Sunday, December 25, 2011

बोलते वि‍चार 44 - श्रद्धा के लाभ


    बोलते वि‍चार 44
आलेख व स्‍वर - डॉ.आर.सी.महरोत्रा

‘श्रद्धावान लभते’। यदि आप किसी के प्रति श्रद्धालु नहीं हैं तो आपके अपेक्षित लाभ नहीं मिल सकेगा। मंदिर तक पहुँचने वाले को ही देव दर्शन-लाभ मिलता है।
    
किसी से कुछ सीखने के लिए आदमी का छोटा बनना जरूरी है। उसे नीचे बैठना पड़ता है। कोई दी जानेवाली चीज ऊपर के हाथ से नीचे के ही हाथ को मिलती है। नदियाँ पहाड़ों से नीचे होने के कारण ही उनसे विपुल जलराशि ग्रहण करती रहती है।


यदि हम देने वाले को अक्षम मानकर, उसकी हँसी उड़ाकर उससे कुछ चाहते हैं, तब हम उससे सही लाभ नहीं ले सकते। दूसरे शब्दों में, हमें जिससे कुछ ग्रहण करना होता है, उसे उस क्षेत्र में अपने से बड़ा मानना होता है।
    
ईश्वर, माता-पिता, गुरू आदि से हमें इसीलिए हमारा प्राप्य मिलता है कि हम अपने को उनसे छोटा मानते हैं। स्वयं को छोटा मानने का मतलब है ‘हममें नम्रता का गुण होना’। देने वालों के उपकार का स्रोत भी तभी तक खुला रह सकता है जब तक उन्हें ‘देने वाला’ माना जाए। उनका बुरा सोचकर हम उनसे अच्छा पाने की आशा नहीं कर सकते। वे मशीन नहीं, प्राणी होते हैं (जबकि मशीन तक को अच्छा उत्पादन देने के लिए अच्छी तेल-सफाई और उचित हस्तन-संचालन चाहिए)।
    
‘श्रद्धा’ के अर्थ का विस्तार करके हम उपर्युक्त तथ्य को निर्जीव वस्तुओं पर भी लाग कर सकते हैं। पढ़ाई हो या नौकारी, गृहकार्य हो या व्यापार, जब तक हम अपने काम को श्रद्धापूर्वक (निष्ठापूर्वाक, मनोयोगपूर्वाक) नहीं करते हैं तब तक हमें उससे स्थायी लाभ मिलने की संभावना नहीं रहती।
    
कहते है कि श्रद्धा यदि पत्थर में हो, तब भी लाभ मिलता है; क्योंकि श्रद्धा करने के फलस्वरूप हमारा अहंकार दबा रहता है और गुणों के विकास का रास्ता खुला रहता है, जिससे सफलता सुगम हो जाती हैं।
    
इस अच्छाई में जितनी अधिक श्रद्धा रखते हैं, हमारे अंदर अच्छाई उतनी ही अधिक जड़ें जमाती हैं।

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