Bolte Vichar 9
आलेख व स्वर - डॉ.रमेश चन्द्र महरोत्रा
‘न्याय’ का अर्थ ‘दोस्ती या रिश्तेदारी निभाना’ नहीं हुआ करता। न्यायालय का स्थान शासक से भी उपर उठा हुआ माना जाता है। उसे पूर्वाग्रहों से मुक्त कहा जाता है। उसका हृदय ‘निरपराध’ के लिए फूल के समान कोमल होता है इसलिए अपराध मुक्त साबित होने पर अभियुक्त को ‘बाइज़्जत’बरी किया जाता है। इसके विपरीत,न्यायाधीश का हृदय ‘अपराधी’ व्यक्ति के लिए वज्र के समान कठोर होता है, इसलिए अपराध सिद्ध होने पर वह आवश्यकतानुसार अभियुक्त को फांसी की सज़ा देने में नहीं हिचकता। तब वह यह नहीं सोचता कि अपराधी के बीवी-बच्चे कहां जाएंगे। सच्चे न्यायाधीश का चरित्र इतना अधिक सबल होता है कि उसके नैतिक साहस को न तो असामाजिक तत्व डिगा पाते हैं और न किसी की पहुंच और प्रभावों का उस पर असर पड़ पाता है। उसे ख़रीदा नहीं जा सकता।
न्यायाधीश के बारे में बात चलते समय कड़ी सज़ाओं की भी बात निश्चित रुप से उठा करती है। कुछ लोग कहते हैं कि कड़ी सज़ा अमानवीय होती है,पर वे यह विचार नहीं करते कि जिसे कड़ी सज़ा दी जानी पड़ती है, वह स्वयं किसी न किसी रुप में औरों के लिए कितना अमानवीय रहा होता है। साथ ही उस को दी जाने वाली सज़ा के उदाहरण वस्तुतः सैंकड़ों अन्य लागों को अमानवीय बनने से रोका जा सकता है। जीभ काट डालने की अमानवीय सज़ा सुन कर ही लाखों लोग ऐसा काम नहीं करेंगे कि उन की जीभ काटने की नौबत आए। यह बात अमानवीय कहां हुई? समूचे शरीर के हित के लिए किसी सड़ते हुए अंग को काट डालना शायद ही किसी के द्वारा अमानवीय कहा जाएगा। बिच्छू को तो उसके दिखते ही अधिकतर लोग भावी आशंका से उसे ज़िंदा नहीं छोड़ते।
न्याय के साथ ‘माफ़ी’ का घनिष्ठ संबंध है। यदि कोई व्यक्ति माफ़ी मांगता है, तो इसका अर्थ यह है कि वह भूतकाल के लिए पश्चाताप भी करता है और भविष्य के लिए अपने में सुधार हेतु सन्नद्ध भी होता है। माफ़ी स्वयं में दंड है, इसलिए न्याय करने वाला व्यक्ति सच्ची माफ़ी मांगने वाले को उसके अपराध की मात्रा और सीमा पर विचार करते हुए एक अवसर देता है,तो उसके न्याय का पलड़ा डगमगाता हुआ नहीं कहा जाना चाहिए।
जीवन में हर व्यक्ति के सामने कभी न्याय ‘पाने’ के और इसी न्याय ‘करने’ के अवसर आते हैं। उन अवसरों पर न्याय करने वाले की बुद्धि के स्तर की,और उसके चरित्र की पहचान हो जाती है। न्याय करते समय जो व्यक्ति ‘पंच परमेश्वर’वाली स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाता है,वह स्वार्थ और क्षुद्रता की सीमाओं में रह जाता है, ऐसे समय में ‘अपने-पराये’ को भूल कर निष्पक्ष फैसला देने वाला व्यक्ति ‘सामन्य’ से उठकर ‘महान’की श्रेणी में पहुंच जाता है।ऐसा व्यक्ति अपनी चमड़ी की नहीं, अपनी आत्मा की आवाज़ सुनता है, जो परमात्मा का अंश कही जाती है। यद्यपि ऐसे आदमी गिनती में बहुत कम हुआ करते हैं पर यदि वे भी न हों तो ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ही हो कर रह जाए। अधिकतर मामलों में व्यक्ति विशेष का केवल गिने चुने लोगों के वर्ग में होना कोई ग़लत या आश्चर्य की बात नहीं है। डॉक्टर कम होते हैं, मरीज़ ज़्यादा। इंजीनियर कम होते हैं, मज़दूर ज़्यादा। समाज सुधारक और संत महात्मा भी गिने-चुने होते हैं,साधारण नागरिक और अनीति करने वाले प्राणी अनगिनत होते हैं। कभी-कभी रविन्द्रनाथ ठाकुर के ‘एकला चल’ के समान आप को बिल्कुल अकेला भी चलना पड़ सकता है। गरुड़ भेड़ों के समान नहीं,अकेले ही चलता है। आप यदि न्याय के नाम पर, आदर्श के नाम पर, नैतिकता के ताम पर, चरित्र के नाम पर बिल्कुल अकेले पड़ गए हों, तो भी अपने को अकेला मत समझिए, क्योंकि ‘इंसानियत’ आपके साथ है और ‘धर्म’ आप के साथ है। यों भी,अंधकार दूर करने के लिए आरंभ में केवल एक दीपक की आवश्यकता होती है,जो असंख्य दीपक जला सकता है। यदि आप में नैतिक साहस होगा,तो बिल्कुल अकेले रह जाने पर भी आप में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता होगी,तथा आइज़नहॉवर के अनुसार आप में ‘अड़ने और लड़ने की तत्परता’ होगी।
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Aapka lekh vartmaan paridrishya se kaafi sambadhha hai.Aaj subeh hee se saara desh ek aadmi ki 'Adne aur Ladne ki Tatparta' dekh raha hai!!!
ReplyDeleteप्रेरक लेख।
ReplyDeleteन्याय व्यवस्था से शुरू होकर इंसान को सद्कर्मों के प्रति अडिग रहने की सीख देता यह आलेख सच में काफी कुछ सिखा गया।
बस एक बात कहना चाहूंगा, जहां तक मेरी जानकारी है न्यायालय किसी को बाईज्जत बरी करने का आदेश पारित नहीं करती, जहां तक मेरी जानकारी है न्यायालय के फैसले में लिखा होता है, आरोप सिध्द नहीं होने के कारण संदेह का लाभ देते हुए बरी किया जाता है.... बाईज्जत बरी वाला शब्द फिल्मों में ही सुनायी देता है.....
बाकी आलेख बेहतरीन है।
आभार.................