बोलते विचार 57
कर्म करने वाला ‘कर्महीन’ नहीं
आलेख व स्वर
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा
अपने कर्मों को हमें खेती के समान समझना चाहिए। अच्छी फसल पाने के लिए बहुत सी चीजें जरूरी है - अच्छी जमीन, अच्छा बीज, अच्छी खाद, अच्छा पानी, अच्छा परिश्रम, अच्छी सुरक्षा इत्यादि। अच्छा कर्म फल पाने के लिए भी बहुत से तत्व जरूरी हैं - अच्छी आत्मा, अच्छा ज्ञान, अच्छा समाज, अच्छा व्यवहार, अच्छी लगन, अच्छी नीयत इत्यादि।
यों माना जाता है कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है; पर कभी-कभी अच्छे-से-अच्छे कर्म करने के बाद भी अच्छा फल नहीं मिलता। खड़ी फसल अतिवृष्टि आदि से नष्ट हो जाती है। ऐसे में आदमी को स्वयं से बड़ी किसी सत्ता को स्वीकार करके अपने अहंकार के विसर्जन की सीख मिलती है। (वरना वह अपने को नियंता ही मान बैठेगा)
कर्म और भाग्य के छोरों को मिलाने वाला सबसे महत्वपूर्ण वाक्य है - ‘कर्म करो और फल को भाग्य पर छोड़ दो।’ इससे कभी संभावित निराशा नहीं होगी।
कर्म अनिवार्य है। असली बनकर ‘दैव-दैव’’ पुकारने वाले पुरूष पुरूषार्थ हीन और कर्महीन कहे जाते हैं। कर्महीनों के विरूद्ध (और पुरूशार्थियों के पक्ष में) संत तुलसीदास ने लिखा है-
‘सकल पदारथ है जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं।’
सच है, पुरूषार्थी यदि ठान ले तो क्या नहीं पा सकता। निरंतर कर्मरत रहने वाल वयक्ति अपनी मंजिल पा ही लेते हैं। मदर टेरेसा ने क्या-क्या हासिल करके नहीं दिखा दिया। इसके विपरीत, जो केवल भाग्य की प्रतीक्षा करते हैं वे अपने दुर्भाग्य कोही रोते दीखते हैं।
‘अमरवाणी’ में पढ़ा था - ‘भाग्य के भरोसे बैठे रहने पर, भाग्य सोया रहता है और हिम्मत बाँधकर खड़े होने पर भाग्य भी उठ खड़ा होता है।
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