रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी क्षयराग से पीडि़त थीं। वे उनको लेकर पेण्ड्रा के टीबी सेनिटारियम आए थे और कुछ समय उन्होंने यहां बिताया था। इस बात का जिक्र अक्सर सुनने पढ़ने में आता है। लेकिन 7 अगस्त 2012 को जब पूरे देश में रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150वीं जयंती का समापन समारोह मनाया जा रहा था, हम बिलासपुर के 40 कलाकारों के एक दल ने सेनिटोरियम में उसी स्थल पर साधु हॉल में रवीन्द्र संध्या में भागेदारी निभाई और जो अनुभूति व अनुभव साथ लेकर लौटे हैं उसको व्यक्त कर पाना नामुमकिन है।
दक्षिण मध्य सांस्कृतिक प्रक्षेत्र, नागपुर के सौजन्य से काव्य भारती और संस्कार भारती के नेतृत्व में ये आयोजन जिला प्रशासन के सहयोग से आयोजित किया गया था । तीन दिवसीय कार्यक्रम के प्रथम दो दिन बिलासपुर में कलकत्ता के कलाकारों ने प्रस्तुति दी और अंतिम दिन बिलासपुर के कलाकार रवीन्द्र नाथ टैगोर को याद करने पेण्ड्रा के उसी स्थल पर पहुंचे जहां रवीन्द्र नाथ ने अपने जीवन का एक महीना गुजारा था।
रवीन्द्र नाथ टैगोर की कविताओं का हिन्दी व छत्तीसगढ़ी में अनुवाद मनीष दत्त ने किया, आठ नन्हीं बच्चियों ने सविता कुशवाहा के निर्देशन में इसको प्रस्तुत किया और इस गीत रूपक के लिये मंच पर गायन अल्पना रॉय व सुमेला चटर्जी लाहिड़ी ने किया, तबले पर संगत दी मनोज वैद्य ने और रूपक वाचन संज्ञा टंडन ने किया।
गुरुदेव जब पेण्ड्रा आए थे तब बिलासपुर स्टेशन पर उन्होंने एक कविता लिखी थी ‘फांकी‘,इस बात का जिक्र भी अक्सर सुना जाता है और आज भी ये कविता बिलासपुर के स्टेशन पर पढ़ी जा सकती है। इस कविता का नाट्य रूपांतर ‘छल‘ अलक राय ने किया और श्रुति नाट्य के रूप में इसे मंच पर प्रस्तुत किया सुमेला, मिनोति चटर्जी, असित वरण डे, विमल हालदार आदि कलाकारों ने।
श्रुति नाट्य बंगाल और महाराष्ट्र की एक प्राचीन नाट्य विधा है जिसमें मंच पर अभिनय नहीं होता लेकिन पूरे भावों और संगीत के साथ कलाकार मंचीय प्रस्तुति देते हैं।
रवीन्द्र संध्या की तीसरी प्रस्तुति थी अग्रज के कलाकारों द्वारा गुरुदेव रचित दो कहानियों ‘मुक्ति का बंधन‘ और ‘अपरिचिता‘ के नाट्य रूपांतर पर अभिनय। सुनील चिपड़े के निर्देषन में 22 कलाकारों की सूत्रधार पद्धति में हुई ये प्रस्तुति रंगरवीन्द्र नाम से पेश की गई।
टैगोर जी ने लिखते समय हर पहलू को छुआ है। समाज के बीच का व्यंग्य हो, चाहे कुछ अनछुई बातें। चरित्रों और घटनाओं को बुनने का काम बड़ी कुषलता से हुआ है। उन्होंने संगीत की समझ से ही अपने संसार को सींचा है और रवीन्द्र संध्या के माध्यम से उनकी लेखनी के विभिन्न स्वरूपों को मंच पर हमने मिलकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया और बदले में अपने आंचल में भर कर लाए हैं एक ऐसा अहसास, एक ऐसी अनुभूति कि गुरुदेव ने यहीं बिताए थे चंद लमहे और हम महसूस कर रहे थे उनकी उपस्थिति, उनका एक स्पर्श।
बढिया कार्यक्रम, काश! हम भी देख पाते।
ReplyDeleteआभार
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