आलेख व स्वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
हमें कई बार अपने पद से ऊपर के पद पर बैठे हुए व्यक्ति से भिन्न-भिन्न प्रकार की शिकयतें रहती है; जैसे-वह हमारी पदोन्नति नहीं करता, वह हमारी सुख-सुविधाओं का ध्यान नहीं रखता, वह स्वार्थ में लिप्त रहता हैं, वह अन्यों का पक्ष लेता है इत्यादि। लेकिन यदि हम स्वयं को उसकी परिस्थितियों में डालकर देखें तो ये शिकायतें प्रायः निर्मूल होती हैं, क्योंकि हम अपना पक्ष तो सोच डालते हैं, पर उसकी जिम्मेदारियों और कठिनाइयों की ओर बिलकुल ध्यान नहीं दे पाते। जिस तरह हम चाहकर भी और कोशिश करके भी स्वयं अपने लिये या दूसरों के लिये बहुत सी बातें पूरी नहीं कर पाते हैं, उसी तरह वह भी बहुत सी बातें चाहकर भी और कोशिश करके भी पूरी नहीं कर पाता है। जिस प्रकार हमारी सीमाएँ हैं उसी प्रकार हर बड़े की भी सीमाएँ होती है।
एक उपाध्यक्ष महोदय अपने अध्यक्ष के हर वक्त खि़लाफ रहते थे। कुछ वर्ष बाद उन्हें अन्यत्र अध्यक्ष पद मिल गया। आजकल वे अपने पुराने अध्यक्ष के बेहद अनुकूल हैं, क्योंकि ‘उनका अनुभव बढ़ गया है’। उन्हें अपनी नई जगह पर ठीक वही अभाव और अपने छोटों को कितनी ही बातों में संतुष्ट न रख पाने से संबंधित कठिनाइयाँ झेलनी पड़ रही हैं।
एक विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग के अध्यक्ष बार-बार अपने कुलपति से यह आग्रह करते थे कि उन्हें शीघ्र ही एक अध्यापक और दिया जाना चाहिए। उसकी उनके विभाग को सख्त जरूरत हैं। कुलपति के द्वारा सदा असमर्थता व्यक्त की जाने पर वे कुलपति को अल्पद्रष्टा और दोषी ठहराते थे। भाग्य से एक वर्ष बाद वे ही उस विश्वविद्यालय के कुलपति बना दिए गए। तब राजनीति विभाग के अगले वरिष्ठ अध्यापक अर्थात् कार्यकारी अध्यक्ष बहुत प्रसन्न होकर कि उनके पूर्व अध्यक्ष अर्थात् वर्तमान कुलपति उस विभाग के लिए अतिरिक्त अध्यापक की जरूरत को बहुत अधिक समझते ही हैं, अध्यापक की माँग लेकर उनके पास इस विश्वास के साथ गए कि कुलपति उनकी माँग को फौरन मान लेंगे। लेकिन नए कुलपति का उत्तर था-‘पहले मेरी दृष्टि केवल राजनीति विभाग तक जाती थी, क्योंकि तक मैं कम ऊँचाई पर बैठा था। अब अधिक ऊँचाई पर बैठने से मेरी निगाह दूर-दूर तक जा रही है और मुझ बहुत से अन्य विभागों की भी उतनी ही बड़ी जरूरत दिखाई देने लगी है। यदि मैं केवल राजनीति विभाग को अध्यापक दे दूँगा तो उचित नहीं होगा।’ इस घटना से यह सिद्ध होता है कि बड़े पदाधिकारी की जिम्मेदारियां भी बड़ी होती हैं और उसे ज्यादा बड़े क्षेत्र की जरूरतें देखनी होती हैं। साथ ही उसे बड़े पैमाने पर आलोचनाएँ और गालियाँ सहनी पड़ती हैं।
घर के बड़े को ही सब ओर की चिंता रहती है कि वह कहाँ से पैसा लाए, कैसे गाड़ी खींचे, कहाँ कटौती करे, किसको नाराज करे और किसकी बात कहाँ तक माने। वह सभी बच्चों आदि की इच्छाएँ पूरी करना चाहता है, सबका भला सोचता है, सबकी माँगों की पू र्ति की इच्छा रखता है (बशर्ते वह अंदर से बड़ा हो); पर ऐसा वह पूरी तरह से कर कभी नहीं पाता। छोटे समझते हैं कि बड़ा उन पर राज करता है; जबकि बड़े को सर्वदा प्राथमिकताओं के सहारे जीना पड़ता है। छोटे अपने हित-संपादन की तथा बड़ों की क्षमताओं की सीमाएँ नहीं जान पाते हैं। एक उदाहरण है कि घर के बच्चों की बढ़ती हुई शिकायर्तो पर एक बार पिता ने अपना पूरा वेतन बच्चों के हाथों में सौंपकर कहा कि घर का खर्च अब तुम लोग ही चलाया करो। कहने की जरूरत नहीं कि एक ही महीने में उन्हें नानी याद आ गई।
बहुत वर्ष हुए, पांडिचेरी के ‘अरविंद आश्रम’ में एक बार नपा-तुला मासिक राशन मिलने पर वहाँ के व्यक्तियों ने बाँटने वाले से प्रतिदिन ज्यादा राशन की माँग की। उसने यह बात माँ को बताई। माँ ने अनपेक्षित ढंग से कह दिया कि वे जितना भी माँगें, दे दो। उनके इस उत्तर पर आश्चर्यचकित होते हुए बाँटनेवाला बोला कि ऐसे तो तीस दिन का राशन बीस दिन में ही समाप्त हो जाएगा। यह सुनकर माँ ने कहा कि तब उनसे कह देना कि राशन समाप्त हो गया। ग़ज़ब का सादा, लेकिन उससे भी अधिक ग़ज़ब का प्रभावशाली उत्तर था माँ का यह। सुनते ही आश्रम के सारे व्यक्तियों को आँखे खुल गईं कि यदि अभी हमने ज्यादा-ज्यादा खाया तो महीने के अंतिम हम दिन हमें भूखा रहना पड़ेगा। यह है बडे़ और छोटे पदवालों का अंतर।
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