Wednesday, December 28, 2011

बोलते वि‍चार 45- ...से बचना सीखिए

.बोलते वि‍चार 45
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
    
नियम तोड़ने वाले कुछ लोग अज्ञानी और अयोग्य होते हैं तथा कुछ लोग राक्षसी प्रवृति के होते हैं। ऐसे लोगों को सुधारने की कोशिश करने का मतलब या तो ‘भैंस के आगे बीन बजाना’ है या ‘आ बैल मुझे मार’ है। उन्हें जब बड़े-बड़े संत और सर्वोच्च न्यायालय भी नहीं सुधार पाए तो आप क्या सुधार पाएँगे।
    
आप अपने वाहन से कहीं जा रहे हैं। सड़क पर कूड़े-कचरे का ढेर सामने आता है। आप उससे वाहन को बचाते हुए आगे बढ़ जाते हैं। इसी प्रकार सड़क पर बहुत बेहूदे ढंग से दौड़ता हुआ कोई वाहन आ रहा है। आप अपने वाहन को धीमा करके काफी किनारे हो जाते हैं। यही तरीके श्रेयस्कर हैं। न तो आप अपने वाहन को कूड़े पर चढ़ाते हैं और न उसे दूसरे वाहन से भिड़ाते हैं।


    
आपके मन को शांति तभी मिल सकेगी जब आप यह मानकर चलें कि मानव और उसका यह संसार बेहद अपूर्ण है। आप दूसरों की अपूर्णताओं पर चिंतित और परेशान होकर अपना संतुलन न खोइए और अपनी ऊर्जा एवं समय को बरबाद न कीजिए। उतनी बचत से आप अपने लिए बहुत कुछ कर सकते हैं।
    
जीवन का लक्ष्य आत्मोन्नति है, भैंसों और राक्षसों को इनसान बनाने में अपना समय और मूड खपाना नहीं, आपके सम्मार्ग का रोड़ा बनने के लिए इन्सानियत की परीक्षा में सदा फेल होनेवाले कुछ प्राणी हर युग में रहे हैं और हर युग में रहेंगे। इन्हें अपने लिए महत्‍वहीन मानते हुए इनसे दूर रहिए। जीवन के हर क्षेत्र में आप कुछ चीजों का वरण करते हैं और कुछ का त्याग करते हैं। इनका त्याग कीजिए। वरण किए जाने के लिए सैकड़ों अन्य लोग और उनकी अच्छाइयाँ हैं। यदि नियमों को तोड़कर संसार को जंगल बनाने की चेष्टा करने वाले लोग दुनिया में हैं तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं हैं, जो नियमों का पालन करके संसार को जीने लायक बनाने के लिए प्रयास करते रहते हैं। विश्वास कीजिए कि आप इन्हीं में से एक हैं, अन्यथा आप इस लेख को पूरा न पढ़ते।

Tuesday, December 27, 2011

बोलते शब्‍द 77



बोलते शब्‍द 77
आज के शब्‍द जोड़े हैं 
'लड़कि‍यां देखीं'  व 'लड़कि‍यों को देखा'
और  'लड़ाई‍' व 'झगड़ा‍' 
                         आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          
स्‍वर      - संज्ञा टंडन


153. 'लड़कि‍यां देखीं'  व 'लड़कि‍यों को देखा' 


154. 'लड़ाई‍' व 'झगड़ा‍' 
 





Production - Libra Media Group, Bilaspur (C.G.) India

Sunday, December 25, 2011

बोलते वि‍चार 44 - श्रद्धा के लाभ


    बोलते वि‍चार 44
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

‘श्रद्धावान लभते’। यदि आप किसी के प्रति श्रद्धालु नहीं हैं तो आपके अपेक्षित लाभ नहीं मिल सकेगा। मंदिर तक पहुँचने वाले को ही देव दर्शन-लाभ मिलता है।
    
किसी से कुछ सीखने के लिए आदमी का छोटा बनना जरूरी है। उसे नीचे बैठना पड़ता है। कोई दी जानेवाली चीज ऊपर के हाथ से नीचे के ही हाथ को मिलती है। नदियाँ पहाड़ों से नीचे होने के कारण ही उनसे विपुल जलराशि ग्रहण करती रहती है।


यदि हम देने वाले को अक्षम मानकर, उसकी हँसी उड़ाकर उससे कुछ चाहते हैं, तब हम उससे सही लाभ नहीं ले सकते। दूसरे शब्दों में, हमें जिससे कुछ ग्रहण करना होता है, उसे उस क्षेत्र में अपने से बड़ा मानना होता है।
    
ईश्वर, माता-पिता, गुरू आदि से हमें इसीलिए हमारा प्राप्य मिलता है कि हम अपने को उनसे छोटा मानते हैं। स्वयं को छोटा मानने का मतलब है ‘हममें नम्रता का गुण होना’। देने वालों के उपकार का स्रोत भी तभी तक खुला रह सकता है जब तक उन्हें ‘देने वाला’ माना जाए। उनका बुरा सोचकर हम उनसे अच्छा पाने की आशा नहीं कर सकते। वे मशीन नहीं, प्राणी होते हैं (जबकि मशीन तक को अच्छा उत्पादन देने के लिए अच्छी तेल-सफाई और उचित हस्तन-संचालन चाहिए)।
    
‘श्रद्धा’ के अर्थ का विस्तार करके हम उपर्युक्त तथ्य को निर्जीव वस्तुओं पर भी लाग कर सकते हैं। पढ़ाई हो या नौकारी, गृहकार्य हो या व्यापार, जब तक हम अपने काम को श्रद्धापूर्वक (निष्ठापूर्वाक, मनोयोगपूर्वाक) नहीं करते हैं तब तक हमें उससे स्थायी लाभ मिलने की संभावना नहीं रहती।
    
कहते है कि श्रद्धा यदि पत्थर में हो, तब भी लाभ मिलता है; क्योंकि श्रद्धा करने के फलस्वरूप हमारा अहंकार दबा रहता है और गुणों के विकास का रास्ता खुला रहता है, जिससे सफलता सुगम हो जाती हैं।
    
इस अच्छाई में जितनी अधिक श्रद्धा रखते हैं, हमारे अंदर अच्छाई उतनी ही अधिक जड़ें जमाती हैं।

Saturday, December 24, 2011

बोलते वि‍चार 43 - अच्छा आदमी ही अच्छाई बाँट सकता है


बोलते वि‍चार 43
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
जो चीज हमारे पास नहीं है, उसे हम दूसरों को कैसे दे सकते हैं। धनी आदमी ही दूसरों को धन दे सकता है। आप जिस विषय के ज्ञाता हैं उसी विषय पर दूसरों को ज्ञान दे सकते हैं। किसी बेवकूफ आदमी से समझदारी की बातों की आशा नहीं की जा सकती।


 यदि आप खूब सम्मानित व्यक्ति हैं, तब भी समाज के सब लोगों से सम्मान पाने की अपेक्षा मत कीजिए; क्योंकि काफी लोग ऐसे होते हैं, जो स्वयं सम्माननीय न होने के कारण ‘सम्मान’ का अर्थ नहीं जानते। चूंकि उनके पास सच्चे सम्मान का अभाव होता है, इसलिए वे दूसरों को सम्मान नहीं दे पाते। उन पर क्रोध मत कीजिए, उन पर तरस खाइए। धनिया बेचनेवाले से आप स्वर्णाभूषण पाने की उम्मीद नहीं लगा सकते।

जिसके दिल में प्रेम रहता है, वही प्रेम बाँट सकता है। जिसके दिल में घृणा और ईर्ष्‍या रहती है, उसके भीतर से वही बाहर निकलती है। यदि आप अपने प्रति बुरे भाव रखनेवाले व्यक्ति से बचते हुए बिलकुल शांत रहें तो आप बहुत सुखी रहेंगे। उसकी घृणा और ईर्ष्‍या को बिलकुल मत स्वीकार कीजिए। अपने मन को थोड़ा भी विचलित मत होने दीजिए। यदि आप निरंतर शांत रहें तो वह आपसे शांति के अलावा कुछ नहीं पाएगा। इसके विपरीत, यदि आप अंदर से साफ-सुथरे नहीं हैं, आपमें सहनशीलता और क्षमाशीलता की कमी है तो आप उसे गालियाँ देना शुरू कर देंगे। फिर उसमें और आप में फर्क ही क्या रहा।
    
कहते हैं कि लेने वाले से देने वाला बड़ा होता है। आप समाज-हित के नाम पर बहुत अच्छे देने वाले साबित हो सकते हैं। बस सबको इज्ज़त दीजिए। खूब इज्ज़त बाँटिए, जी बात का सबूत होगा कि आपके अंदर इज्जत विपुल भंडार है।
    
विश्व का अनुभूत सत्य है कि देनेवाला हमेशा सुखी रहता है, जबकि याचक कभी सुखी नहीं रह पाता। न माँगते वक्त, न माँगे हुए का उपभोग करते समय। प्रकृति का नियम है कि जो व्यक्ति जो कुछ देता है, वही बहुगुणित होकर विभिन्न दिशाओं से उसके पास लौटकर आता है।

Friday, December 23, 2011

बोलते शब्‍द 76



बोलते शब्‍द 76
आज के शब्‍द जोड़े हैं 'राक्षस'  व 'दैत्‍य'
और  'रेलपेल‍‍' व 'मारधाड़' 
                         आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          
स्‍वर      - संज्ञा टंडन

151. 'राक्षस'  व 'दैत्‍य'




152.  'रेलपेल‍‍' व 'मारधाड़' 

 





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Thursday, December 22, 2011

बोलते शब्‍द 75



बोलते शब्‍द 75
आज के शब्‍द जोड़े हैं 'मौर'  व 'मौलि‍'
और  'यहां पर' व 'अंदर में' 
                         आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          
स्‍वर      - संज्ञा टंडन
149. 'मौर'  व 'मौलि‍'



150.  'यहां पर' व 'अंदर में' 









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Wednesday, December 21, 2011

बोलते वि‍चार 42- व्यर्थ की झेंप



बोलते वि‍चार 42
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा









एक साहब अपने स्कूटर पर पीछे गैस सिलिंडर रखकर ले जा रहे थे, जिसे उन्होंने एक चादर से ढक दिया था। ढकने का कारण सिर्फ यह थी कि लोग बाग यह न देख लें कि वे सिलिंडर ढोने का ‘छोटा काम’ खुद कर रहे थे। ज़ाहिर है कि उनकी मान्यता थी कि सिलिंडर ढोने से आदमी छोटा हो जाता है, भले ही वह उसे अपने महँगे और शानदार स्कूटर पर ढो रहा हो।





 सच्चाई यह है कि आदमी जब मन से छोटा होता है तब वह बाजार से खुली झाडू खरीदकर लाने में भी अपने को छोटा समझता है, और घर का कूड़ा बाहर यथा स्थान फेंकने में भी अपने को छोटा समझता है कि कहीं कोई उस देखकर ‘नरक का प्राणी’ न समझ ले। ऐसे लोग घर का और अपने दिमाग का कूड़ा भी यथा समय बाहर फेंक पाने में विफल रहते हैं?   
    
इसके विपरीत, आदमी जब मन से बड़ा होता है तब उसे से छोटी-छोटी बातें बिलकुल नगण्य लगती हैं। उसकी इज्जत इतनी ढुलमुल नहीं होती कि वह सिलिंडर ढोने या झाडू हाथ में लेकर चलने या कूड़ा बाहर फेंकने से डाँवाँडोल हो जाए।
    
कुछ लोगों को भ्रम होता है कि कुछ काम सिर्फ नौकरों के करने के होते हैं। ऐसे लोग वस्तुतः नौकरों के मोहताज होते हैं। ये नौकर क्या हैं? ये ऐसे लोगों के हाथ-पैर है। यदि नौकर मिलकर इन लोगों को सबक सिखाना शुरू कर दें तो इनका दो कदम चलना दुश्वार हो जाए। गनीमत है कि ऐसे लोगों को अपने बदन पर अपने हाथों से साबुन लगाने में और शौचोपरांत प्रक्षालन क्रिया करने में अपनी शान घटती हुई नहीं लगती।

हमें शुक्रगुजार होना चाहिए उन व्यक्तियों के प्रति, जो हमारे बहुत से रोजमर्रा के कामों में हमारी मदद करते है; लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम उनके काम को छोटा समझें। यदि हमारे अंदर गलत भाव-ग्रंथियाँ नहीं हैं तो हम उनके द्वारा हमारे लिए किए जानेवाले हर ‘छोटे कहे जाने वाले’ काम को जरूरत पड़ने पर बिना किसी झेंप के और बिना किसी की परवाह किए कर सकते हैं। ऐसे में यदि कोई हम पर हँसता है तो हम भी उसपर हँस दें -  उसे ‘बेचारा’ मानकर।

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Monday, December 19, 2011

बोलते वि‍चार 41 - कर्म से फल का नाता


इस बात को बच्चे भी सिद्ध कर देंगे कि आदमी का जैसा कर्म होता है वैसा ही उसको फल मिलता हैं, यहीं। आप खुशबूदार फूल सूँघने का ‘कर्म’ कीजिए, आपको अपनी तबीयत खुश होने का अच्छा ‘फल’ मिलेगा। आप बदबू सूँघने का कर्म कीजिए, आपको मन खराब होने का फल मिलेगा।

    
आप संतुलित भोजन कीजिए, आपको अच्छे स्वास्थ्य का फल मिलेगा। आप नाम तक ठूंस-ठूंसकर ऊल जलूल खाइए, आपको सड़े हुए स्वास्थ्य का फल मिलेगा। आप अपने बच्चों को सही मार्ग पर चलाने का कर्म कीजिए, आपको जीवन भी सूखी रहने का फल मिलेगा। आप उन्हे कुमार्ग पर जाने दीजिए, आपका खुद का जीवन भी परेशानियों और निराशाओं से भी जाएगा।

कई बार हम गलत काम से मिली तात्कालिक सफलता से इस भ्रम में रहते हैं कि हमने बाची मार ली-जुए की जीत शुरू मे बहुत अच्छी लगती हैं-लेकिन वस्तुतः किसी बरतन में गंदगी एक सीमा तक ही छिपाई जा सकती है, बरतन भरने के बाद वह चारों ओर गिरकर सड़ाँध फैलाने लगीत है, जिसके फलस्वरूप पूरा समाज उसपर थू-भू करने लगता है।

कई बार हमें लगता है कि हमें अपने अच्छे  कर्मों का सुफल नहीं मिल रहा है। यह भी भ्रम है; क्योंकि यदि हम अच्छे कर्म कर रहे हैं तो हमें सुख का सबसे बड़ा आधार ‘संतोष’ अवश्य मिलना चाहिए। दूसरे, हम अपने कर्मों का मूल्यांकनकर्ता और बदले में मिलनेवाले इनाम का निर्णायक सवयं का समझ बैठते हैं, जबकि निर्णायक होते हैं समाज के सब लोग। धैर्य रखिए, यदि अन्य बातें समान हो तो भोजन को पचकर खून आदि बनने में एक निश्चित समय लगता ही है।
    
‘सुफल’ की परिभाषा भी सरल नहीं हैं। अपने विवेक से हम इस बात को परखें कि अच्छा फल पाने के लिए हम अधिक स्वार्थी तो नहीं हो रहे है। परीक्षा में अच्छे उत्तर लिखनेवाले विद्यार्थी अनेक होते हैं, पर वे सब एक समान बहुत अच्छे अंक पानेवाले नहीं हुआ करते। तुलनात्मकता और आपेक्षिकता अनिवार्य है। कर्मों के मामले में हमें यह तथ्य स्वीकार करना हो पड़ेगा कि कुछ लोगों से यदि हमारे कर्म अच्छे रहते हैं तो हमार कर्मों से भी कुछ लोगों के कर्म अच्छे रहते हैं। इसीलिए यह कहना गलत नहीं है कि ‘फल की चिंता छोड़ दो ‘और’ जो होता है, अच्छा ही होता है’।

Friday, December 16, 2011

बोलते शब्‍द 74



बोलते शब्‍द 74
आज के शब्‍द जोड़े हैं 'मेरा फोटो'  व 'मेरी फोटो'
और  'मैल‍‍' व 'मल' 
                         आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          
स्‍वर      - संज्ञा टंडन
147. 'मेरा फोटो'  व 'मेरी फोटो'



148. 'मैल‍‍' व 'मल' 


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Wednesday, December 14, 2011

बोलते वि‍चार 40 - योग्यता से सदाचार पहले


बोलते वि‍चार 40
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
एक विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष किसी बैठक में शामिल होने के लिए एक अन्य विश्वविद्यालय गए थे, जहाँ उन्होंने वहाँ के अपने विषय के विभागाध्यक्ष से किसी ऐसे व्यक्ति का नाम सुझाने को कहा, जिसे वे अपने विश्वविद्यालय में नियुक्त करा सकें। दूसरे विभागाध्यक्ष ने अपने जाने-पहचाने एक व्यक्ति की शैक्षणिक योग्यताओं का धुआँधार गुणगान कर डाला। पहले विभागाध्यक्ष पर्याप्त संतुष्ट होते हुए बोले कियह सब बिलकुल ठीक हैं, पर अब यह बताइए कि वह ‘आदमी’ कैसा है? उनका मतलब यह था कि वह व्यक्ति शैक्षणिक दृष्टि से चाहे कितना भी अच्छा हो, पर यदि आदमी के रूप में अच्छा नहीं है तो बिलकुल बेकार है। सिद्ध है कि सदाचार का नंबर पहले आता है, विद्वत्‍ता का बाद में।

    
आप किसी अविद्वान, लेकिन शरीफ आदमी को भले ही बरदाश्त कर लें, पर ऐसे विद्वान् को बददाश्त नहीं करना चाहेंगे, जो दुष्ट प्रकृति का हो। रावण बहुत विद्वान था, पर आप उसे पसंद नहीं करते। क्यों?

एक हलका-फुलका उदाहरण लें। यदि किसी बड़े ओहदे पर बैठा हुआ अधिकारी संभ्रांत महिलाओं के भी सामने माँ-बहन की गालियाँ बक देता हो तो उसे आप जरूर निम्न स्तर का कह देंगे।
    
औलाद वही अच्छी कही जाती जाती है, जो बहुत योग्य और बड़े पद पर आसीन होने के बाद भी अपने अनपढ़ माता-पिता तक के प्रति सदाचारी रहती है (बशर्ते वे भी दुराचारी न हों)।
    
किसी की विद्वत्‍ता दूसरों के दिमाग से आगे नहीं बढ़ती, जबकि किसी का सदाचार दूसरों के लि तक पहुँच जाता है। यदि आप दूसरों के दिल को छूना जानते हैं तो आप सदाचार के गुण से युक्त हैं।

दूसरी ओर, यदि कोई परम योग्य वैज्ञानिक अपनी सारी योग्यता केवल विध्वंसकारी वस्तुओं के आविष्कार और निर्माण में लगाता है तो उसे शायद ही कोई व्यक्ति अच्छा आदमी कहना चाहेगा।

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Monday, December 12, 2011

बोलते शब्‍द 73



बोलते शब्‍द 73
आज के शब्‍द जोड़े हैं 'मुख्‍य'  व 'प्रधान'
और  'मूर्धन्‍य‍‍' व 'जघन्‍य‍' 
                         आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          
स्‍वर      - संज्ञा टंडन
145. मुख्‍य'  व 'प्रधान'




146. 'मूर्धन्‍य‍‍' व 'जघन्‍य‍' 

 



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Sunday, December 11, 2011

बोलते वि‍चार 39 - मार्ग की बाधाएँ

   
बोलते वि‍चार 39
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

एक साइकिल सवार की साइकिल का पहिया सड़क के बीच में पड़े एक पत्थर से टकरा गया। साइकिल सवार ने झुँझलाकर वहाँ पत्थर डालनेवाले के नाम पर गंदी-गंदी गालियाँ दे डालीं। उसके ऐसा करने से न तो पत्थर डालने वाले का कुछ बिगड़ा  और न उसकी गालियाँ सुननेवाले राहगीरों ने उसके बारे में अच्छी धारणा बनाई। जो कुछ बिगड़ा, सिर्फ उसका बिगड़ा....मूड बिगड़ा, जबान बिगड़ी।


एक भोला सा राहगीर उससे बोला, ‘सड़क के बीच में पत्थर डाल देनेवाले ने तो जरूर गलती की है, भैया, मानते हैं; पर ‘तुलने’ पत्थर को सड़क पर पड़े हुए क्यों नहीं देखा?’ सुनकर साइकिल सवार उस पर भी यह कहकर बिगड़ उठा कि मुझे अंधा कहता है। लोग हँसने लगे।
    
इस घटना में हार साइकिल सवार की ‘दृष्टि’ की ही नहीं, ‘बुद्धि’ की भी हुई। यानी जिस व्यक्ति ने पत्थर वहाँ डाला था, उसकी एक तरह से जीत हो गई। साइकिल सवार की जीत तब होती जब वह पत्थर से अपने को बचाता हुआ निकल जाता। उसकी और भी बड़ी जीत तब होती जब वह पत्थर को उठाकर किसी कोने में रख देता, ताकि उसकी तरह किसी और की साइकिल उससे न टकराए।
 ऐसा अकसर होता है कि हम अपनी आँखों खुली रखने के बजाय विविध क्षेत्रों में दूसरों से भारी अपेक्षा रखते हैं कि वे हमारे लिए मार्ग साफ-सुथरा बनाकर रखेंगे। ऊपर वर्णित मामूली सी घटना से हम एक बड़ी सीख ले सकते हैं कि जीवन-पथ मे तरह-तरह की बाधाएँ आती हैं, जिनको पार करने के लिए हम स्वयं अपनी दृष्टि और बुद्धि का उपयोग करते हुए अपना रास्ता खुद बनाएँ और आगे बढ़ने के लिए यह न सोचें कि हमें हर रास्ता बना-बनाया मिलेगा। बाधाओं को देखकर कुढ़ने और बाधाएँ उपस्थित करने वाले प्राणियों को कोसने से कुछ हाथ नहीं लगेगा।

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Saturday, December 10, 2011

सूचना और संचार की सार्वभौमि‍कता

आकाशवाणी बि‍लासपुर से प्रसारि‍त रेडि‍यो रूपक 
'सूचना और संचार की सार्वभौमि‍कता' 

आदि‍काल से ही मानव के वि‍कास का आधार सूचनाओं का आदान प्रदान रहा है, दूसरे शब्‍दों में कहें तो हम सूचना और ज्ञान को एक दूसरे का पर्याय मान सकते हैं। संपूर्ण वि‍श्‍व में बि‍खरी पड़ी इस ज्ञान राशि‍ का सर्वोत्‍तम उपयोग तभी संभव है जब इसका आदान प्रदान हो और वो भी त्‍वरि‍त गति‍ से और आज इसी वजह से तेज गति‍ से सूचनाओं का संचार वि‍कास का पैमाना बन गया है। सूचना कहें, ज्ञान कहें या डाटा कहें जो देश जि‍तनी तेजी से इसे ग्रहण करेगा, भेजेगा और उपयोग में लायेगा वही सबसे ज्‍यादा वि‍कसि‍त कहलाएगा........कुछ साक्षात्‍कार और कुछ बातों पर आधारि‍त प्रस्‍तुत है ये रेडि‍यो रूपक




आलेख व वाचन सुप्रि‍या भारतीयन

Friday, December 9, 2011

बोलते शब्‍द 72



बोलते शब्‍द 72
आज के शब्‍द जोड़े हैं 'मत्‍त'  व 'मस्‍त'
और  'मा‍‍' व 'मां‍' 
                         आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          
स्‍वर      - संज्ञा टंडन

143. 'मत्‍त'  व 'मस्‍त'


 
144.  'मा‍‍' व 'मां‍' 






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Thursday, December 8, 2011

बोलते शब्‍द 71



बोलते शब्‍द 71
आज के शब्‍द जोड़े हैं 'मंद बुद्धि‍'  व 'अक्‍ल मंद'
और  'मत करो‍‍' व 'न करें' 
                         आलेख - डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा                          
स्‍वर      - संज्ञा टंडन
141. 'मंद बुद्धि‍'  व 'अक्‍ल मंद' 



142.'मत करो‍‍' व 'न करें' 

 



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Wednesday, December 7, 2011

बोलते वि‍चार 38 - जो हुआ, अच्छा हुआ

बोलते वि‍चार 37
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा
गीता-सार का पहला वाक्य है -‘जो हुआ, अच्छा हुआ।’ इस विषय पर गंभीरता से विचार करके इसे अमल में लाने से आदमी को परम् संतोष प्राप्त हो सकता है। आईए, इसकी व्याख्या करें।

जो हुआ, यदि वह हमारे मन के अनुकूल हुआ है, तब तो अच्छा हुआ ही है; लेकिन यदि वह हमारे मन के प्रतिकूल हुआ है, तब भी अच्छा हुआ है, यह कैसे? यह ऐसे कि हमें हर वक्त याद रखना होगा कि जो बीत चुका, उस पर अब किसी का वश नहीं हैं, क्योंकि उसे कोई वापस नहीं ला सकता। इसलिए उसे याद कर-करके अपने मन को कष्ट देना समझदारी नहीं है। जिंदगी का साथ निभाने के लिए ‘बीती ताहि बिसार दे ‘बहुत जरूरी है। आपने यह मशहूर गाना सुना होगा-‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया...जो खे गया मैं उसको भुलाता चला गया।’





हर ‘हुए’ को अच्छा मान लेने का लाभ यह है कि बीमार होने की आशंका से भी पहले बीमारी का इलाज हो जाता है। यदि आदमी ऐसा नहीं करता है-अर्थात् अपने साथ ‘खराब हुए’ को भाग्यहीनता’ कह-कहकर विलाप करता ररत है तो वह अपना वर्तमान भी खराब करता रहता है और अपना भविष्य अच्छा होने की दृष्टि से भी अपना समय और श्रम नष्ट करता रहता है।

सच्चे संतों की मान्यता है कि सुख और दुःख को समभाव से देखो। इसका मतलब है कि अपने मन पर इतना नियंत्रण रखो कि वह न तो सुख में पागल हो और न दुःख में। जिन सज्जनों को यह महान् सिद्धि प्राप्त हो जाती है, उनके लिए ‘जो हुआ, अच्छा हुआ’ का मंत्र शुद्ध वायु में साँस लेने के समान हो जाता है।
    
आदमी संसार में अकेला नहीं हैं। उसकी इच्छाओं से बहुत से व्यक्तियों की अनेक इच्छाओं का टकराव होता रहता है। जब हम यह जानते हैं कि दूसरे व्यक्तियों की भी अल्पाधिक इच्छाओं की पूर्ति (और अपूर्ति) अनिवार्य रूप से होनी है तब हम यह अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि ‘हमारी’ सभी ‘इच्छाएं पूरी हो जानी चाहिए। सच तो यह है कि यदि हमारे ही हाथों में अपने जीवन का पूरा संचालन-प्रबंधन हो, तब भी हम पूर्णरूप से सुखी नहीं बन सकते; क्योंकि हमारे लिए समाज में अन्यों की पूर्ण उपेक्षा करके जीना संभव नहीं है। उधर, हमारा दुःख तब अधिक सिर उठाता है जब दूसरों की कोई बात पूरी हो जाने और हमारी बात पूरी न हो पाने की स्थिति बनती है। बस यहीं हमें उस दुःख का सफाया करने और अपने मन का संतुलन बनाए रखने के लिए ‘जो हुआ, अच्छा हुआ’ के अस्त्र का सुदपयोग करना चाहिए।

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