Friday, August 31, 2012
Wednesday, August 29, 2012
Bolte Vichar 65 उधार लेने और देने से बचिए
बोलते विचार 65
उधार लेने और देने से बचिए
आलेख व स्वर
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
प्रोफेसर साहब ने किसी-किसी दुकान पर लिखे हुए वाक्य ‘उधार प्रेम की कैंची है’ से भारी शिक्षा ली थी। वे अपने प्रेम संबंध किसी से भी खराब नहीं करना चाहते थे, इसलिए वे न तो किसी से रूपए उधार लेते थे और न किसी को उधार देते थे दूसरी ओेर, वे उधार माँगने वाले छोटे-मोटे लोगों की थोड़े बहुत रूपए-पैसों से मदद जरूर करते थे; लेकिन उनसे यह कहे हुए कि ये रूपए वापस नहीं लूँगा इसका मुख्य कारण वे यह बताते थे कि ऐसा करने से उनके मन पर यह बोझ और तनाव बिलकुल नहीं रह जाता था कि वह व्यक्ति ऋणस्वरूप लिये गए रूपए अपनी दी हुई ज़बान के अनुसार समय पर या कभी वापस करेगा या नहीं। हमें ऐसी स्थिति कई बार झेलनी पड़ती है कि हमने तो अपनी शराफत में किसी जरूरतमंद को उसकी मदद के नाम पर रूपए उधार तत्क्षण दे दिए कि वह बेचारा मुश्किल में है और दूसरे, उसने रूपए माँगते समय हमसे दुनिया भर की इन्सानियत दिखाते हुए यह वचन भी भरा कि वह वे रूपए अमुक तिथि को जरूर वापस कर देगा (यहाँ ब्याज के धंधे और लिखत- पढ़त की बात बिल्कुल नहीं है)। पर बाद में उन रूपयों का वापस मिलना‘दर्जनों बार टलती हुई अनिश्चितता’ में बदलता चला गया। प्रोफेसर साहब कहा करते थे कि इस प्रकार वह झूठा और बेईमान ऋणी हमें बेवकूफ बनाने में सफल हो जाता है। वे ऐसे मामलों में अपना भारी सा अहसान ऋण मांगने वाले पर पटक कर शुरू में ही आगामी दुविधा से मुक्त हो जाते थे। और यदि उनसे कोई यह पूछता कि वे रूपए तो क्या तो वे उत्तर देते -
रहिमन के नर मर चुके जे कहुँ माँगन नाहिं।
उनते पहले वे मुए जिन मुख निकसत नाहि।।
प्रोफेसर साहब का दृष्टिकोण मानवतावादी था; पर एक बात वे यह भी कहते थे, जो रहीम ने नहीं कही थी, कि उधार लेकर वापस करने का वादा करके उसे न चुकाने वाले कृतघ्न आदमी से एक भिखारी बहुत ज्यादा ईमानदार होता है, क्योंकि यह विश्वासघात नहीं करता। केवल अपना स्वाभिमान खोता है।
Production-libra media group, bilaspur,india
Tuesday, August 28, 2012
Friday, August 24, 2012
Bolte VIchar 64 निर्णय के पूर्व
महेश अपने भाई और पिता से जमीन-जायदाद संबंधी मुकदमा लड़ रहे थे, जिस सिलसिले में उन्हें अपने गाँव से अपनी बड़ी बहन के नगर कई बार जाना हुआ करता था। स्वाभाविक था कि वे बहन के यहाँ ठहर जाया करते थे। वहाँ वे जब-तब पिता के विरूद्ध विष उगलते रहते थे, जिसके प्रभाव से बहन पिता को इतना बुरा समझने लगी थी कि उसका मन उनके पास जाने का भी नहीं होता था। कुछ समय बाद जब एक बार उसका किसी विशेष अवसर पर गाँव जाना हुआ तो पिता ने उसे महेश के विरूद्ध बीसियों बातें बता डालीं, जिनका उस पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने महेश को आगे अपने घर पर ठहरने को क्या, आने तक को मना कर दिया।
यह सच्ची घटना सिर्फ यह सोचकर लिखी गई है कि किसी बात पर विश्वास केवल एक पक्ष को सुनकर करना उचित नहीं है - विशेषकर तब, जब बात में किसी व्यक्ति की बुराई-ही-बुराई हो। किसी की लगातार और हमेशा सिर्फ बुराई करने वाला व्यक्ति सामान्यतया ‘उस किसी’ के प्रति व्यक्तिगत विद्वेष से भरा हुआ होता है। जब दोनों पक्ष एक-दूसरे पर आरोप पर आरोप लगाते जा रहे हों तब सच्चाई को खोज निकालना आसान नहीं होता। कचहरियों की जरूरत इसीलिए पड़ती है।
यदि आप किसी ऐसे मामले में दो पक्षों की बीच फँस जाएँ तो ‘किसी एक की’ अच्छी-से-अच्छी या बुरी-से-बुरी बात को भी सुनकर अपना निर्णय कभी न दें।
Thursday, August 9, 2012
रवीन्द्रनाथ टैगोर की छत्तीसगढ़ से जुड़ी स्मृतियों को जिया हमने.....
रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी क्षयराग से पीडि़त थीं। वे उनको लेकर पेण्ड्रा के टीबी सेनिटारियम आए थे और कुछ समय उन्होंने यहां बिताया था। इस बात का जिक्र अक्सर सुनने पढ़ने में आता है। लेकिन 7 अगस्त 2012 को जब पूरे देश में रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150वीं जयंती का समापन समारोह मनाया जा रहा था, हम बिलासपुर के 40 कलाकारों के एक दल ने सेनिटोरियम में उसी स्थल पर साधु हॉल में रवीन्द्र संध्या में भागेदारी निभाई और जो अनुभूति व अनुभव साथ लेकर लौटे हैं उसको व्यक्त कर पाना नामुमकिन है।
दक्षिण मध्य सांस्कृतिक प्रक्षेत्र, नागपुर के सौजन्य से काव्य भारती और संस्कार भारती के नेतृत्व में ये आयोजन जिला प्रशासन के सहयोग से आयोजित किया गया था । तीन दिवसीय कार्यक्रम के प्रथम दो दिन बिलासपुर में कलकत्ता के कलाकारों ने प्रस्तुति दी और अंतिम दिन बिलासपुर के कलाकार रवीन्द्र नाथ टैगोर को याद करने पेण्ड्रा के उसी स्थल पर पहुंचे जहां रवीन्द्र नाथ ने अपने जीवन का एक महीना गुजारा था।
रवीन्द्र नाथ टैगोर की कविताओं का हिन्दी व छत्तीसगढ़ी में अनुवाद मनीष दत्त ने किया, आठ नन्हीं बच्चियों ने सविता कुशवाहा के निर्देशन में इसको प्रस्तुत किया और इस गीत रूपक के लिये मंच पर गायन अल्पना रॉय व सुमेला चटर्जी लाहिड़ी ने किया, तबले पर संगत दी मनोज वैद्य ने और रूपक वाचन संज्ञा टंडन ने किया।
गुरुदेव जब पेण्ड्रा आए थे तब बिलासपुर स्टेशन पर उन्होंने एक कविता लिखी थी ‘फांकी‘,इस बात का जिक्र भी अक्सर सुना जाता है और आज भी ये कविता बिलासपुर के स्टेशन पर पढ़ी जा सकती है। इस कविता का नाट्य रूपांतर ‘छल‘ अलक राय ने किया और श्रुति नाट्य के रूप में इसे मंच पर प्रस्तुत किया सुमेला, मिनोति चटर्जी, असित वरण डे, विमल हालदार आदि कलाकारों ने।
श्रुति नाट्य बंगाल और महाराष्ट्र की एक प्राचीन नाट्य विधा है जिसमें मंच पर अभिनय नहीं होता लेकिन पूरे भावों और संगीत के साथ कलाकार मंचीय प्रस्तुति देते हैं।
रवीन्द्र संध्या की तीसरी प्रस्तुति थी अग्रज के कलाकारों द्वारा गुरुदेव रचित दो कहानियों ‘मुक्ति का बंधन‘ और ‘अपरिचिता‘ के नाट्य रूपांतर पर अभिनय। सुनील चिपड़े के निर्देषन में 22 कलाकारों की सूत्रधार पद्धति में हुई ये प्रस्तुति रंगरवीन्द्र नाम से पेश की गई।
टैगोर जी ने लिखते समय हर पहलू को छुआ है। समाज के बीच का व्यंग्य हो, चाहे कुछ अनछुई बातें। चरित्रों और घटनाओं को बुनने का काम बड़ी कुषलता से हुआ है। उन्होंने संगीत की समझ से ही अपने संसार को सींचा है और रवीन्द्र संध्या के माध्यम से उनकी लेखनी के विभिन्न स्वरूपों को मंच पर हमने मिलकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया और बदले में अपने आंचल में भर कर लाए हैं एक ऐसा अहसास, एक ऐसी अनुभूति कि गुरुदेव ने यहीं बिताए थे चंद लमहे और हम महसूस कर रहे थे उनकी उपस्थिति, उनका एक स्पर्श।
Wednesday, August 8, 2012
bolte vichar 63 संन्यास के बिना भी.......
अच्छा बनने की चाह तो बहुतों में होती है और उसके लिए कोशिश भी बहुत से लोग करते हैं, पर अधिक-से-अधिक लोगों के लिए अच्छा बनकर दिखाने वाले व्यक्ति विरले ही होते हैं। इसका कारण यह है कि अच्छे-बुरे व्यक्ति हमारे अच्छा या बुरा होने का मूल्यांकन करते हैं, उनकी संख्या का भी कोई अंत नहीं है और अच्छाइयों तथा बुराइयों की भी कोई सीमा नहीं है।
अच्छा होने का संबंध मनुष्य के भीतर से भी है और बाहर से भी। बाहर की अपेक्षा भीतर से अच्छा होने का महत्व बहुत अधिक है ; क्योंकि स्वयं को केवल बाहर से अच्छा दिखाने वाले व्यक्ति ढोंगी होते हैं। उनकी पोल आगे-पीछे जरूर खुल जाती हैं। दूसरी ओर, केवल भीतर से अच्छे देर-सबेर दूसरों की नज़रों में अपनी अपेक्षित पहचान और इज्ज़त बना ही लेते हैं। यदि वे बाहर से भी अच्छे हुए, तब सोने में सुहागा है। उन अच्छों की सुगंध फैलते देर नहीं लगती।
उपर्युक्त उच्च अवस्था संत और संन्यासी बनकर प्राप्त करना अधिक सरल है, क्योंकि उन पर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नहीं होतीं और उन्हें सामाजिक आवश्यकताओं और प्रतिद्वंद्विताओं का सामना कम करना पड़ता है। अन्य लोगों को एक-दूसरे की इच्छाओं के पारस्परिक टकराव और बहुत व्यापी ईर्ष्या के कारण अच्छा बनने और बना रहने के लिये विकट संघर्ष करना पड़ता है। संतों और संन्यासियों के निजी जीवन की तुलना में सामान्य आदमियों के जीवन में विरोधों और शत्रुताओं के अवसर अधिक आते हैं। ऐसी स्थिति में भी जो व्यक्ति नैतिक मूल्यों पर खरे उतरते हैं, वे वस्तुतः संतों और संन्यासियों से भी अधिक बड़े हैं और मानव मात्र के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय हैं।
गांधीजी ने संसार की कर्मस्थली से बिना अलग हुए यह सिद्ध कर दिखाया कि आदमी सांसारिक गतिविधियों से विरक्त न रहकर भी अधिकाधिक लोगों के लिए अधिकाधिक अच्छा बन सकता है। यही बात गांधीजी के पदचिन्हों पर ईमानदारी से चलने वालों पर लागू है। निष्कर्ष यह है कि अच्छा बनने के लिए संन्यास लेना जरूरी नहीं है, शादी न करना जरूरी नहीं है, चौबीसों घंटे भजन-प्रवचन करना-सुनना जरूरी नहीं है।
Production-Libra Media Group
Monday, August 6, 2012
Saturday, August 4, 2012
Bolte Vichar 62 गैर ज़िम्मेदार लोग और आप
बोलते विचार 62
गैर ज़िम्मेदार लोग और आप
आलेख व स्वर
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
राजेन्द्र शनिवार को घर आए थे। कहकर गए कि सोमवार को आपकी सामग्री पहुँचा दूँगा। अपना फोन नंबर भी दे गए। जब बुधवार तक उनका कोई अता-पता नहीं रहा तो उनके नंबर पर फोन किया। उधर से आवाज आई कि वे हैं नहीं, जब आएँगे तब उन्हें बता देंगे, वे आपसे बात कर लेंगे। रात को उन्हें दूसरी बार फोन किया। जवाब मिला कि वे आकर चले गए, उन्हें बताना भूल गया कि आपका फोन आया था। अगली सुबह फिर फोन किया। उधर से सूचना मिली कि वे कभी-कभी ही यहाँ आते हैं। यह फोन नंबर उनका नहीं, हमारा है।
ट्रांसपोर्ट वाले गांगुली साहब के कार्यालय में कुछ ज़रूरी बात करने के इरादे से गया। उनके असिस्टेंट ने कहा कि वे अभी तो कुछ घंटों के लिए बाहर गए हुए हैं, जैसे ही वापस आएँगे, उन्हें बता दूँगा कि आप आए थे। उसने काम पूछा। बता दिया। बोले, ठीक है, कल इसी समय आ जाइए। अगले दिन गया। असिस्टेंड ने देखकर कहा कि अरे, मैं उन्हें कल बताना भूल गया, अभी बता देता हूँ।
सुधीर बाजार में मिला। बोला, शाम को आपके यहाँ आऊँगा। कुछ खास काम था। इंतजार रहा। नहीं आया। फोन पर भी नहीं बताया कि वह नहीं आ पाएगा। अगली सुबह उसके यहाँ आया। उसने अपनी ओर से पिछली शाम न आने की कोई चर्चा नहीं की। जब पूछा तो बताया कि, हाँ मुझे जिस काम से आना था, मैं पूरा नहीं कर पाया था।
एक परिचित के यहाँ का नौकर घर से कुछ छोटा-मोटा सामान बेचने के लिए ले गया था। बाद में वह जब-जब तब-तब झुककर बोला कि आज शाम को हिसाब करने के लिए जरूर पहुँच जाऊँगा। उसके बारे में अन्यों से जिक्र करने पर पता चला कि वह उन पैंसों को शराब आदि में फूँक चुका है।
इस प्रकार की बातें आपके साथ भी रोज घटित होती होंगी। लेकिन मन छोटा न करें। गलत आदमी हर युग में रहे हैं और हर युग में रहेंगे। यदि आप दूसरों से अपनी सुव्यवस्थित चाहतों के अनुरूप अपेक्षाएँ करेंगे तो अक्सर दुःख पायेंगे। दूसरों के विश्वासघात तक को सहन करने की ताकत रखिए। आगे बढि़ए। जो खो गया उसे भुलाते चलिए। शायर के शब्दों में, जिन्दगी का साथ निभाते चलिए। लोगों के निम्न स्तरीय व्यवहार पर अपना मानसिक संतुलन न खोइए। उन पर क्रोध करके अपनी हड्डियों को कमजो़र न बनाइए। पोप ने कहा है, ‘क्रोध करना दूसरों की गलती का अपने से प्रतिशोध लेना है।’
Production - Libra Media Group, Bilaspur, India
Friday, August 3, 2012
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