Bolte Vichar 6
आलेख व स्वर - डॉ.रमेश चन्द्र महरोत्रा
कुछ लोगों की दुनिया बहुत छोटी होती है। वे ‘मैं’के बाहर नहीं निकल पाते। आप उन से किसी भी विषय पर बात शुरू कीजिए, वे उसे घसीट कर स्वयं ‘अपने’ या ‘अपने बच्चों’ तक ले जाते हैं। वे किसी की ‘सुनते’ बहुत कम हैं, अपनी ‘सुनाते’ बहुत ज़्यादा हैं। दूसरे के द्वारा की जा रही चलती हुई बात को भी वे अशिष्टता से काट कर सिर्फ अपना राग अलापना आरंभ कर देते हैं। वे किसी बात को पुष्ट करने या दूसरों की बात काटने के लिए केवल अपने से संबंधित उदाहरण दिया करते हैं। मानो वे ‘महान आदर्श’हैं। आप उनके मुँह से अधिकतर वाक्य इस प्रकार के सुनेंगे-‘मैं’ कभी गलत बात नहीं बोलता। ‘मेरा’ तो स्वभाव ही है यह । ‘मैंने’ उसे समझा दिया। ‘मैं’ उस बात को सही नहीं मानता। ‘मुझसे’सलाह लेने आए थे वे, आदि। उनकी बातों से लगता है कि सारा संसार सिर्फ उनके चारों ओर घूम रहा है, और वे संसार को नहीं, ‘संसार’ उनको देखता है। और स्वयं तो वे चैबीसों घंटे अपने को देखते ही रहते हैं। इस बीमारी के शिकार साधारण आदमी ही नहीं,ऊँचे-ऊँचे पदाधिकारी और मठाधीश भी होते हैं। ऐसे आदमी अपनी प्रशंसा के बहुत अधिक भूखे रहते हैं।
वैसे सामान्यतः हर आदमी उस चीज़ के पीछे दौड़ता है,जिसकी उसके पास कमी होती है। यह बहुत हद तक स्वाभाविक भी है; क्योंकि, उदाहरणार्थ जिसके पास खाने को नहीं है, वह रोटी ज़रूर चाहेगा; और जिसके पास इज़्ज़त नहीं है, वह इज़्ज़त ज़रुर चाहेगा। बड़े-बड़े स्वामी जी और महात्मा लोग भी ‘मैं-मैं’इसलिए करते रहते हैं कि उनकी आत्म-प्रशंसा की सीमातीत पिपासा उन के मस्तिष्क को निरंतर आक्रांत किए रहती है। वे सचमुच जितने बड़े होते हैं,उसकी अपेक्षा कई गुना और बड़ा कहलाने की आकांक्षा उन पर हावी रहती है। ऐसे लोगों का अहं इतना प्रखर रहता है कि वे परमार्थ की बातें करते हुए भी स्वार्थ की ही अधिक सोचते हैं।
अब स्वार्थ का एक अन्य रूप देखिए। मान लिया कि कोई दुकानदार आपको ज़बान देता है कि वह आपका अमुक काम अमुक दिन अमुक समय पर करके देगा; लेकिन आपके दो, तीन, चार चक्करों के बाद भी वह उसे पूरा कर के नहीं देता है बात छोटी सी लगेगी,पर उसके इस कृत्य से विश्वासघात, लापरवाही और स्वार्थ आदि बहुत से अवगुणों का संबंध है। ज़बान दे कर किसी को प्रतीक्षा में सुखाना, दूसरे के समय और श्रम की कोई परवाह न करना,अन्य का काम पूरा न कर सकने के भिन्न-भिन्न बनावटी और झूठे कारण देना, तथा परिणामस्वरूप दूसरों की नज़रों मे अपनी ज़बान की कीमत दो कौड़ी की कर डालना आखि़र क्यों होता है? इसलिए होता है कि ऐसा व्यक्ति सौ प्रतिशत अपनी ही सुविधाओं में लिप्त रहता है और आदमी और ज़बान के संबंध का मूल्य नहीं जानता। कहा जाता है कि यदि आदमी के पास ज़बान नहीं होती अर्थात् यदि वह भाषा के वरदान से वंचित होता तो पशु-पक्षियों से बहुत भिन्न नहीं होता। इसलिए ‘इन्सानियत से बात करने’का मतलब ‘ज़बान संभाल कर बात करने’ से लिया जाता है। शरीफ आदमी दूसरों की कद्र ज़बान के अच्छे प्रयोग के कारण ही किया करते हैं। न जाने कितने लेन-देन, शादी-ब्याह की बातें, सुलह-समझौते और अटूट मित्रताऐं ज़बान पर ही टिकी रहती हैं। हम सोचते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रघुकुल रीति’में दी हुई ज़बान को निभाने को प्राणों से भी अधिक मूल्यवान लिखा है- प्राण जाई, पर वचन न जाई।’ ज़बान की कीमत और ताकत तब पता चलती है, जब, उदाहरण के लिए, किसी कमांडर द्वारा सिर्फ एक शब्द ‘हमला’ बोल देने पर सैकड़ों-हज़ारों जानें चली जाती हैं। स्वार्थपूर्ण ज़बान देकर दूसरे का विश्वास तोड़ने वाला दुकानदार या अन्य कोई भी व्यक्ति, सामयिक तौर पर भले ही अपना स्वार्थ पूरा कर ले,पर आगे चलकर वह सामाजिकों द्वारा प्रताडि़त और बहिष्कृत होने लगता है।
स्वार्थी होना कोई अपराध नहीं है- कम ज़्यादा सभी होते हैं, लेकिन ‘स्वार्थ की ज़बान’ को खुले साँड़ की तरह की छूट नहीं दी जानी चाहिए।
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