बोलते विचार 12
आलेख व स्वर - डॉ.आर;सी;महरोत्रा
शिष्टाचार या तहज़ीब की पहली शर्त है कि दूसरो का ध्यान रखा जाए- उनकी सुविधा और सम्मान को नज़रअंदाज़ न किया जाए।
एक साहब अपने घर पर जब किसी आगंतुक के साथ चाय पीते हैं, तो उस के साथ रखे गए कुल छह बिस्कुटों में से पाँच जल्दी-जल्दी स्वयं खा जाते हैं। एक अन्य साहब की पत्नी जब अपने ड्राइंग रुम में मेहमानों के लिए चाय लाती है, प्याला सबसे पहले अपने पति को देती है, मेहमानों को बाद में। ऐसी बातों का सही और ग़लत होना जानने के लिए भारी शिक्षा या बुद्धिमानी की नहीं, सिर्फ सामान्य समझ की ज़रुरत है। यदि कोई व्यक्ति कुछ पढ़-लिख रहा हो, तो उसके सामने इस प्रकार खड़े होना कि उसकी ओर जाने वाला प्रकाश रुक जाए। इसी प्रकार, यदि कोई व्यक्ति हमारे पास कहीं से किसी काम के लिए बिना पूर्व सूचना के आ जाए, तो उससे सीधे मुंहफट बन कर यह कह देना कि फिर कभी आ जाना प्रशंसनीय आचार नहीं है। यद्यपि यह सही है कि उसे भी सिर्फ ‘अपनी’ फु़रसत से और आपकी व्यस्तता-अव्यस्तता समझे बिना, अचानक नहीं आ धमकना चाहिए, पर हम यह तो सोच ही सकते हैं कि यदि उसने तहज़ीब नहीं दिखाई है, तो हम भी उसी की तरह न बन जाएँ। हमें उस से अच्छी तरह पेश इसलिए आना चाहिए कि हम ‘अपने घर पर ही’ मौजूद हैं, जबकि वह कहीं और से रास्ता नाप कर हमारे घर तक आया है। यदि हम उसे समय देने में उस समय बिल्कुल असमर्थ हों, तब भी हम उसे इतना शिष्टाचार तो दिखा ही सकते हैं कि दो मीठे बोल बोल कर उससे माफ़ी माँग लें।
किसी टिकिटघर की खिड़की पर आप खड़े हुए हों और बुकिंग क्लर्क अपने किसी निजी काम में या अपने साथियों के साथ गप्पों में मशगूल हो, तो आप ग़लत नहीं कहा करते हैं कि चँूकि वह आप की तरफ ध्यान नहीं दे रहा है, इसलिए उस का व्यवहार ठीक नहीं है।
आप ने किसी दुकानदार से साढ़े सात रु. का सामन लिया और उसे दस रु. का नोट दिया। अब पूरी संभावना है कि आपको पचास पैसे नहीं मिलेंगे। दुकानदार चेंज का सच्चा-झूठा बहाना बना कर आप से आठ रु. ही लेगा, सात नहीं। वह इस बात पर ध्यान देना ज़रुरी नहीं समझता कि जितना नुकसान पचास पैसे कम लेने में उसका होता, ठीक उतना ही नुक़सान पचास पैसे ज़्यादा लेकर आपका कर रहा है।
दो निरीक्षक बिल्कुल एक ही ड्यूटी पा एक संस्था में दो अलग-अलग शहरों में भेजे गए। ड्यूटी शाम को पांच बजे तक थी। उनमें से एक निरीक्षक महोदय अपना टी.ए.- डी.ए. ले कर दो बजे की बस से ही वापस निकल भागने के लिए दूसरे से कहते हैं कि आप तो यहाँ हैं ही, मैं अगर जल्दी निकल जाऊँ तो मुझे सुविधा हो जाएगी। अब तहज़ीब चाहे कुछ भी कहे, उन्हें ड्यूटी चोर बनकर सिर्फ़ ‘अपनी’ सुविधा की पड़ी थी।
यह एक आम बात है कि जब तक रेल के डिब्बें में मुसाफिर खुद नहीं घुस पाता है, तब तक वह कोई और होता है, लेकिन जब वह भीतर घुस चुकता है, तब कोई और हो जाता है। आप शयनयान में अपनी आरक्षित शयिका पर सफ़र कर रहे हैं। कोई अनाधिकृत सज्जन घुस कर आऐंगे और आप से कहेंगे-’ज़रा सी जगह दे दीजिए, मैं आधे घंटे में उतर जाऊँगा।’ इसी प्रकार दूसरे आऐंगे और कहेंगे, ’मैं बस दो स्टापों के बाद उतर जाऊँगा।’ आप को पूरी सुविधा भोगने का अधिकार है और आप को लंबी यात्रा करनी है, लेकिन सिर्फ़ अपनी सुविधा- और वह भी ग़लत अधिकार से - देखने वाले सज्जन आप को कष्ट दिए जा रहे हैं, जबकि उन्हें खड़े-खड़े ही जाना चाहिए, क्योकि वे ग़लत बोगी में चढ़े हैं, बिना आरक्षण के, और उन्हें आप की तुलना में थोड़ी-थोड़ी ही दूर जाना है। तहज़ीब के नाम पर टी.टी. भी आप का ध्यान नहीं रखेगा, क्योकि वह ‘अपना’ ध्यान रखने के लिए ‘किन्हीं और’ बातों का ध्यान रखता है। मान लिया कि आपको सफ़र करते-करते किसी आगामी स्टेशन के लिए टिकट बढ़वाना है, तो टी.टी. का सामान्य जवाब होगा- ‘स्टेशन पर पहुँच कर खिड़की से खरीद लीजिए न।’ यद्यपि उसकी ड्यूटी है और आपका अधिकार है, लेकिन उसे आप की भारी असुविधा दिखई नहीं देती, सिर्फ़ अपनी यह असुविधा दिखाई पड़ती है कि उसे क़लम चलानी पड़ेगी।
निष्कर्ष रुप मे कहा जा सकता है कि जिंदगी तो हम सभी लोग काट रहे हैं, लेकिन यदि तहज़ीब के साथ काटें, अर्थात दूसरों की सुविधा और सम्मान का ध्यान रखते हुए काटें तभी हम सभ्य होने का दावा कर सकते हैं।
अच्छी सीख देती बातें।
ReplyDeleteआभार............
आडियो में कुछ दिक्कत पेश आई... कृपया इसे जांच लें....