Sunday, July 15, 2012

Bolte Vichar 56 Kya chahiye Dikhava ya Asliyat

बोलते विचार 56

क्‍या चाहिये.... दि‍खावा या असलियत.....



  

आलेख व स्‍वर 
डॉ.रमेश चंद्र महरोत्रा 


आदमी आज बाहर से कुछ तथा भीतर से कुछ और होता जा रहा है। ये स्थिति स्वयं के लिए काम चलाऊ भले ही हो, पर दूसरों के साथ धोखाधड़ी करने से कम नहीं है। ‘यथा नाम तथा गुण’ कहावत वाली बात मानो इतिहास के पन्नों में लुप्त हो चली है। कई बार ‘असलियत’ और ‘दिखावे’ में से ‘दिखावे’ की जीत हो जाती है। दिखावे की असलियत खोलने के लिए इस सच्चाई को मजाक में कहा जाता है कि बस एक कार्यक्रम राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का करवा लीजिए, संबंधित क्षेत्र की  सारी सड़कें चकाचक हो जायेंगी। ऐसे किसी अवसर पर दिखावे के लिये खुशहाली और सम्पन्नता का ऐसा नक्शा खींचा जाता है कि बड़े राजनेताओं को असलियत की हवा ही नहीं लग पाती। बचपन की कहानियों में सभी ने पढ़ा होगा कि राजा अपनी प्रजा के सुख-दुःख का जानने के लिए वेश बदलकर जगह-जगह जाया करता था, लेकिन छोटे नेता आज के राजाओं की आँखों के आगे असलियत खुलने देने में ही अपने अस्तित्व की रक्षा समझते हैं।

शादी-ब्याह के समय दिखावा कितने ही परिवारों को बेहद भारी पड़ता है। कई बार आदमी की हैसियत कुछ और होती है और करना उसे कुछ और पड़ता है। लड़की को दिखाने के मामले में भी प्रायः उसके रूप-गुण दिखावे की यही पद्धति अपनाई जाती है, जो कभी-कभी वास्तविकता से कोसों दूर होती है और तब जिसके कारण भविष्य में दम्पती के जीवन में स्थायी दरारें पड़ जाती है।

सफाई और सजावट जरूरी है, पर दिखावे मात्र के लिए नहीं। आदमी अपने लिए ही नहाता है, दूसरों के लिए नहीं। लेकिन दूसरी ओर, यदि भीतर गंदगी भरी हुई है तो बाहरी सफाई और सजावट का लाभ स्थायी नहीं हो सकता।

साधारण स्तर के अनेक नेताओं द्वारा झूठे आश्वासनों का दिया जाना वैसा ही है जैसा किसी नकली माल बेचनेवाले द्वारा भजन गा-गाकर उपदेश देना। ‘नेता’ शब्द के अर्थ में ह्रास इसीलिए हुआ है कि बहुत से नेता अपने को दिखाते कुछ और हैं, जबकि उनकी असलियत कुछ और होती है। वरना कुछ वर्ष पहले तक ‘नेता’ सचमुच सही नेतृत्व करने वाला हुआ करता था। ‘नेताजी’ शब्द कान में पड़ते ही आज भी सुभाषचंद्र बोस की मूर्ति आँखों के सामने सम्मान के साथ स्थापित हो जाती है। वे जो भीतर से थे, वही बाहर से थे। उनके लिए असलियत और दिखावे में कोई अन्तर नहीं था।

अयोग्य होने पर विद्वान् होने का दिखावा करके, विपन्न होने पर सम्पन्नता का ढ़ोंग दिखाकर, बुड्ढ़ा होने पर जवान होने का छल-कपट करके और भ्रष्टाचारी होने पर ईमानदार होने का स्वाँग रचकर आदमी लंबी अवधि और स्थायित्व के पैमाने पर वस्तुतः स्वयं को ही धोखा देता है। बहुत मशहूर कहावत है कि आदमी कुछ लोगों को सब समय के लिये और सब लोगों को कुछ समय के लिए तो धोखा दे सकता है, पर सब लोगों को सब समय के लिए धोखा नहीं दे सकता। इस प्रकार हर दिखावे के पीछे छिपी असलियत एक-न-एक दिन सामने आकर पिछली सारी देनदारी को ब्याज सहित वसूल लेती है। दिखावों से दूर रहने वाला व्यक्ति हमेशा असलियत के समीप रहने के कारण ऐसी देनदारियों से सदा मुक्त रहता है।
कर्म करने वाला ‘कर्महीन’ नहीं

अपने कर्मों को हमें खेती के समान समझना चाहिए। अच्छी फसल पाने के लिए बहुत सी चीजें जरूरी है - अच्छी जमीन, अच्छा बीज, अच्छी खाद, अच्छा पानी, अच्छा परिश्रम, अच्छी सुरक्षा इत्यादि। अच्छा कर्मफल पाने के लिए भी बहुत से तत्व जरूरी हैं - अच्छी आत्मा, अच्छा ज्ञान, अच्छा समाज, अच्छा व्यवहार, अच्छी लगन, अच्छी नीयत इत्यादि।

यों माना जाता है कि अच्छे कार्मों का फल अच्छा होता है; पर कभी-कभी अच्छे-से-अच्छे कर्म करने के बाद भी अच्छा फल नहीं मिलता। खड़ी फसल अतिवृष्टि आदि से नष्ट हो जाती है। ऐसे में आदमी को स्वयं से बड़ी किसी सत्ता को स्वीकार करके अपने अहंकार के विसर्जन की सीख मिलती है। (वरना वह अपने को नियंता ही मान बैठेगा)

कर्म और भाग्य के छोरों को मिलाने वाला सबसे महत्वपूर्ण वाक्य है - ‘कर्म करो और फल को भाग्य पर छोड़ दो।’ इससे कभी संभावित निराशा नहीं होगी। कर्म अनिवार्य है। असली बनकर ‘दैव-दैव’ पुकारने वाले पुरूष पुरूषार्थहीन और कर्महीन कहे जाते हैं। कर्महीनों के विरूद्ध (और पुरूषार्थियों के पक्ष में) संत तुलसीदास ने लिखा है ‘सकल पदारथ है जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं।’ सच है, पुरूषार्थी यदि ठान ले तो क्या नहीं पा सकता। निरंतर कर्मरत रहने वाले व्‍यक्ति अपनी मंजिल पा ही लेते हैं। मदर टेरेसा ने क्या-क्या हासिल करके नहीं दिखा दिया। इसके विपरीत, जो केवल भाग्य की प्रतीक्षा करते हैं वे अपने दुर्भाग्य कोही रोते दीखते हैं। ‘अमरवाणी’ में पढ़ा था - ‘भाग्य के भरोसे बैठे रहने पर, भाग्य सोया रहता है और हिम्मत बाँधकर खड़े होने पर भाग्य भी उठ खड़ा होता है।

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