए, यदि सामने से कोई अनियंत्रित वाहन गल दिशा में ताबड़तोड़ चला आ रहा है तो हमारा इस जिद पर अड़ा रहना मूर्खता होगी कि हम नियम का पालन करते हुए अपने बाईं ओर ही चलते रहें।

सामाजिक नियम सार्वकालिक और सार्वभौम नहीं हुआ करते। यही कारण है कि उनमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी कर लिये जाते हैं।
एक साहब के सामने भोजन की थाली ठीक साढ़े नौ बजे आ जानी चाहिए उनकी श्रीमती जी की ओर से उनके इस नियम में शायद ही कभी व्यवधान पड़ता हो; लेकिन कभी-कभी अच्छी-से-अच्छी मशीन सकारण फेल हो जाती है। एक बार थाली सामने पहुँचने में चार-पाँच मिनट की देरी हो गई। बस, फिर क्या था, वे महाशय गुस्सा करके बिना भोजन छुए गए। (यह भी नहीं पूछा-सुना कि बिलंब क्यों हुआ) उस साहब को ‘नियम का पक्का’ कहने के बजाय ‘झक का पक्का’ कहना अधिक उपयुक्त होगा। (यों वे खुद खाने की मेज पर अक्‍सर पाँच-सात मिनट आगे-पीछे आने के ‘नियम’ में स्वयं के लिए ‘उदार छूट’ रखते हैं।)

एक उदाहरण और। आप नियमित रूप से एक निश्चित समय पर पूजा करती हैं। जरूर कीजिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि घर में किसी के बीमार हो जाने के कारण अतिरिक्त काम बढ़ जाने से या किसी मेहमान के आ जाने से आप इस नियम में कोई हेर-फेर नहीं कर सकतीं। ऐसे में आपको यह मान लेना चाहिए कि भगवान इतने स्‍वार्थी नहीं हैं कि वे आपको अपनी पूजा के बदले अन्य जरूरी काम करने की अनुमति न दें।

नियमों के साथ अपवादों का भी महत्व है। लेकिन नियमों को दिन-रात तोड़नेवाला व्यक्ति अपवाद का अर्थ समझता। उसकी नियमहीनता अपराध की श्रेणी में आती है। दूसरी ओर, दिन-रात नियमों के दायरे में काम करने वाले व्यक्ति के यदि एकाध बार कोई नियम टूट जाता है (और उससे कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ता) तो उसके नियम-पालन में कमी नहीं मानी जानी चाहिए। आकस्मिक अवकाशों से सर्विस में ब्रेक नहीं आया करता।

No comments:

Post a Comment