Thursday, December 31, 2015

दुलारी बहिनी की आकाशवाणी से बिदाई


छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति के बीच बिलासपुर रेडियो 
के आकस्मिक उद्घोषक व कम्पीयर्स
 
छत्तीसगढ़ के आकाशवाणी केन्द्रों में छत्तीसगढ़ी कार्यक्रमों की अव्वल नंबर की प्रस्तुतकर्ता दुलारी बहिनी यानि पुष्पा यादव 60 साल की हो गईं। एक ऐसी आकस्मिक कंपीयर जिन्होंने 25 साल बिलासपुर में और उससे पहले 5-6 साल रायपुर में छत्तीसगढ़ी कार्यक्रमों की प्रस्तुति में गुजारे।
बिलासपुर आकाशवाणी स्टेशन मई 1991 में शुरू हुआ था, पहली बार जब यहां अगस्त में आॅडिशन्स हुए तो रायपुर के ‘घर आंगन’ कार्यक्रम अनुभवी कंपीयर के रूप में वे यहां से जुड़ी थीं। इस केन्द्र की परंपरा रही है कि जब भी कोई नया अधिकारी यहां आता है, किसी दूसरे केन्द्र या रिटायर होकर जाने वाला होता है तो सारे आकस्म्कि कंपीयर्स व अनाउन्सर्स मिलकर उनका वेलकम करते है, फेयरवेल देते हैं। दरअसल आपस में हम सारे कैजुअल्स एक साथ मिलने का प्रबंध करते हैं, खाते-पीते है....और इतने सारे कलाकारों का जब एक साथ जमघट होता है तो स्वाभाविक है ढेर सारी गतिविधियाँ  भी होती हैं। हम साथ में नया साल मनाते हैं, पिकनिक भी जाते हैं और आकाशवाणी के बाहर भी  कार्यक्रम करते रहते हैं।
1991 से अब तक न जाने कितने आकस्मिक उद्घोषक व महिला सभा, युवा जगत, किसानवाणी के कंपीयर्स आए, कितनों की शादी हो गई, कितनों की नौकरी लग गई और वे आकाशवाणी छोड़ कर चले गए। ये पहला अवसर था कोई कैजुअल कलाकार अपनी पूरी सेवाएं आकाशवाणी को समर्पित करके रिटायर हो रहा था, तो हमें भी लगा कुछ ऐसा होना चाहिये जो पहली बार हो।


प्रथमेश-सविता का नया नया घर बना था। प्रथमेश मिश्रा पेशे से आर्किटेक्ट हैं और उनकी पत्नी सविता भी आकाशवाणी बिलासपुर में महिला सभा की कंपीयर एक लंबे समय तक रह चुकी हैं। आर्किटेक्ट प्रथमेश ने नई टेक्नाॅलाॅजी के साथ, छत्तीसगढ़ी संस्कृति का समावेश अपने घर में बड़ी ही खूबसूरती के साथ किया है। हमारे बीच की उनकी बहन  ऐश्वर्यलक्ष्‍मी ने  उस घर पर लिखी हुई अपनी कविता हमें सुनाई, और बस हमने भी मिलकर तय किया कि इसी अनोखे घर में दुलारी बहिनी की बिदाई पार्टी का आयोजन किया जायेगा। वो कवि‍ता आप भी पढ लीजि‍ये तो उस घर का स्‍वरूप समझ में आ जायेगा.....


भैया ने बनवायो ऐसो मकान।
न दो मंजला बनवायो, न चौमंजला बनवायो, बनवायो एक मंजला,
दिख रौ दो मंजिला मकान, भैया ने बनवायो ऐसो मकान।
न कालम खड़े किये, न बीम ढलायो,


नींव पे बनवायो मकान, भैया ने बनवायो ऐसो मकान।
न सीमेंट जोड़ायो, न चूना, गारा लगवायो,
मिट्टी से जोड़वायो मकान, भैया ने बनवायो ऐसो मकान।
न टाइल्स लगवायो, न सीमेंट छपायो,
मिट्टी से छपवायों मकान, भैया ने बनवायो ऐसो मकान।
न पेंट करायो, न चूना पोतायो,
गोबर से लिपायो मकान, भैया ने बनवायो ऐसो मकान।
न लेंटर ढलायो, न टीना लगवायो,


पटौहां लगवायो, खपरा छवायो मकान, भैया ने बनवायो ऐसो मकान।

बहिनें जो अइहैं, खपरा छवइहैं, खपरा छवाई नेग मंगिहें,
भइया देओ हमाओ ब्यवहार, भैया ने बनवायो ऐसो मकान।
भैया कहत हैं, ठंड में कम ठंडा हे, गर्मी में न कूलर चलें न एसी लगे,
बिना पंखों के हवादार है मकान, भैया ने बनवायो ऐसो मकान।
हम कहथ हैं बारिस में टपक को मजा सा इ देहे मकान, भैया ने बनवायो ऐसो मकान।
भैया हमारे प्रथमेश हैं इंजीनियर, उन्होंने बनाया नक्षा, उन्हींने बनवायो इको-फ्रेन्डली मकान,
पूरी कालोनी में अलगई दिखरौ भैया के आलीशान मकान, भैया ने बनवायो ऐसो मकान।
गांव में दाउजू की बखरी सा दिखरौ, शहर में भैया को शानदार मकान।
मम्मी, पिताजी की इच्छा पूरी कर दी भैया ने बनवाके मकान, भैया ने बनवायो ऐसो मकान।

बिना सीमेंट और छड़ों का दो मंजिला मकान, लकड़ी ईंट, चूना, गेरू का उपयोग, खुला मछलीघर, फव्वारा, दरवाजे पर डोरबेल की जगह गाय की घंटी., किचन दिखने में लकड़ी का, पर पूरा माॅड्यूलर, घर के अंदर भी गोबर की लिपाई, सीढियों पर लोक कलाकृति..... हर चीज इतनी सोच समझकर बनाई गई है यहां कि सचमुच दर्शनीय बन गया है ये घर।

हम करीब 50 कैजुअल्स मकान मालिकों की सहमति और सहयोग 18 दिसंबर को इकट्ठे हुए इस घर में जो शहर से लगे हुए तिफरा में यदुनंदर नगर के पीछे की तरफ स्थित है। कुछ ग्रामीण माहौल इस भवन ने निर्मित कर दिया और कुछ हमने तैयार कर लिया.....आखिर दुलारी बहिनी ग्राम सभा, किसानवाणी, घरआंगन जैसे कार्यक्रमों से जुड़ी कलाकार रही हैं। अनीश के नेतृत्व में  फरा, बरा       झो-झो और हरी चटनी के साथ तैयार मिला जब हम वहां पहुंचे।


पिकनिक से माहौल के बीच हम सब जब साथ मिल कर बैठे, तो यादों का सिलसिला शुरू हुआ। संस्मरणों की फेहरिस्त, दुलारी बहिनी की अद्वितीय कंपीयरिंग की चर्चा, स्टूडियो में मौजूद लोगों को अपनी कंपीयरिंग में जोड़कर गोठ बात करने की चर्चा, अकेले माइक के सामने बैठकर पूरे गांव का माहौल निर्मित करने की क्षमता, एक साथ तीन आवाजों में लाइव कार्यक्रम प्रस्तुत करने की अद्भुत शैली। उनके साथ एक दिन पहले ही नानी बनने की खुशी भी जुड़ी थी जो हम सबके लिये भी इस खास दिन को और खुशमय बनाये हुई थी।





देशभर के किसानवाणी कार्यक्रमों की रिकाॅर्डिंग एक बार दिल्ली मंगवाई गई थी, जिसमें हमारी दुलारी-अंजोरी की जोड़ी द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम को अधिकारियों ने सर्वश्रेष्ठ माना था। 

एक बार मुझे एड्स जैसे गंभीर विषय पर छत्तीसगढ़ी में 30-30 मिनट के 15 कार्यक्रम मात्र 20 दिनों में बनाकर देने की चुनौती मिली थी। बिना स्क्रिप्ट देने के वादे के साथ मैंने ये जिम्मेदारी सिर्फ दुलारी बहिनी का साथ होने के कारण स्वीकार ली।
‘नवा अंजोर’ नामक ये श्रृंखला छत्तीसगढ़ के समस्त केन्द्रों से अब तक 4 बार प्रसारित हो चुकी है। ऐसी हैं हमारी दुलारी बहिनी।


आयोजन आगे बढ़ा...दोपहर का खाना...लाई बड़ी, दही मिर्ची, बिजौरी के साथ्ज्ञ जिमीकंद की सब्जी, टमाटर की चटनी, चैसेला, बोबरा.....पूरा छत्तीसगढ़ी भोज तैयार था।

भोजन के बाद एक पुण्य का काम किया सबने....युवा जगत की आकांक्षा एक एनजीओ से जुड़ी है जो गरीब बच्चों की शिक्षा के लिये 75 किलामीटर लंबा बैनर तैयार कर रहे हैं, जिसमें प्रति हाथ की छाप का प्रिंट लेकर वे 20 रु. एकत्र कर रहे हैं, इस काम की शुरूवात उसने इसी दिन से की और आकाशवाणी के कलाकारों ने गरीब बच्चों के लिये भरपूर योगदान दिया।
 

बार बार आंखें भर रही थीं दुलारी बहिनी की, वो फूट पड़ी जब हमने उनको झांपी और स्टूडियों में माइक के साथ खींची तस्वीर पर सारे उपस्थित लोगों के हस्ताक्षर के साथ उन्हें भेंट की और वो सिर्फ इतना बोल पाईं ‘‘25 साल भले ही भूल जाऊँ, आज का दिन न भुला पाऊँगी कभी’’।


छत्तीसगढ़ी कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने आये बिलकुल नए कम्पीयर  ने दुलारी बहिनी पर एक कविता तैयार की थी...पढ़िए और जानिए कुछ और हमारी पुष्पा दी के बारे में....
मेरी कलम सबसे पहले उनको देती है बधाई,
जिनकी वजह से, जिनके सम्मान में ये शुभ घड़ी है आई।
पर मैं यहाँ क्यों खड़ा हूँ, मुझे क्या मालूम उनके बारे में, मैं तो नया हूँ।
पर हाँ काफी कुछ है कहने को मेरे पास, क्योंकि कई बार मैं आकाशवाणी तो गया हूँ,
और वहां इनकी उपस्थिति और मौजूदगी के काफी सारे सबूत थे।
हर कोना, हर फूल, पेड़-पौधे जो बताने लगे वे मेरे लिये बहुत थे।
तो वहीं से आप सबके लिये अनुभव के कुछ फूल लाया हूं,
और बातें उनकी लाया हूं जो खुद फूल की पर्यायवाची हैं
अपने कार्यक्रमों में दो-दो भूमिकाएं खूबसूरती से निभाती हैं,
जिन्होंने रायपर के ब्राम्हणपारा से अपनी शुरूवात की,
और जिनकी कर्मभूमि आज बिलासपुर है।
25 वर्षों के अनुभव का सागर जिनके पास भरपूर है,
सरलता जिनकी पहचान है, सादगी जिनकी पहचान
सबको साथ लेकर चलना, इतना नहीं आसान।
जिंदगी के सबसे कठिन वक्त में भी अपने आप को संभाला है,
इनकी दो संतान ही इनके लिये मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और शिवाला हैं
बेटी में इनकी ‘श्रद्धा’ है, ‘आकाश’ को बेटा बनाया है,
1991 से लगातार बने रहकर अपना अलग ही अस्तित्व बनाया है।
संघर्ष इनसे परिभाषित होता है, परिवार को भी सही शिक्षा, संस्कार और आयाम दिया है
तभी तो ईश्वर ने उन्हें नानी बनाया और खूब सारा व्यायाम दिया है।
घर पर आप इन्हें हरदम हिन्दी बोलते ही पाओगे,
पर माइक पर छत्तीसगढ़ी सुनकर आश्चर्य में पड़ जाओगे।
दो किरदारों को साथ लेकर चलती हैं,
मिलें किसी से अगर तो सहज भाव से मिलती हैं।
कहते हैं ‘आवाज़ कभी मरती नहीं’,
हजारों लाखों श्रोताओं के बीच आप हमेशा दुलार पाओगी।
जिंदगी में हर सुख, आनंद और उत्साह लेकर आप आनंद मंगल गीत गाओगी।
आप अपने नाम के अर्थ को हमेशा खुशियों में बिखेरते रहना,
और जरूरत पड़े मुझ जैसे गरीब की आपको तो हमसे प्लीज़ मिलते रहना।
प्रतीष शर्मा
18.12.15



Tuesday, November 24, 2015

संवेदना 10- नवम्बर यानि दीवाली

1 नवंबर 2015

    बुज़ुर्गों में भी फुलझड़ी, अनार देखकर जागा बचपना......


 
 दीवाली का नाम सुनते ही ज़ेहन में आती है ढेर सारी खुशियां....अपनों के साथ हंसी-मज़ाक....दादी-नानियों के किचन से आती पकवानों की खुशबू.... आंगन सजाती रंगोली.....चौखट पर नया तोरण....दियों की लंबी कतारें.... आतिशबाज़ी, लक्ष्मी मैया की पूजा....और ढेर सारे उपहार.....                             
हमने इस बार सोच लिया कि नवम्बर महीने का पहला रविवार दीवाली का त्योहार कल्याण कुंज आश्रम में बुजुर्गों के साथ मनायेंगे। खुशियां बांटने से बढ़ती हैं...तो अपनी खुशियां बांटने हम पहुंच गये अपनों के बीच...

कुछ दिन पहले जब हमारे कुछ साथी आश्रम गये थे बाबा-दादियों से मिलने, तो उन्हें पता चला था कि कुछ बाबा-दादियों की तबियत सही नहीं है...तो हमने सोचा कि क्यों न इस बार दीवाली के उपहार स्वरूप हम उन्हें दें अच्छी सेहत का तोहफा। इस उपहार को साकार करने के लिये हम मिले डाॅ.अंशुमन जैन से .....आप होम्योपैथी डाॅक्टर हैं....जब हमने उनसे बात की और अपना इरादा बताया तो वे झट से तैयार हो गये और अपना सामान लेकर खड़े हो गये.....कहा....'चलो'..... 

उन्हें लेकर हम पहुंचे आश्रम....डाॅक्टर साहब को देखते ही सभी के चेहरे खिल उठे और लंबी लाइन लगाकर खड़े हो गये अपनी बारी का इंतजार करते. डाॅक्टर साहब भी लग गये उनके मर्ज़ को पकड़ने और उन्हें दवाइयां देने में....

           



इसी बीच हमारे बाकी साथी भी आ पहुंचे अलग अलग सामान लेकर..... रंगोली.....पकवान बनाने के लिये आटा, मैदा......फूलों की माला.....   दीया-बाती-तेल.....पटाखे......मिक्श्चर.....अचार.....चकला-बेलन..

और इन सबके आने के बाद तो जैसे आश्रम का माहौल ही बदल गया। इस बार हम हर बार की तरह एक जगह नहीं बल्कि अलग अलग ग्रुप में बंट कर काम कर रहे थे।



नज़ारा ऐसा था कि...लड़कियों का एक ग्रुप दादियों के साथ रंगोली सजा रहा था.....अगल बगल बैठे दादाजी लोग ठहाके लगा रहे थे....बच्चों ने मोर्चा संभाला आश्रम को सजाने का...जगह जगह अपनी कलाकारी कर रहे थे.....अंदर एक कमरे में डाॅक्टर साहब बाबा-दादियों की सेहत ठीक कर रहे थे.....तो हमारे लड़के पूजा घर सजा रहे थे......अंदर बड़े हाॅल में भाभियों और दीदियों ने दादियों के साथ मिलकर कमान संभाली पकवान बनाने की....और देखते ही देखते पूरा आश्रम महक उठा स्वादिष्ट पकवानों की खुशबू से.....
इतने में एक दादाजी ने अपना जादुई पिटारा खोला और उसमें से निकला ढोलक और मंजीरा....बस फिर क्या था....एक के बाद देवी भजन....शिरडी वाले साईं बाबा, दमादम मस्त कलंदर, भर दो झेाली मेरी या मोहम्मद, चलो बुलावा आया है....ऐसे गीतों से पूरा आश्रम गूंजने लगा....

देखते ही देखते ६.३० बज गये, समय हो गया था पूजा का...आरती की थाल सज चुकी थी....प्रसाद, दिये सब चीजें तैयार थीं....ओम् जय जगदीश हरे....वहां खड़े हर बाबा-दादी, बच्चे और हम पूरी श्रद्धा से गाने लगे....परम आनंद की प्राप्ति हो रही थी.....


पूजा के बाद समय था दिये जलाने का...हमारे साथियों ने पूरे आश्रम को दियों से सजा दिया....पूरा आश्रम दियों की जगमगाहट से चमकने लगा....उधर पकवान भी तैयार थे....सबने भर पेट गरम गरम खस्ते, भजिये, रसगुल्ले और नमकीन खाया....


 
               

अब बारी थी पटाखों की....सभी आ गये आंगन में....और सिलसिला शुरू हुआ आतिशबाजी का....हर बाबा दादी मगन थे अपनी अपनी फुलझड़ी जलाने में.....कोई कागज जलाकर कहता....इससे अनार जलाते हैं....तो कोई फुलझड़ी खत्म होने से पहले अपनी चकरी जलाने की जद्दोजहद में लगा था....कोई दादी फुलझड़ी जलाकर दीवाली की बधाइयां दे रही थीं....तो कोई बाबाजी दूसरे बाबाजी को संभल कर पटाखे जलाने की हिदायत दे रहे थे....
पूरा आश्रम हंसी और ठहाकों से मुस्कुरा रहा था.....और सोच रहा था....'ये पल यहीं थम जाये'....'ऐसा उत्सव और माहौल आश्रम में आज तक नहीं हुआ'‘एक बाबाजी के ये लफ्ज़ थे....ढेर सारा प्यार, आशीर्वाद और खुशियां लेकर हम वहां से विदा हुए.....
 


आलेख: रचिता टंडन

Monday, November 2, 2015

संवेदना ९ - त्योहारों में अपनों को याद करने का सिलसिला

4 अक्टूबर
                             
एक बार फिर आया महीने का पहला रविवार
 समय - 3 अक्टूबर, दोपहर : 1.30 मिनट
* हैलो!
* हैलो...कौन...
* मैं वृद्धाश्रम से बोल रहा हूं...अरुण बोल रहे हैं?
* जी, नमस्ते...बतायें....
* जी, मैं ये पूछना चाहता था कि कल पहला रविवार है, आप लोग आ रहे हैं ना?
* बिल्कुल, हम जरूर आ रहे हैं.
* आइये....आइये....आपका इंतजार है.
प्रमिला दीदी जो सारे बुजुर्गों का ख्याल रखती हैं 
समय - 3 अक्टूबर, दोपहर 1.45 मिनट
* हैलो, रुनझुन बिटिया...
* नमस्ते बाबाजी, कैसे हैं आप?
* मैं बढि़या, तुमसे ये पछना था कि कल का प्रोग्राम फाइनल है कि * नहीं, कोई खबर नहीं आई अब तक।
* जी बाबाजी, बिल्कुल फाइनल है....शाम 4 बजे हम सब आ रहे हैं      ना आप लोगों से मिलने।
* बढि़या, कल का चाय नाश्ता हमारी तरफ से।
* चलिये ठीक है, कल प्रमिला दीदी के हाथ की चाय पियेंगे हम सब।
* जरूर...जरूर बेटा।
महीने के पहले रविवार को वृद्धाश्रम जाते ये नवां महीना है हमारा और हमारी उपलब्धि ये कि हम उनके दिल में धीरे धीरे बसने लगे हैं....वो हमें अब अपना मानने लगे हैं.....उन्हें हमारा भी उतना ही इंतजार रहता है जितना कि हमें। जैसा कि हमने उनसे वादा किया था, हम पहुँच गये ठीक 4 बजे। कल्याण कुंज में पहले से दरियां बिछी हुई थीं....अंदर से प्रमिला दीदी की आवाज आ रही थी...जल्दी तैयारी करो, सब आने वाले होंगे.....हम सब मुस्कुरा पड़े।

खैर हमें आते देख सभी की आंखें हमसे पूछ रही थीं, इस बार क्या? हमने भी ज्यादा देर तक सरप्राइज़ नहीं बनाया....और उनसे कहा, ‘‘बाबा-दादी, त्योहारों का समय चल रहा है....एक के बाद एक त्योहार...ऐसे में हर किसी को अपनों की याद तो आती है....इच्छा होती है कि अपने घर में, दोस्तों से, रिश्तेदारों से बात करें...तो आज माध्यम होंगे हम....हम सबने अपने अपने मोबाइल निकाल कर रख दिये।


उसके बाद जो सभी बाबा दादियों की प्रतिक्रियाएं थीं, वो हैरान करने वाली थीं। कुछ तो बहुत खुश हुए और भागते हुए अपने बिस्ता से फोन डायरियां या कागज़ की पर्चियां जिन पर नंबर लिखे थे...और लग गये फोन लगवाने में हमसे....और काफी बातें भी कीं। कुछ ने कहा हमारा तो कोई है ही नहीं...हम तो अकेले हैं...तो कुछ ने कहा हमारे पास नंबर ही नहीं हैं...कुछ गुस्सा हुए और कहने लगे, जिन्होंने हमें घर से निकाल दिया, उन्हें त्योहार की बधाई क्यों दें...बात करनी ही होती, तो हमें यहां क्यों छोड़ते? एक दादाजी बोलते हैं, तुम बच्चों को देखता हूं तो नाती-पोतों की याद नहीं आती, अब तो तुम्हीं सब हमारा परिवार हो......


उस दिन कई आंखें नम हुईं, कुछ की खुशी से-जिनकी घरों में बात हुई, कुछ की दुख में-जिनको अपनों की याद तो आई, पर बात करने की हिम्मत नहीं हुई, कुछ उनकी-जिनके अपने कोई थे ही नहीं और कुछ हमारी-उनकी आपबीती सुनकर। बहुत मिला जुला सा माहौल था। आपस में भी बातें उनकी अपनों और न रहे अपनों को लेकर ही हो रही थी।

माहौल को ठीक करने की जिम्मेदारी उठाई हमारे साकेत ने....माइक उठाया और शुरू हो गया...एक से बढ़कर एक बेहतरीन नगमें गाए उसने और  माहौल को खुशनुमा कर दिया। हमारे दादा दादी जो कुछ पल पहले तक अपने आंयू छुपा रहे थे...वहीं अब खुद माइक लेकर गाने लगे थे।



सच ही कहते हैं...संगीत में जादू होता है, जो हर गम को खत्म कर देता है। इतने में एंट्री ली हमारी आभा दीदी ने....बहुत बड़े बड़े कपड़े के थैले लेकर...देख तो उसमें थे  बड़े-कचैड़ी-समोसे और मिठाई....प्रमिला दीदी की चाय भी बन गई थी....और शुरू हो गई हल्की सी बारिश ...

बस बारिश ....नग़मे....गाने...समोसे, बड़े और साथ में चाय.....और  क्या चाहिये एक शानदार शाम के लिये....गप्पें! जी वो तो करने में हम एक्सपर्ट हैं ही.....

आलेख: रचिता टंडन

Friday, October 30, 2015

संवेदना 8 - जिज्ञासा, अचम्भे और उत्साह से लबरेज़ बाबा-दादियों के साथ बीते पल

6 सिंतबर 2015
बुजुर्गों की मॉल और पीवीआर यात्रा 
सिंतबर का महीना शुरू हो चुका था....किसी को इंतजार था बारिश  का, तो किसी को गरम गरम भुट्टों का, कहीं शिक्षक दिवस और गणेशोत्सव की तैयारी चल रही थी तो कहीं आने वाली परीक्षाओं की, पर हमें तो बस इंतजार था पहले रविवार का। यूँ तो हर बार रहता है पर इस बार कुछ ज्यादा ही था क्योंकि इस बार हमारा प्रोग्राम भी तो बहुत खास था। इस बार हम सारे बाबा-दादियों को पिक्चर दिखाने जो ले जा रहे थे। शो का समय था 10 से 1 बजे का और हमारे बाबा दादी लोग इतने उत्साहित थे  की वे सुबह 7 बजे से ही नहा धो कर, नये कपड़े पहनकर हमारा इंतजार कर रहे थे। हम अपनी आदत से मजबूर फिर थोड़ी देर से पहुंचे, पर इस बार हमें डांट भी पड़ी.....लेकिन इस डांट में अपनेपन की गंध थी.....हमने उन्हें थोड़ा बहलाया, फिर फुसलाया, फिर मनाया और फिर उन्हें लेकर हमारी तकरीबन 12 गाडि़यों का काफिला निकल पड़ा मैग्नेटो माॅल की तरफ।

अविनाश और उसके दोस्तों ने समय से सबको माॅल पहुंचा दिया। वहां माॅल के कर्मचारियों के साथ हमारे ग्रुप के बहुत सारे मेम्बर्स दादा-दादियों के स्वागत के लिये पहले से पहुंचे हुए थे। सभी ने एक एक दादा-दादी का हाथ थामा और ले चले उनको पीवीआर की तरफ। माहौल कुछ ऐसा था कि दादा-दादी अचंभित इतनी बड़ी बिल्डिंग देखकर...कई सवाल उनके जेहन में....और उनके जवाब हमारी ज़बानों पर...पूरा माॅल घूमते हुए जब हम उन्हें लेकर पीवीआर  पहुंचे तो फिल्म शुरू होने में कुछ ही समय बचा था....पहुंच गये हाॅल के अंदर....सारे दादा दादी अपनी पसंद और सुविधानुसार जगह पर बैठ गये....पिक्चर थी ‘‘मांझी’’


शुरू में मेरे बगल में बैठी एक दादी बोलती हैं ‘हाय राम इतना बड़ा टीवी‘ तो दूसरी दादी बोलती हैं मुझे पूरे 35 साल हो गये हॉल में पिक्चर देखे हुए। जैसे जैसे पिक्चर बढ़ती गई, सभी के हाव-भाव बदलते रहे। कुछ हंसे, कुछ रोये, कुछ गुस्साये तो कुछ सिर्फ मुस्कुराये। इंटरवेल हुआ...तो याद आई पाॅपकाॅर्न की...हम भी गये भागते हुए उनकी इच्छा पूरी करने...‘वाह! मज़ा आ गया‘...बस यही तो सुनना था हमें...और यकीन मानिये उस दिन सभी ने यही कहा। पिक्चर फिर शुरू हुई और हमारे बाबा दादी फिर खो गए उसमें। अब आप सोच रहे होंगे पिक्चर खत्म...किस्सा खत्म....पर पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त...यकीनन पिक्चर ज़रूर खत्म हुई पर किस्सा नहीं।
 

रामा मैग्नेटो वालों ने सभी के लिये लंच का इंतजाम कर रखा था। तो जैसे  ही हम हाॅल से निकले, सीधे फूड कोर्ट पहुंचे। पूरा फूड कोर्ट महक रहा था गज़ब की सुगंध से। सामने टेबल पर गरम गरम पनीर और आलू गोभी की सब्जी, दाल, नान, तंदूरी रोटी, सलाद, चावल, रायता और ढेर सारे गुलाब जामुन रखे थे....देखते ही हमारे मुंह में भी पानी आ गया। दादा-दादियों को बिठाया और हम सब खुद लग गये उनको परोसने और खिलाने में। रामा वालों ने कम मसाले और कम मिर्च का खाना बनवाया था बाबा दादियों की सेहत का ख्याल रखकर...और सभी ने बहुत स्वाद ले लेकर भरपेट खाया और ढेर सारा आशीर्वाद भी दिया।

अब बारी थी वापस जाने की.....तो कहते हैं ना बुढ़ापे में बचपन लौट आता है...वैस ही हुआ...कुछ ने कहा हमें अभी नहीं जाना....तो कुछ ने कहा हमें अभी और घूमना है...हमारे साथियों ने फिर एक बार बागडोर संभाली और ले गये उन सबको अलग अलग ग्रुप में माॅल घुमाने...माॅल घूमते वक्त उनके जिज्ञासा भरे प्रश्न और उन सबके चेहरों के बदलते हाव भाव....उफ़़्.... हमारे लिये भी कभी न भूलने वाले पल थे.....आधे घंटे बाद सभी एक जगह इकट्ठे हुए तो देखा अविनाश और उसके दोस्त फिर तैयार थे अपनी अपनी गाडि़यां लेकर...सभी बाबा-दादियों को बिठाया और सुरक्षित उन्हें वापस वृद्धाश्रम छोड़ दिया...सभी खुश थे, सभी कह रहे थे ...‘बहुत दिनों बाद इतना आनंद आया‘ और पूछ रहे थे....‘फिर कब?' हम भी अगले महीने आने का वादा कर वहां से विदा हुए।

लेकिन अगला महीना शुरू हो उससे पहले ही आ गया गणेषोत्सव।  वृद्धाश्रम से हम सबके पास व्यक्तिगत रूप् से फोन आए उनके गणशोत्सव में एक दिन शामिल होने के लिये। उनकी दिली इच्छा का ध्याान रखते हुए उस दौरान हम सब एक बार फिर उनके आश्रम पहुंचे और एक शाम फिर उनके साथ बिताई पूजा अर्चना में शामिल होकर।     : रचिता टंडन